सम्पादकीय

यादों में मां सिद्धेश्वरी देवी: वे ठुमरी की पर्यायवाची थीं, उन्होंने ठुमरी को दिलों से जोड़ा

Gulabi
12 Aug 2021 12:44 PM GMT
यादों में मां सिद्धेश्वरी देवी: वे ठुमरी की पर्यायवाची थीं, उन्होंने ठुमरी को दिलों से जोड़ा
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सिद्धेश्वरी देवी ठुमरी की रंगरेज गायिका थीं

08 अगस्त 1908 को बनारस के मशहूर संगीतज्ञ परिवार में एक विलक्षण प्रतिभा का जन्म हुआ। बचपन में लोग इन्हें 'गोगो' के नाम से पुकारते थे और बाद में यही गोगो ठुमरी साम्राज्ञी 'सिद्धेश्वरी देवी' के नाम से मशहूर हुईं।

सिद्धेश्वरी देवी ठुमरी की रंगरेज गायिका थीं। उनकी ठुमरी जीवन के विविध रंगों और कला के सभी महत्वपूर्ण रसों का उत्सव मनाती थी, जिसमें बड़ी ही खूबसूरती से ठुमरी अपने भाव और उद्देश्य को साकार करती थी। वात्सल्य, कृष्ण-भक्ति, श्रृंगार, विरह आदि विविध रस अपने मौलिक रूप में व्यक्त होती थी।
ठुमरी और सिद्धेश्वरी देवी
समकालीन जीवन की समस्याएं, सामाजिक व्यवस्था को भी कभी ठुमरी की बंदिश के साहित्य से और कभी ठुमरी में उपयुक्त दोहों और शेरों-शायरी का प्रयोग करके उन्होंने अपनी जादुई आवाज़ और गायन कला की निपुणता से जस-का-तस श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया। ठुमरी के साहित्य को वे इतनी खूबसूरती से पेश करतीं और ऐसा माहौल सृजित करतीं थीं कि श्रोता स्वयं को उस परिवेश का हिस्सा बना लेता था।
इस सिलसिले में एक वाकया याद आ गया।
एक बार वो अपनी पसंदीदा वात्सल्य की ठुमरी 'सांझ भई घर आओ नंदलाला' की प्रस्तुति दे रही थीं। सभागार पूरी तरह से श्रोताओं से भरा हुआ था। उनके गायन का ऐसा प्रभाव हुआ कि सामने की श्रोता दीर्घा से एक महिला उठीं और उक्त ठुमरी के समाप्त होते ही मंच की ओर जाकर बोलीं- "सिद्धेश्वरी जी वैसे तो आपके गायन से कभी -भी जाने की इच्छा नहीं होती है पर आज मुझे अपने बेटे की चिंता हो रही है कि वह अभी तक घर वापस आया या नहीं तो मैं आपसे इजाजत चाहूंगी तो जवाब में सिद्धेश्वरी जी ने मुस्कुराकर कहा कि आपने मेरा गायन सफल बना दिया आप जरूर जाकर अपने बेटे से मिलें।
आपको बताना लाज़मी होगा कि सिद्धेश्वरी देवी अपने-आप में वात्सल्य रस की एक खूबसूरत मिसाल थीं। अपने बच्चों के अलावा उनके करीब आने वाला हर अनुज उन्हें 'मां' या 'अम्मा' से संबोधित करता था, जो भी उनके सम्पर्क में आया सबने उनका अपार प्रेम पाया। वे 'मांं सिद्धेश्वरी देवी' के नाम से मशहूर थीं।
सिद्धेश्वरी देवी और उनका जिंदगीनामा
8 अगस्त सन् 1908 ई. को बनारस के एक पुश्तैनी संगीत परिवार में सिद्धेश्वरी देवी का जन्म हुआ था। बचपन में ही उन्होंने अपने माता-पिता और एकलौती बहन को खो दिया था। अपनी सगी मौसी बनारस घराने की हस्ताक्षर गायिका विदुषी राजेश्वरी देवी के घर में उनका लालन-पालन हुआ।
कहते हैं ईश्वर हमेशा हमें वो नहीं देता जो हम चाहते हैं पर वो जरूर देता है जो हमारे लिए उचित है।
मौसी के घर जीवन थोड़ा कठिन जरूर था पर साथ-ही-साथ एक बड़े कलाकार के जीवन को करीब से देखने का सुअवसर भी था। राजेश्वरी जी के यहां बड़े कलाकारों का आना-जाना लगा रहता था। घर में बैठकी होती थी तो कलाकारों को सुनने का मौका, मौसी के रियाज का तरीका और सर्वोपरि उन्हीं की उम्र की उनकी मौसेरी बहन कमलेश्वरी जी का पंडित सियाजी महाराज से गायन की तालीम लेना। सियाजी जब उनकी बहन को सिखाते तो सिद्धेश्वरी जी बाहर से बड़े ध्यानपूर्वक उनकी बातों को सुनतीं और धीरे-धीरे वह सारी चीजें उनके अंदर रिसती हुई जा रही थी।
कहते हैं कि संगीत सुनने से कान तैयार हो जाता है-
एक बार मां राजेश्वरी जी ने सियाजी महाराज के सामने कमलेश्वरी जी को कुछ गा कर सुनाने को कहा पर वो नहीं गा पाईं तो उनकी पिटाई होने लगी। पिटाई से बचने के लिए उन्होंने अपनी बहन 'सिद्धी' को आवाज लगाई तो 'सिद्धी' दौड़कर उन्हें बचाने आई और बहन की जगह खुद पिटाई खाई और कमलेश्वरी जी से कहा-
मैं जैसे गा रही हूं तुम मेरे साथ-साथ गाओ। उनके सुर, लय व ताल की समझ पर सियाजी महाराज और राजेश्वरी जी अवाक हो गए।
