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अब यहां की लड़कियां खेल में ही करियर बनाना चाहती हैं।
मध्य प्रदेश के हरदा जिले की जमीन उपजाऊ मानी जाती है और यहां की 70 फीसदी आबादी आदिवासी समुदाय से है। लेकिन आर्थिक व सामाजिक रूप से अब भी यह इलाका पिछड़ा हुआ है। पिछड़ेपन के बावजूद यहां की आदिवासी लड़कियां क्रिकेट में अपना कमाल दिखा रही हैं। जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर वनग्राम चंद्रखाल की आदिवासी लड़कियों का विगत दिनों आपस में क्रिकेट मैच हुआ, जिसे देखने और शाबाशी देने के लिए बड़ी संख्या में शहर के लोग उमड़े।
उत्सव जैसे इस माहौल में आसपास के 15 गांवों की लड़कियां बैट और बॉल से मैदान में एक-दूसरे को पछाड़ने में लगी थीं। वर्षों से भेदभाव की शिकार इन लड़कियों के लिए खुले मैदान में क्रिकेट टूर्नामेंट खेलना बहुत बड़ी उपलब्धि था। हालांकि यूनिफॉर्म में इन लड़कियों का क्रिकेट खेलना पहले किसी को मंजूर नहीं था, लेकिन इस धारणा को इन लड़कियों ने बदल डाला। पहले इन लड़कियों ने परिवार का भरोसा जीता, फिर समाज का। और उनके इस प्रयास को संभव बनाने में सहयोग किया सिनर्जी संस्थान ने।
लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए इस संस्थान ने चेंजलूमर कार्यक्रम शुरू किया, जिसके तहत लड़कियों की रुचि जानकर उन्हें उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। गांव में आदिवासी लड़कियों के साथ कुछ मुस्लिम लड़कियों ने भी क्रिकेट खेलने में अपनी रुचि दिखाई, लेकिन शुरू में मात्र दो लड़कियों को परिवार वालों ने खेलने की अनुमति दी। मुस्लिम परिवार से तोशिबा कुरैशी और आदिवासी परिवार की हेमा मंडराई के प्रशिक्षण के लिए संस्थान ने अपनी ओर कोच की तलाश शुरू की।
इसके लिए हरदा क्रिकेट एसोसिएशन से बात की गई, लेकिन लड़कियों की कोचिंग के लिए कोई कोच तैयार नहीं हो रहा था। बहुत कोशिश के बाद संस्था को इस शर्त पर कामयाबी मिली कि संस्था का कोई पदाधिकारी लड़कियों की प्रैक्टिस के दौरान मैदान पर मौजूद रहेगा। दो लड़कियों से शुरू हुई इस मुहिम में एक साल के भीतर 15 लड़कियां शामिल हो गईं, जो लड़कियों में उम्मीद जगाने के लिए बड़ी बात थी। इन लड़कियों ने अपनी मेहनत और गुल्लक में जमा पैसे से बैट-बॉल खरीदे।
हालांकि इसमें कुछ संस्थानों ने भी योगदान दिया। इस तरह शुरू हुई लड़कियों की क्रिकेट टीम। आज जब इनका टूर्नामेंट होता है, तो संस्था के अलावा पंचायत और वन विभाग, नगर निगम सभी इनकी मदद करते हैं। वन विभाग इनके टूर्नामेंट के लिए मैदान को समतल बनाता है, दर्शकों के बैठने के लिए टेन्ट लगाता है, नेहरू युवा केंद्र विजेताओं के लिए स्मृति चिह्न तैयार करवाता है। संस्था की ओर से पुरस्कार में नगद राशि दी जाती है। अब स्थिति यह है कि 15 गांवों की लड़कियों के बीच टुर्नामेंट होने लगा है।
कभी उनका विरोध करने वाले लोग अब उन्हें मैदान में शाबाशी देने से नहीं चूकते। गांव के लोगों की सोच भी बदलने लगी है। विमल जाट बताते हैं कि चार साल पहले स्थानीय लड़कियों की रुचि को देखते हुए यहां महिला क्रिकेट टीम की शुरुआत की गई थी। आज यह टीम राज्य और संभाग स्तर पर खेल रही है। अब मैदान में लड़कियां अपने आपको असहज महसूस नहीं करतीं, बल्कि उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। इन्हें देखकर गांव की अन्य लड़कियां भी प्रेरित हो रही हैं।
टूर्नामेंट खेल रही सिगोन गांव की शीला शादीशुदा है, वह बताती है कि पहले हम सिर्फ झाड़ू और मोगरी पकड़ते थे, लेकिन अब हमारे हाथ में बल्ला है। इसी तरह ढेकी गांव की मधु कहती है कि फाइनल खेलने के लिए हम सब रोज मैदान में प्रैक्टिस करती हैं। हमें प्रोत्साहन देने के लिए परिजनों ने घर के कामों को आपस में बांट लिया है। वे हमें घर के काम से मुक्त रखते हैं, जिससे हम क्रिकेट खेल सकें। यही सबसे बड़ा बदलाव है।
क्रिकेट के जरिये समाज की सोच में सकारात्मक बदलाव संभव हो पा रहा है। खासकर लड़कियों को देखने का नजरिया बदल रहा है। इन लड़कियों ने दिखा दिया कि लड़कियां भी बखूबी क्रिकेट खेल सकती हैं। अब यहां की लड़कियां खेल में ही करियर बनाना चाहती हैं।
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