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उन संकल्पों से प्रेरित करती हैं, जिनके लिए वे आजीवन प्रतिबद्ध रहीं।
लुधियाना में भगत सिंह के भांजे जगमोहन सिंह की रिहाइश हमारे लिए शहीद-ए-आजम और उनकी मां विद्यावती के साथ बीबी अमर कौर का याद-घर है। देशभगत यादगार हॉल, जालंधर होते हुए इस शहर तक का सफरनामा मेरे तईं उन स्मृतियों का पुनरावलोकन है, जहां क्रांतिकारी विरासत को गहरी आत्मीयता से संजोया गया है। भगत सिंह का संदूक, उनका एक तिरंगा और ईसा को फांसी देने वाला कैलेंडर तथा बीबी जी का फुलकारी वाला रूमाल, जिसे देखना और स्पर्श करना किसी को भी भावुक कर सकता है।
वर्ष 1930 में अपने हाथों से कशीदा करते हुए बीबी जी ने इस पर लिखा था 'वीरां दी जान प्रान से वारी जाए।' इसके अलावा एक सूट भी है, जो भगत सिंह अपनी इस चहेती बहन को देने उसकी ससुराल गए थे। अपने भाई से तीन वर्ष छोटी अमर कौर भगत सिंह की फांसी के बाद 'झल्लों' की तरह हुसैनीवाला में उस ओर दौड़ पड़ीं, जहां ब्रिटिश सरकार ने उनके 'वीर जी' (भाई) का अंतिम संस्कार किया था। अपने शहीद भाई के शरीर की हर छोटी चीज को वह स्मृति के तौर पर उस स्थान से संजो लाईं।
मैं जगमोहन जी के पास बैठा उस पर्चे का जिक्र कर रहा हूं, जिसे अमर कौर आठ अप्रैल, 1983 को संसद में फेंकने गई थीं। वर्ष 1929 में इसी दिन भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेंबली में अपने दल का घोषणापत्र बिखेरते हुए बम विस्फोट किया था। स्वतंत्र भारत में अमर कौर ने अपने इस साहसिक कृत्य से उस इतिहास को पुनर्जीवित करने के साथ ही नौजवानों से भगत सिंह के रास्ते का अनुसरण करने का आह्वान भी किया था। उस दिन संसद के भीतर एक महिला का जीवंत हस्तक्षेप वहां बैठे जनप्रतिनिधियों ने खुली आंखों से देखा।
इस घर में अमर कौर की वह वसीयत भी सुरक्षित है, जिसमें उन्होंने कहा था, 'सुनूं अमर मैं इंकलाब की आहट, तो मरते-मरते फिर जी जाऊं।' 1984 की 12 मई को अपनी मृत्यु से पहले अमर कौर की वसीयत किसी मिल्कियत की घोषणा नहीं है, बल्कि वहां देश और समाज की चिंताओं के साथ शहीदों के आदर्शों तथा भविष्य के क्रांतिकारी संघर्ष की एक संक्षिप्त, लेकिन विचारोत्तेजक अनुगूंज है, 'एक औरत के नाते मैं जायदाद के बंधनों से मुक्त हूं और बांटने वाली ऐसी कोई चीज मेरे पास नहीं है।
एक साझी बहन और मां के नाते मेरे पास देने के लिए सिर्फ प्यार ही है और कुछ मेरे विचार, जो वीर जी भगत सिंह और उनके कुछ साथियों से सीख सकी हूं। सामाजिक स्थिति देखकर मेरा मन अत्यंत खिन्न है। बड़ी कुर्बानियों के बाद अंग्रेजों को भगाया। उम्मीद यह थी कि लोगों को परिश्रम के फल चखने का अवसर मिलेगा और कुरीति-रहित समाज बनेगा। इसीलिए हम सबने 1947 के बाद कुछ साल तक लोगों के व्यक्तिगत दुखों को दूर करने की कोशिशें कीं। लेकिन आज जो भेदभाव और नफरत का वातावरण पैदा कर दिया गया है, उसने मुझे हिला दिया है।
वीर भगत सिंह ने आखिरी मुलाकात के समय कहा था कि हमारी फांसी लगने से 15 साल बाद अंग्रेज यहां से चला जाएगा, क्योंकि उसकी जड़ें खोखली हो चुकी हैं। इसके बाद लोगों को हमारी याद ताजा होना शुरू होगी। मैं शहीद वीरों के संदेशों और विचारों को सोचने-समझने से इस परिणाम पर पहुंची हूं कि समाज की आज की समस्याओं को हल करने के लिए हमारा प्रेरणा-स्रोत स्वयं मनुष्य ही होना चाहिए और हर काम का उद्देश्य मानवतावाद और इंसानियत को आगे बढ़ाना होना चाहिए।
मैं चाहती हूं कि मेरे मरने के बाद कोई धार्मिक रस्म न की जाए, क्योंकि एक तो मैं सबकी साझी बहन हूं और दूसरे मेरे विचार में मेरे मरने पर ये रस्में नहीं होनी चाहिए। यह एक प्रचलित धारणा है कि गांवों के मेहनतकश दलित लोगों को मुर्दा शरीर को छूने नहीं दिया जाता, क्योंकि इससे स्वर्ग में जगह नहीं मिलती। समाज की यह सबसे बड़ी नाइंसाफी है कि श्रमिक को आर्थिक रूप से शोषित ही किया जाता है, सामाजिक तौर पर भी उसके खिलाफ नफरत का माहौल, नीचा दिखाने का माहौल बनाकर रखा जाता है। इससे मुझे सबसे ज्यादा दुख होता है।
इसलिए मेरी इच्छा है कि मेरी अर्थी उठाने वाले चार आदमियों में से दो मेरे इन भाइयों में से हों, जिनके साथ अब भी सामाजिक अत्याचार हो रहा है। मेरी आत्मा की शांति के लिए अपील न की जाए, क्योंकि जब तक लोग दुखी हैं, और उन्हें शांति नहीं मिलती, मुझे शांति कैसे मिलेगी। मेरी राख भारत की ही नहीं, इस द्वीप की साझी जगह हुसैनीवाला, सतलज नदी में डाली जाए। 1947 में अंग्रेज जाते समय हमें दो फाड़ कर खूनोखून कर गया था। पिछले समय में मैं सीमा पार कर भाइयों से मिलने को तड़पती रही हूं, लेकिन कोई जरिया नहीं बन पाया।
पार जा रहे नदी के पानी के साथ मेरी याद उस ओर से भाई-बहनों तक भी पहुंचे। हुसैनीवाला से वीर भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और बी.के.दत्त की यादगार साफ तौर पर 'इंकलाब जिंदाबाद' का संदेश सब तक पहुंचाएगी। मैं भाइयों के साथ बहन के प्यार की निशानी भेजती रहूंगी।' लुधियाना के इस घर से मां विद्यावती और बीबी अमर कौर की अंतिम यात्राओं की यादें हमें उन संकल्पों से प्रेरित करती हैं, जिनके लिए वे आजीवन प्रतिबद्ध रहीं।
सोर्स: अमर उजाला
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