सियाजी महाराज ने कहा-
अगर मैंने 'सिद्धी' को तालीम ना दी तो ये मांं सरस्वती के नजरों में अपराध होगा।
और इस तरह उसके बाद उनकी तालीम शुरू हुई और यही 'सिद्धी' बनारस घराने की हस्ताक्षर गायिका 'पद्मश्री सिद्धेश्वरी देवी' बनीं। अतीत की परिस्थितियों से ली गई प्रेरणा, वर्तमान का कर्मयोग (निरंतर रियाज़ और कड़ी मेहनत) और भविष्य के स्वस उनको सदा प्रगति के पथ पर ले जाते रहे जिसमें सच्चाई और सद्भाव की धारा बहती थी। काशी विश्वनाथ को जहां वो पिता के समान पूजती थीं, वहीं कृष्ण की वो परम भक्त थीं।
वे हमेशा कहतीं- संगीत के जरिए मैं अपने भगवान से बात करती हूं। वे कहती थीं-जब मैं गाती हूं तो कृष्ण मेरे समक्ष खड़े हो जाते हैं। जब वो ईश्वर का अपने सुरों के माध्यम से आह्वान करतीं तो वो 'पुकार' श्रोताओं को चकित कर देती थी।
बंदिश के एक ही 'टुकड़े' को वे कई तरह से प्रस्तुत करने में प्रवीण थीं। उनकी 'मींड' काफी विस्तृत होती थी, वहीं उनकी 'मुरकियां' मोहित करने वाली और गाने के बीच में 'ठहराव' बहुत ही सुखद अनुभव देती थीं।
सिद्धेश्वरी देवी और उनका गायन
वे अपनी गायन की साधना के माध्यम से अपनी आत्मा को प्रकाशित करने की कोशिश करती रहती थीं। उन्होंने ठुमरी शैली को भौतिकता के पाश से मुक्त किया और उसे आध्यात्म से जोड़ दिया। उनकी ठुमरी में बड़ी ही निश्छलता से मनुष्य बचपन युवावस्या, प्रौढ़ावस्या और वृद्धावस्या अर्थात् जीवन के सभी पड़ाव को जी लेता है उनका पारस्परिक संबंध लोगों से बहुत उम्दा था। उन्होंने अपने पास आने वाले हर व्यक्ति की मदद की। यहां तक की आज़ादी की लड़ाई में भी उन्होंने अपनी संगीत कला और धन के माध्यम से देश की खूब सेवा की।
सभी बड़े कलाकार उनके घर आते और उनका खूब सम्मान होता था। उन्होंने भी देश के लगभग सभी राज्यों में अपनी प्रस्तुति दी। अगर उनकी ठुमरी की प्रस्तुति होने वाली होती तो ज्यादातर कलाकार उस दिन ठुमरी गायन करना पसंद नहीं करते। एक तो उनका स्टार काफी ऊंचा था और दूसरा ना तो श्रोता और ना ही कोई कलाकार उस जादुई सम्मोहन से बाहर निकलना चाहता था।
ठुमरी की रवायत को कायम रखना कोई आसान काम नहीं था। ध्रुपद, ख्याल, ग़ज़ल, टप्पा, सबके लिए समाज में सम्मान का भाव था, पर ठुमरी गायिकाओं को हमेशा चरित्रहीनता से जोड़कर उपेक्षित भाव से देखा गया, पर हर उपेक्षा को झेलकर भी इन गायिकाओं ने इसे कायम रखा और सिद्धेश्वरी देवी जी ने इसमें आध्यात्म को जोड़कर ना सिर्फ इस विधा को अपितु स्वयं को भी इस देश की सर्व सम्मानित गायिका के रूप में स्थापित किया।
इधर, उनकी पुत्री विदुषी सविता देवी जी ने भी इस क्षेत्र में बहुत नाम कमाया। उनकी बड़ी बेटी शांता जी की तालीम और आवाज़ दोनों ही बहुत उम्दा थी पर डायबिटीज की बीमारी की वजह से उनकी अकाल मृत्यु हो गई और उनकी कला पूर्ण रूप से प्रदर्शित नहीं हो पायी।
सन् 1967 में सिद्धेश्वरी जी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया और इसी वर्ष उन्हें संगीत नाटक एकैडमी, भारत सरकार द्वारा भी सम्मानित किया गया। शांतिनिकेतन से उन्हें देशीकोट्टम अवॉर्ड मिला, 1977 में रविन्द्र भारती विश्वविद्यालय से उन्हें सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें अनेकों सम्मान से नवाज़ा गया।
अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर वे लकवे की बीमारी से ग्रस्त हो गई थीं और 18 मार्च 1977 को वे इस पार्थिव शरीर को त्याग कर बैकुंठ को प्रस्थान कर गई। वो गुरु- शिष्य परम्परा को बहुत महत्व देती थीं, इसलिए उनकी याद में उनकी पुत्री विदुषी सविताजी ने सन् 1977 में 'श्रीमती सिद्धेश्वरी देवी एकैडेमी ऑफ इंडियन म्यूजिक' के नाम से एक म्यूजिक एकैडेमी की स्थापना की, जो हर वर्ष बड़े और उदित हो रहे कलाकारों को सम्मानित करता है और बहुत ही सक्रियता के साथ संगीत के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए समर्पित है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।

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