सम्पादकीय

चंद्र अभियान की चुनौतियां

Subhi
16 Feb 2022 3:39 AM GMT
चंद्र अभियान की चुनौतियां
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चंद्रयान-1 ने ही दुनिया में पहली बार चंद्रमा पर पानी होने की खोज की थी। चंद्रयान-2 इसी अभियान का विस्तार था, जो पूरी तरह सफल नहीं रहा, इसीलिए चंद्रयान-3 उस कमी की पूर्ति के लिए उड़ान भरेगा।

प्रमोद भार्गव: चंद्रयान-1 ने ही दुनिया में पहली बार चंद्रमा पर पानी होने की खोज की थी। चंद्रयान-2 इसी अभियान का विस्तार था, जो पूरी तरह सफल नहीं रहा, इसीलिए चंद्रयान-3 उस कमी की पूर्ति के लिए उड़ान भरेगा। इस अभियान की लागत करीब दस हजार करोड़ रुपए आएगी। अभियान से जुड़े हार्डवेयर और तकनीक से संबंधित उपकरणों का परीक्षण कर लिया गया है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने इस साल अगस्त में चंद्रयान-3 को चंद्रमा के दक्षिणी धु्रव पर भेजने की तैयारी शुरू कर दी है। इस अभियान में अमेरिका और इजरायल भी भारत का साथ देंगे। अमेरिका पहले भी कई बार चंद्रमा पर यान उतार कर वहां की मिट्टी के नमूने लाने में कामयाब रहा है। इजरायल भी चंद्रमा पर यान उतारने की नाकाम कोशिश कर चुका है। अमेरिकी अंतरिक्ष संस्था नासा ने पहली बार दक्षिणी धु्रव पर स्वतंत्र रूप से यान भेजने की घोषणा की है। दक्षिण धु्रव पर चंद्रयान-3 भेजने का प्रमुख उद्देश्य वहां पानी की उपलब्धता का पता लगाना है, क्योंकि बिना पानी के चांद पर मानव बस्तियां बसाने की जो कल्पनाएं की जा रही हैं, वे बेबुनियाद हैं।

भारत ने तीन जनवरी 2019 को चंद्रयान-2 रवाना किया था। लेकिन यह अभियान पूर्ण रूप से सफल नहीं रहा। बावजूद इसके इस यान से स्थापित किया गया आर्बिटर लगातार चंद्रमा की परिक्रमा करते हुए तस्वीरें भेज रहा है। इसलिए चंद्रयान-3 की उड़ान भी हल्की श्रेणी की है। उड़ान सफल होने पर एक रोबर निकल कर चंद्रमा की सतह पर कुछ दूर चल कर आंकड़े जुटाएगा और पुराने आर्बिटर के माध्यम से इसरो को सतह की हलचलों की तस्वीरें भेजता रहेगा। यदि भारत इस लक्ष्य को भेद लेता है, तो ऐसी उपलब्धि हासिल करने वाला वह दुनिया का चौथा देश बन जाएगा। फिलहाल अमेरिका, रूस और चीन ही ऐसे कामयाब देशों में रहे हैं। भारत के अलावा, जापान और यूरोपियन अंतरिक्ष एजंसी भी चंद्रमा पर इसी किस्म की असफल कोशिशें कर चुके हैं।

याद रहे 2008 में भेजे गए चंद्रयान-1 ने ही दुनिया में पहली बार चंद्रमा पर पानी होने की खोज की थी। चंद्रयान-2 इसी अभियान का विस्तार था, जो पूरी तरह सफल नहीं रहा, इसीलिए चंद्रयान-3 उस कमी की पूर्ति के लिए उड़ान भरेगा। इस अभियान की लागत करीब दस हजार करोड़ रुपए आएगी। अभियान से जुड़े हार्डवेयर और तकनीक से संबंधित उपकरणों का परीक्षण कर लिया गया है। लैंडर और रोवर की जांच तमिलनाडु के सलेम जिले से 'एनाथोर्साइट' नामक विशेष मिट्टी के जरिए होगी।

इस मिट्टी को कर्नाटक के चित्रदुर्ग मे चिल्लाकेरे विज्ञान नगर में कृत्रिम चंद्रमा जैसी सतह और गड्ढे बनाए गए हैं। इसमें लगे सेंसर और आपदा उपकरण से यान प्रणाली की जांच की जा रही है। चंद्रयान-2 की असफलता से सबक लेते हुए लैंडर के थ्रस्टर और डिजाइन में भी मामूली परिवर्तन किए गए हैं। दक्षिणी धुव्र पर यान को भेजने का उदेश्य इसलिए अहम है, क्योंकि यह स्थल दुनिया के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के लिए अब तक रहस्यमयी बना हुआ है। यहां की चट्टानें दस लाख साल से भी ज्यादा पुरानी बताई गई हैं। इन चट्टानों के अध्ययनों से ब्रह्मांड की उत्पत्ति को समझने में मदद मिल सकती है।

दरअसल अंतरिक्ष में मौजूद ग्रहों पर यानों को भेजने की प्रक्रिया बेहद जटिल और शंकाओं से भरी होती है, जिसका परिणाम हम चंद्रयान-2 की असफलता में देख चुके हैं। यदि अवरोह का कोण जरा भी डिग जाए या फिर गति का संतुलन थोड़ा-सा ही लड़खड़ा जाए तो कोई भी चंद्र-अभियान या तो चंद्रमा पर जाकर ध्वस्त हो जाता है, या फिर अंतरिक्ष में कहीं भटक जाता है। इसे न तो खोजा जा सकता है, न ही नियंत्रित करके दोबारा लक्ष्य पर लाया जा सकता है। साठ के दशक में जब अमेरिका ने उपग्रह भेजे थे, तब शुरू के छह प्रक्षेपण असफल रहे थे।

