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दिवाली स्वदेशी से हो उजियारा
परिदृश्य एक- वो लॉकडाउन का समय था. भोपाल के एक संपन्न परिवार के घर आटा खत्म हो गया. ऐसा नहीं था कि परिवार के पास आटा खरीदने के पैसे नहीं थे लेकिन मुश्किल यह थी कि बाजार बंद था और ऑनलाइन खरीदारी भी बंद थी. ऐसे में घर के मुखिया ने अपने मोहल्ले के किराना दुकान वाले को फोन लगाया. उन्होंने उससे आटा मुहैया कराने की गुजारिश की. दुकानदार ने कहा- दिन में तो पुलिस के कारण मुश्किल होगी लेकिन रात को वह चुपचाप दुकान खोलकर, आटा उनके घर पहुंचा देगा. और उसी रात मोहल्ले के उस दुकानदार ने जोखिम मोल लेकर भी पर्याप्त मात्रा में आटा उस घर तक पहुंचा दिया.
परिदृश्य दो- लॉकडाउन में लोगों के सामने घरों के आसपास ही खरीदारी की मजबूरी को देखते हुए, अपना कुछ काम धंधा चल निकलने की उम्मीद में मुख्य बाजार में गुमटी लगाने वाले एक व्यक्ति ने अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर एक बड़ी बस्ती में किराये की दुकान ले ली. वहां लोगों की रोजमर्रा की जरूरत का सामान भी भर लिया, जिसमें काफी सामान उधारी पर भी लिया गया था. लॉकडाउन तक तो काम काज ठीक रहा लेकिन जैसे ही लॉकडाउन खत्म हुआ और सारे बाजार खुले, उसकी दुकान से खरीदारी बंद हो गई. उसके सामने दुकान समेटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. नई दुकान के चक्कर में उसकी पहले वाली गुमटी भी जाती रही और अब वह सड़क किनारे चादर की छत बनाकर छोटा मोटा सामान बेच, परिवार का पेट पालने की जद्दोजहद में लगा है.
ये दोनों परिदृश्य भले ही कहीं के भी हों, आप बस शहर का नाम बदल दीजिये, बाकी यही की यही पूरी कहानी आपको देश के करीब करीब हर राज्य में, हर शहर में मिल जाएगी. ये दृश्य बताते हैं कि कोरोना से हमने भले ही डरना सीखा हो लेकिन हम अपने आसपास के लोगों के द्वारा संकटकाल में की गई मदद को याद रखना और कोरोना के बाद सामान्य होती जिंदगी में उन लोगों की आजीविका का ख्याल रखने की बात नहीं सीख पाए.
कोरोना की पहली लहर के दौरान आई दिवाली तो सहमे हुए माहौल में ही बीती थी लेकिन इस बार की दिवाली काफी हद तक सामान्य माहौल में बीतने के संकेत दे रही है. बाजार खुल चुके हैं और बाजारों में रौनक भी लौट रही है. लेकिन इसी रौनक के बीच हजारों लाखों की संख्या में वो लोग भी हैं जो उम्मीद लगाए बैठे हैं कि उनके द्वारा बनाए गए या लाए गए सामान की खरीदारी भी होगी और वे भी बाकी लोगों की तरह अपने परिवार की दिवाली मना सकेंगे.
विडंबना यह है कि लोग कोरोना काल के संकट में अपने आसपास के लोगों जैसे किराना दुकानदार, सब्जी वाला, दूध वाला आदि की सेवाओं को लगभग भुला बैठे हैं. ऑनलाइन शॉपिंग खुल जाने से डिजिटली होने वाले कारोबार में जहां उत्सव का माहौल है और लोग धड़ल्ले से वहां खरीदारी कर रहे हैं वहीं गली मोहल्लों के दुकानदार और वस्तु निर्माता ग्राहकों के इंतजार में बैठे हैं. हालांकि कई संस्थाओं और संगठनों ने इस बार दिवाली पर स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल और अपने आसपास के ही दुकानदारों से खरीदारी किए जाने को लेकर अभियान चलाए हैं लेकिन यह भी सच है कि झालर और सजावट का सामान ही नहीं दीये, मोमबत्ती, अगरबत्ती, देवी देवताओं की मूर्तियों से लेकर गोबर के कंडे (उपले) जैसी शुद्ध देशी और घरेलू चीजें तक ऑन लाइन खरीदी जा रही हैं.
पिछले कुछ सालों से चीन ने हमारे तमाम बड़े त्योहारों से जुड़ी चीजों को अपने यहां बनाकर, चीनी माल से हमारे बाजारों को पाट दिया था. बीच में राजनीतिक और सैन्य कारणों से चीनी माल के प्रति एक गुस्सा पनपा था और उसके बहिष्कार का नारा देते हुए स्वदेशी माल के उपयोग की अपील भी की गई थी, लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि आज भी आंकड़े कहते हैं कि भारत के बाजार में चीनी माल की खपत में कोई खास अंतर नहीं आया है.
