सम्पादकीय

मध्य प्रदेश निकाय चुनाव : ओबीसी विरोधी होने के आरोप से कांग्रेस कैसे बचेगी?

Rani Sahu
19 Dec 2021 6:53 AM GMT
मध्य प्रदेश निकाय चुनाव : ओबीसी विरोधी होने के आरोप से कांग्रेस कैसे बचेगी?
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश में गाज अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षित पदों पर गिरी

दिनेश गुप्ता गए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास, कांग्रेस (Congress) प्रवक्ता और मध्यप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष जेपी धनोपिया की यह टिप्पणी राज्य में पंचायत चुनावों को लेकर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के शुक्रवार के फैसले पर बिल्कुल सटीक बैठती है. राज्य में पंचायतों के परिसीमन को समाप्त किया जाना घोषित मुद्दे के तौर पर सामने था. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के आदेश में गाज अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षित पदों पर गिरी. आरक्षण देकर वापस लेना शेर के मुंह से निवाला छीनने जैसा है.

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के बाद अब मध्यप्रदेश में निकाय चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए सीटें आरक्षित किए जाने के प्रावधान को नामंजूर कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देशों का असर भले ही निकाय चुनाव में ओबीसी के लिए आरक्षित पदों पर दिखाई दे रहा है, लेकिन राजनीतिक तौर पर यह निर्देश व्यापक असर डालने वाले हैं. उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों में अगले साल के शुरुआती माह में चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने वाली है. इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी इसे भी जरूर मुद्दा बनाएगी कि कांग्रेस के कारण ओबीसी आरक्षण खतरे में हैं.
ओबीसी विरोधी होने के आरोप से कांग्रेस कैसे बचेगी
कांग्रेस, बीजेपी को आरक्षण का विरोधी बताती रही है. अब वह खुद कटघरे में है. यद्यपि मध्यप्रदेश में प्रत्यक्ष तौर पर भले ही कांग्रेस यह दावा कर रही है कि वह चुनाव रुकवाने के लिए कोर्ट नहीं गई. लेकिन, याचिकाकर्ता और वकील का जो चेहरा सामने है, उससे दावा कमजोर नजर आता है. मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हितेश वाजपेयी कहते हैं कि याचिकाकर्ता सैयद जाफर कांग्रेस के प्रवक्ता हैं.
याचिकाकर्ताओं के वकील विवेक तन्खा कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य हैं. सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मामले की सुनवाई करते हुए राज्य निर्वाचन आयोग से कहा कि वे आग से न खेलें, ओबीसी सीटों को सामान्य श्रेणी में बदलें. जस्टिस ए.एम.खानविलकर की पीठ के निर्देश मिलने के कुछ ही घंटे के भीतर राज्य निर्वाचन आयोग ने ओबीसी सीटों पर निर्वाचन की प्रक्रिया को रोक दिया. आयोग ने कलेक्टर एवं जिला निर्वाचन अधिकारियों को भेजे निर्देश में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा है कि अन्य पिछड़ा वर्ग हेतु त्रिस्तरीय पंचायत में आरक्षित सभी पदों की निर्वाचन प्रक्रिया स्थगित की जाती है. राज्य निर्वाचन आयुक्त बसंत प्रताप सिंह कहते हैं कि कोर्ट के आदेश का अक्षरशः पालन करते हुए चुनाव कराए जाएंगे.
राज्य में पंचायत चुनाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह से मामले ने टर्न लिया है, उसमें फिलहाल सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को दिखाई दे रहा है. कांग्रेस के भीतर पनप रहा असंतोष भी उभरकर सामने आने की संभावना बढ़ गई है. त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में लगभग 75 हजार पद ओबीसी के लिए आरक्षित हैं. राज्य में सरपंच के कुल तीन लाख 62 हजार से अधिक पद हैं. जबकि सरपंच के कुल पदों की संख्या 22,581 है. राज्य में पिछले कुछ माह से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच ओबीसी वोटों को अपनी ओर खींचने की जंग चल रही है. पंद्रह माह की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्य में ओबीसी आरक्षण की सीमा को 14 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया था. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका लाभ नहीं मिला था. आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने के क्रियान्वयन पर कोर्ट ने रोक लगाई हुई है.
ओबीसी हितैषी छवि को बचाना शिवराज सिंह चौहान के लिए भी चुनौती
कांग्रेस की सरकार भी चली गई है. लेकिन, कांग्रेस ने ओबीसी का मुद्दा जिंदा रखा हुआ था. पंचायतों में ओबीसी आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से कांग्रेस पूरी तरह से बैकफुट पर है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट महाराष्ट्र में भी निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण पर रोक लगा चुकी है. दो राज्यों में ओबीसी आरक्षण पर रोक कांग्रेस के खिलाफ हिन्दीभाषी राज्यों में बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकते हैं. महाराष्ट्र में कांग्रेस उद्धव ठाकरे सरकार भागीदार है. जबकि मध्यप्रदेश में वह पंचायत चुनाव रुकवाने के लिए कोर्ट गई.
