सम्पादकीय

मदारी, फकीर, झोला और रायता

Rani Sahu
5 Jun 2023 7:01 PM GMT
मदारी, फकीर, झोला और रायता
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मुझे आज तक समझ नहीं आया कि आदमी फकीर क्यों बनता है? अपने मिज़ाज की वजह से या औरों से अपना अन्दाज़ जुदा रखने के लिए। सुना है पहले लोग स्वयं को जानने के लिए फकीर बनते थे और जानने के बाद आवाज़ देते थे, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ या ‘अनलहक’। फिर भले ज़हर पीना पड़े या सूली चढऩा पड़े। सुकरात और मंसूर की मिसाल हमारे सामने है। पर राजनीतिक विश्लेषक आज तक यह पता नहीं लगा पाए हैं कि फैंकू प्रधानमंत्री बनने के बाद फकीर हुए हैं या फकीर होने के बाद प्रधानमंत्री। पर टुकड़े-टुकड़े गैंग की तरह टुकड़े-टुकड़े पकीरी पाने वाले फकीर से किसी की यह पूछने की हिम्मत नहीं होती कि अगर आप फकीर हैं तो कैमरा देखते ही फिसल क्यों जाते हैं? पर फकीरों के लिए तो जग मिथ्या है। इसलिए कैमरा देखते ही भले उनके चेहरे पर स्माइल आ जाती हो, पर लौकिक समस्याओं को लेकर वह कभी गम्भीर नहीं होते। फिर चाहे चीन कश्मीर में पर्यटन पर होने वाली जी-20 बैठक का बहिष्कार कर दे या हमारी ज़मीन पर गाँव बसा ले। लोगों के लिए फकीर इतने सुलभ हैं कि लोगों को चाहे खली के सीने का नाप न पता हो, पर सबको पता है कि उनकी छाती छप्पन इंच्ची है। हो सकता है कि यह नाना पाटेकर की फिल्म ‘अब तक छप्पन’ का प्रभाव हो। लेकिन लोग बेहद नाशुक्रे हैं। फकीर ने कर्नाटक चुनावों में सभी लोगों से एक छोटा सा पर्सनल काम करने की अपील की थी। पर न तो अधिकतर लोगों ने बजरंग बली का नारा लगाया और न ईवीएम में पीं की। पर फकीर का अपना तो कुछ भी नहीं है।
उनका क्या है? वह तो फकीर हैं। कभी भी झोला उठा कर, कहीं भी चल देंगे। उनके फकीराना अन्दाज़ में अमीरी का जो जुनून झलकता है, वह तो सरकारी खज़़ाने की आभा है, जो विरलों को नसीब होती है। यह तो उनकी हाथ की लकीरों और मेहनत का परिणाम है कि वह एक समय में राजा भी हैं और फकीर भी। भले हर राज्य में होने वाले चुनावों के हिसाब से उनके मंच बदलते रहें पर फकीरी का आलम वही रहता है। मौके के हिसाब से दिन में कम से कम दस सूट, टनों फूल और मनों झूठ। उनकी कथनी और करनी में कोई भेद न होने से दो-दो बार नोटबंदी होने के बावजूद देश में किसी ने उनके फकीर होने पर संदेह नहीं किया। उन्होंने अपने जीवन में कभी किसी से कुछ नहीं छिपाया। पर उन्होंने फैसला कर लिया है कि अब वह अपने को किसी बंधन में नहीं बाँधेंगे। जो मज़ा फकीरी में है, वह बंधन में कहां? वह शीघ्र ही संन्यास की घोषणा कर देंगे।
भले उनके अंधभक्त रो-रोकर कहते रहें, ‘न जाओ फकीरा छुड़ा के बैंया, क़सम तुम्हारी हम रो पड़ेंगे।’ पर फकीर अपनी पहली और अन्तिम प्रैस कान्फ्रेंस में बोलेंगे, ‘मैंने तो जिस दिन देश की बागडोर संभाली थी, उसी दिन घोषणा कर दी थी कि मैं तो फकीर हूं, मेरा क्या? जब तक जनता चाहेगी, देश की सेवा करूँगा। नहीं तो झोला उठा कर चल दूँगा।’ पर जब कोई पत्रकार उनसे पूछेगा, ‘साहेब! यह ठीक है कि आप अब झोला उठा कर जा रहे हैं। पर उस रायते का क्या, जो आपने पिछले 23 सालों में बतौर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री फैलाया है।’ यह सुन कर प्रैस कॉन्फ्रेंस में पहली बार बोलने वाले फकीर फिर चुप्पी साध लेंगे। पर अंधभक्त सोचेंगे कि यह प्रश्न पूछे जाने के पीछे कहीं विदेशी ताक़तों का हाथ तो नहीं। इसमें साहेब का क्या कसूर? साहेब तो फकीर होने से पहले मदारी थे और मदारियों का काम केवल मजमा लगाना होता है। मजमे को संभालते तो जमूरे ही हैं। जबकि सत्य तो यह है कि आदमी चोला तो बदल लेता है। पर उसकी फितरत नहीं बदलती। पर यह देखना दिलचस्प होगा कि फकीर नवनिर्मित फाईव स्टार आश्रम में अपने झोले से डमरू निकाल कर कौन सा राग बजाते हैं। उन्हें सुनने के लिए अंधभक्तों की लम्बी क़तारें तो वहां भी सजी रहेंगी।
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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