टीवी चैनलों पर आज भी देशी और परंपरागत मिठाइयों के बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमकीले 'चॉकलेटी' गिफ्ट के विज्ञापन छाए हुए हैं. एक तरफ हमारा परंपरागत मिठाइयों का बाजार ठप है, त्योहारों के समय थोड़ा बहुत कमा लेने वाले हमारे हलवाई बेकार बैठे हैं और दूसरी तरफ विज्ञापनी मिठाइयां लेकर घरों की घंटियां बजाने और उन्हीं के साथ त्योहार मनाने के बाजारी संदेश वायरल हो रहे हैं. कुल मिलाकर शॉपिंग के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म लुभावने ऑफर्स से भरे पड़े हैं और लोग दीवाने होकर उन पर टूटे जा रहे हैं.
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कोरोना काल ने देश की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है. अब जब स्थितियां कुछ सामान्य हो चली हैं और सामान्य होती इन स्थितियों में दीवाली जैसा भारत का सबसे बड़ा त्योहार आया है तो हमारा रवैया क्या हो? निश्चित रूप से भारत की अर्थव्यवस्था को हमें दुबारा पटरी पर लाना है तो हमें अपने घरेलू या स्वदेशी उत्पादों को ही प्राथमिकता देनी होगी और उनकी खरीदारी के लिए अपने आसपास के, गली-मोहल्ले और स्थानीय बाजार के दुकानदारों को ही महत्व देना होगा.
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों देश में 100 करोड़ टीके लगने की उपलब्धि के अवसर पर कहा था कि- ''एक जमाना था जब Made in ये country, made in वो country का बहुत क्रेज हुआ करता था. लेकिन आज हर देशवासी ये साक्षात अनुभव कर रहा है कि Made in India की ताकत बहुत बड़ी है. और इसलिए, आज मैं आपसे फिर ये कहूंगा कि हमें हर छोटी से छोटी चीज, जो Made in India हो, जिसे बनाने में किसी भारतवासी का पसीना बहा हो, उसे खरीदने पर जोर देना चाहिए. और ये सबके प्रयास से ही संभव होगा.
जैसे स्वच्छ भारत अभियान, एक जन–आंदोलन है, वैसे ही भारत में बनी चीज खरीदना, भारतीयों द्वारा बनाई चीज खरीदना, Vocal for Local होना, ये हमें व्यवहार में लाना ही होगा. और मुझे विश्वास है, सबके प्रयास से हम ये भी करके रहेंगे. आप याद करिए, पिछली दीवाली, हर किसी के मन–मस्तिष्क में एक तनाव था. लेकिन इस दीवाली, 100 करोड़ वैक्सीन डोज के कारण, एक विश्वास का भाव है. अगर मेरे देश की वैक्सीन मुझे सुरक्षा दे सकती है तो मेरे देश का उत्पादन, मेरे देश में बने सामान, मेरी दीवाली और भी भव्य बना सकते हैं. दीवाली के दौरान बिक्री एक तरफ और बाकी साल की बिक्री एक तरफ होती है.
हमारे यहाँ दीवाली के समय त्योहारों के समय ब्रिकी एकदम बढ़ जाती है. 100 करोड़ वैक्सीन डोज, हमारे छोटे–छोटे दुकानदारों, हमारे छोटे–छोटे उद्यमियों, हमारे रेहड़ी–पटरी वाले भाइयों–बहनों, सभी के लिए आशा की किरण बनकर आई है.''
जाहिर है आज की परिस्थितियों में त्योहार मनाने का अर्थ सिर्फ अपने उत्सव के बारे में सोचना ही नहीं है बल्कि सही मायनों में हम दिवाली तभी मना पाएंगे जब हम दूसरों के आनंद और उत्सव के बारे में सोचें. देश की दीवाली और उसकी समृद्धि के बारे में सोचें. यदि हम इस मौके पर अपने लोगों को, छोटे-बड़े स्वदेशी उत्पादकों को, स्थानीय दुकानदारों को अहमियत देते हैं, उनसे सामान खरीदते हैं तो हम अपनी ही नहीं देश की दिवाली मनाने का उपक्रम कर रहे होते हैं.
दिवाली हो या और कोई भी त्योहार, ये केवल हमारी धार्मिक आस्था और उत्सवी परंपरा का ही द्योतक नहीं हैं, ये हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे को सहारा देने वाले उपक्रम भी हैं. यदि हम ऐसे मौकों पर भी स्वदेशी सामान और अपने आसपास के कारोबारियों को सहारा और बढ़ावा नहीं देंगे तो फिर कब देंगे? आइये संकल्प लें कि इस बार की दीवाली को हम स्वदेशी उत्पादों के साथ, आत्मनिर्भर भारत की रोशनी से ही जगमग करेंगे.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
गिरीश उपाध्याय, पत्रकार, लेखक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. नई दुनिया के संपादक रह चुके हैं.
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