गुना से बीजेपी सांसद कृष्ण पाल सिंह यादव कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी द्वारा ओबीसी के साथ छलावा कर उनके अधिकारों पर कुठाराघात किया जा रहा है. हाईकोर्ट में मध्यप्रदेश सरकार की ओर से पेश की गई जानकारी में ओबीसी की आबादी 54 प्रतिशत बताई गई. पिछले डेढ़ दशक से राज्य में बीजेपी ओबीसी चेहरे को आगे रखकर ही चुनाव जीत रही है. 2003 के विधानसभा चुनाव में उमा भारती के चेहरे से यह सिलसिला शुरू हुआ था. राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ओबीसी हैं. चौहान के लिए सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देश किसी चुनौती से कम नहीं है. कांग्रेस उन पर पहले से ही ओबीसी हितैषी न होने का आरोप लगा रही है. बीजेपी के भीतर अब एक धड़ा यह मांग कर रहा है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट जाकर निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को बहाल कराए.
50 प्रतिशत की सीमा के पार ओबीसी पर दांव
ओबीसी को चुनावी राजनीति में आरक्षण दिए जाने का सिलसिला मध्यप्रदेश से ही शुरू हुआ था. लोकसभा और विधानसभा सीटों पर ओबीसी को आरक्षण नहीं दिया जाता है. लोकसभा और विधानसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लिए ही सीटें आरक्षित हैं. राज्यों में राजनीतिक दलों ने अपने राजनीति लाभ के लिए इससे आगे जाकर निकाय चुनाव में भी पद आरक्षित करना शुरू कर दिया है. महाराष्ट्र में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत पद आरक्षित किए गए. मध्यप्रदेश में 25 प्रतिशत पद आरक्षित किए जाने की व्यवस्था है. लेकिन, 50 प्रतिशत की सीमा के पार है. राज्य में अनुसूचित जनजाति के लिए 20 प्रतिशत और अनुसूचित जाति के लिए 16 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है.
आबादी के अनुसार आरक्षण
पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के निकायों में भी ओबीसी के लिए आरक्षण हैं. महिलाओं के लिए भी पद आरक्षित है. देश में ओबीसी आरक्षण की राजनीति का जिन्न वीपी सिंह की सरकार के समय बोतल से निकलकर बाहर आया था. सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग को विभिन्न पदों पर आरक्षण का लाभ दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की है. इसके बाद भी उत्तर और दक्षिण भारत के कई राज्यों में आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा को पार कर चुका है. मध्यप्रदेश कमलनाथ सरकार द्वारा ओबीसी का आरक्षण 27 प्रतिशत किए जाने के बाद कुल आरक्षण 63 प्रतिशत पर पहुंच गया. सामान्य वर्ग में पैदा होने वाले असंतोष को रोकने के लिए गरीब सवर्णों पर भी आरक्षण लागू किया गया है.
आबादी का डाटा बन रहा है विवाद की वजह
कांग्रेस की राजनीति अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यक वोटों पर केन्द्रित रहती है. अन्य पिछड़ा वर्ग उसके एजेंडे में राज्य के हिसाब से तय होता है. उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोटर समाजवादी पार्टी के करीब देखा जाता है. ओबीसी की जातियों में यादव मुख्य तौर पर सामने दिखाई देते हैं. चुनावी राजनीति में सामान्यतः यादव एकजुट होकर वोट करते हैं. मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने भी अरुण यादव के रूप में यादव चेहरे का उपयोग किया था. वे लगभग पांच साल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे हैं. यादव को राज्य कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के करीबी नेताओं में शुमार नहीं किया जाता. यादव इन दिनों अलग-थलग दिखाई दे रहे हैं. निकाय चुनाव में ओबीसी का आरक्षण समाप्त किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद यादव ने मुख्यमंत्री चौहान से मांग करते हुए ट्वीट किया कि यदि वे (शिवराज सिंह चौहान) ओबीसी हितैषी हैं तो सुप्रीम कोर्ट को पिछड़ा वर्ग का प्रॉपर टेटा उपलब्ध कराएं, जिससे पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण समाप्त न हो. जाहिर है कि अब ओबीसी आरक्षण एक बार राजनीति के केन्द्र में आ गया है.
परिसीमन से शुरू केस आरक्षण पर अटका
मध्यप्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनाव दो साल से टल रहे हैं. कमलनाथ सरकार ने वर्ष 2019 में नया परिसीमन कराया था. वे चुनाव करा पाते इससे पहले उनकी सरकार चली गई. मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के बाद बीजेपी की सरकार में वापसी हुई. कोविड भी इसी दौरान आया. जिसके चलते पंचायतों के चुनाव टलते रहे. पिछले माह सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर कमलनाथ सरकार के परिसीमन को निरस्त कर दिया. जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है. इसी बीच राज्य निर्वाचन आयोग ने वर्ष 2014 के परिसीमन के आधार पर चुनाव की घोषणा कर दी. इसे भी हाईकोर्ट में चुनौती दी गई.
हाईकोर्ट की ग्वालियर बैंच ने चुनाव प्रक्रिया को रोकने से इंकार कर दिया था. याचिका का मूल मुद्दा परिसीमन को निरस्त किए जाने को लेकर था. फिर इसमें चुनाव की घोषणा भी शामिल हो गई. ओबीसी का आरक्षण याचिका के मूल बिंदु के तौर पर सामने नहीं आया. हाईकोर्ट ने चुनाव प्रक्रिया नहीं रोकी तो फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई मेरिट के आधार किए जाने के निर्देश देकर याचिकाकर्ता को वापस हाईकोर्ट भेज दिया. हाईकोर्ट ने 16 दिसंबर को साफ कह दिया कि मामले में सुनवाई तय तारीख को ही होगी. लिहाज शुक्रवार को वापस मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. जिसमें ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों को सामान्य में परिवर्तित करने के निर्देश कोर्ट ने दिए.
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