अविभाजित सोवियत संघ ने 1959 से 1976 के बीच उनतीस अभियानों को अंजाम दिया था। इनमें से नौ असफल रहे थे। 1959 में रूस ने पहला उपग्रह भेज कर इस प्रतिस्पर्धा को गति दे दी थी। तब से लेकर अब तक सड़सठ चंद्र-अभियान हो चुके हैं, लेकिन चंद्रमा के बारे में कोई अहम जानकारी नहीं जुटाई जा सकी है। इस होड़ का ही नतीजा रहा कि अमेरिका के तत्कालीन राश्ट्रपति जान एफ कैनेडी ने चंद्रमा पर मानव भेजने का संकल्प ले लिया था और 20 जुलाई 1969 को अमेरिका ने यह ऐतिहासिक उपलब्धि वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन को चंद्रमा पर उतार कर हासिल भी कर ली थी।

भारत के चंद्रयान-1 और अमेरिकी नासा के लुनर रीकानाइसेंस आर्बिटर ने हाल में ऐसी जानकारियां भेजी हैं, जिससे चंद्रमा पर चैतरफा पानी उपलब्ध होने के संकेत मिलते हैं। चंद्रमा की सतह पर पानी किसी एक भू-भाग पर नहीं, बल्कि हर तरफ फैला हुआ है। इससे पहले की जानकारियों से सिर्फ यह ज्ञात हो रहा था कि चंद्रमा के धु्रवीय अक्षांश पर अधिक मात्रा में पानी है। इसके अलावा चंद्रमा पर दिनों के अनुसार भी पानी की मात्रा बढ़ती व घटती रहती है। पृथ्वी के साढ़े उनतीस दिन के बराबर चंद्रमा का एक दिन होता है।

'नेचर जिओ साइंस जर्नल' में छपे लेख के मुताबिक चंद्रमा पर पानी की उत्पत्ति का ज्ञान होने के साथ ही, इसके प्रयोग के नए तरीके ढूढ़े जाएंगे। इस पानी को पीने लायक बनाने के लिए नए शोध होंगे। इसे हाइड्रोजन और आक्सीजन में विघटित कर सांस लेने लायक वातावरण निर्मित करने की भी कोशिशें होंगी। इसी पानी को विघटित कर इसे राकेट के ईंधन के रूप में भी इस्तेमाल किया जाएगा।

दरअसल भारतीय चंद्रयान-1 में ऐसे विशिष्ट कैमरे और स्पेक्ट्रोमीटर लगे हैं, जो चंद्रमा के भू-भाग की भौगोलिक स्थिति खनिज संसाधनों और रासायनिक संघटकों के चित्र और डाटा भेज रहे हैं। यह चंद्रयान अपने साथ दूसरे देशों के भी छह उपकरण अपने साथ ले गया है। नासा ने दो प्रोब भेजे हैं, जिनमें से एक चंद्रमा के गहरे ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फीले पानी के अनुसंधान से जुड़े चित्र भेज रहा है। बुल्गारिया ने भारत का सहयोग करते हुए यान में रेडिएशन डोस मानिटर (रेडाम) भेजा है। यह यंत्र चंद्रमा की सतह पर विकिरण के स्तर की गणना से संबंधित आंकड़े निरंतर भेज रहा है।

स्वीडन और जापान ने साझेदारी करते हुए एक एनालाइजर भेजा है, जो चंद्रमा पर सौर वायु के प्रभाव का आकलन कर रहा है। ब्रिटेन ने एक एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर भेजा है जो चांद की धरती में खनिज संसाधनों की खोज में लगा है। इनके साथ जर्मनी ने भी भारत की सहभागिता करते हुए चंद्रमा पर मौजूद खनिजों के गुणों की पड़ताल के लिए एक पराबैंगनी स्पेक्ट्रोमीटर भेजा है। इस तरह से इस यान में कुल ग्यारह ऐसे विशिष्ट यंत्र संलग्न हैं, जो चंद्रमा की भूमि, जलवायु व उसके भू-गर्भ से मनुष्य के रहने लायक स्थितियों की तलाश में लगे हैं।

किसी भी ग्रह पर मनुष्य के रहने की दृष्टि से जरूरी है कि उस ग्रह से सूरज की दूरी इतनी हो कि वहां की सतह का तापमान पानी को तरल रूप में बनाए रखने के लायक हो। चंद्रयान-1 ने पानी के जो डाटा भेजे हैं, उनके विश्लेषण से पानी में हाइड्रोक्सिल पाए जाने की उम्मीद बढ़ी है। हाइड्रोक्सिल किसी अन्य यौगिक से तुरंत जुड़ जाता है। किसी भी ग्रह पर रहने के लिए यह भी जरूरी है कि वहां का तापमान न तो बेहद गर्म हो और न ही ठंडा। ऐसे ही ग्रह का आकार पृथ्वी के द्रव्यमान के अनुसार ही होना चाहिए, वरना गुरुत्वाकर्षण एक समस्या के रूप में आड़े आ सकता है।

बहरहाल फिलहाल केवल उम्मीदों पर काम हो रहा है। भविष्य की अंतरिक्ष यात्राओं का सफर बहुत लंबा होने के साथ संभावनाओं और आशंकाओं से भी जुड़ा है। जो अनंत ब्रह्मांड को खंगाल रहे हैं, वे ही ऐसे स्थलों पर पहुंच सकते हैं, जहां शंकालु और निराशावादी पहुंचने का विचार भी नहीं कर सकते। इस नाते चंद्रयान-3 और मानवयुक्त गगनयान अभियानों का स्वागत करने की जरूरत है।


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