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वैलेंटाइन डे को प्रेम दिवस भी कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी
By ज्ञानेंद्र रावत।
वैलेंटाइन डे को प्रेम दिवस भी कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. वैसे प्रेम को एक दिवस विशेष में कैद कर देना उचित नहीं होगा. संत वैलेंटाइन ने भी नहीं सोचा होगा कि प्रेम के लिए भी मौत की तरह कोई एक दिन मुकर्रर कर दिया जायेगा. हकीकत यह है कि ग्रीटिंग कार्डों, फूलों, तोहफों आदि से दो आत्मीय जनों के बीच वास्तविक भावनाओं का इजहार हो पाना असंभव है.
इससे कौतूहल तो पैदा हो सकता है, लेकिन प्रेम कदापि नहीं. प्रेम कोई खेल नहीं है. स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि प्रेम समय, स्थान, आयु और सीमा से परे है. आज बाजारीकरण के दौर में प्रेम को प्रदर्शनी बनाकर रख दिया गया है, जबकि वह बाजार की वस्तु नहीं है. तमाम इच्छाओं और जीवन की मशीनी व्यस्तताओं के बीच प्रेम को जीवन का छोटा अंश बना दिया गया है.
प्रेम तो स्नेह, श्रद्धा, त्याग, समर्पण का नाम है, जो जीवन का प्राण और उसकी आत्मा है. प्रेम के बिना वस्तुत: जीवन ही नहीं होता. प्राणीमात्र में निरंतर प्रेम की प्यास बनी रहे, इसीलिए प्रेम को जीवित रखना जरूरी है. पूरी तरह प्रेम बांटने के बाद ही व्यक्ति यथार्थ में मुक्त हो पाता है.
आज प्रेम के भावार्थ को संकुचित कर दिया गया है, जबकि इसकी व्यापकता अनंत है. कबीर ने सही कहा है कि 'ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय.' उनके अनुसार, जब कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में पड़ता है, तो प्रेम के ढाई अक्षर पूरे होते हैं.' एक प्रेम करने वाला और दूसरा जिसको वह प्रेम करता है, इन दोनों के बीच कुछ अज्ञात है, वह है ढाई अक्षर यानी प्रेम अपूर्ण ही बना रहता है.
यह अधूरापन ही उसकी शाश्वतता है. उसे तुम चाहे कितना भी भरने का प्रयास करो, लेकिन वह अधूरा ही रहेगा. स्वर्गीय सुषमा स्वराज का मानना था कि 'लोग बुद्धि और शक्ति की बात करते हैं, लेकिन इन दोनों से भी बढ़कर प्रेम की ताकत है. सच तो यह है कि जिसने भी इसे पहचान लिया या जिसको इसे करना आ गया और जिसके अंतस में प्रेम का भाव है, वह सभी दुर्गुणों से विरत हो जाता है. यही प्रेम की केमिस्ट्री है.'
दार्शनिक रजनीश का कहना है कि आनंद जन्म में नहीं, जीवन में है और जीवन प्रेम में है. वह प्रेम ही है, जिसके साथ तुम भीतर उतरते हो. स्वयं के पास पहुंचने का जो आधार बनता है, वह है ध्यान. प्रेम वर्तुल का निर्माण करता है और प्रेमी एक-दूसरे की मदद करते हैं. जितना गहरा प्रेम हो जाता है, उतनी ही गहराई प्रेम करनेवाले अनुभव करते हैं, उनका अंतस प्रकट होता है.
तब वहां ईर्ष्या नहीं होती, क्योंकि प्रेम ईर्ष्या हो ही नहीं सकता. उसमें अविश्वास की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती. एक पुरानी अंग्रेजी कहावत है, जिसमें प्रेमी प्रेमिका से कहता था- 'मैं तुममें मर जाना चाहता हूं.' असलियत में प्रेम मृत्यु है. अहंकार की मृत्यु जिस पर तुम्हारी आत्मा का जन्म होता है.
अक्सर प्रेम को स्त्री-पुरुष के रागात्मक संबंध के रूप में ही परिभाषित किया जाता रहा है. त्याग का दूसरा नाम प्रेम है. सच्चा प्रेम वही होता है, जहां त्याग होता है. युगों-युगों से संत-महात्मा मानव को मानव मात्र से प्रेम करने की शिक्षा दे रहे हैं. प्रेम चाहे जैसा भी हो, वह शांति ही प्रदान करेगा.
जीवन में प्रेम के कई रूप सामने आते हैं, वह चाहे स्त्री-पुरुष का हो, पति-पत्नी का हो या मां-बाप का हो, या वह रिश्तेदारों या अन्य किसी का हो, वह जीवन को आसान बनाता है, जीने योग्य बनाता है और उसमें हंसी-खुशी के रंग भरता है. प्रेम रस की महत्ता और सार्वभौमिकता सर्वोपरि है. निश्छल प्रेम सर्वश्रेष्ठ होता है, जिसकी पहचान स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है.
लेकिन वर्तमान में प्रेम का तरीका ही बदल गया है. इसमें न तो शीरीं-फरहाद और लैला-मजनूं के दौर की तड़प है और न ही वह शिद्दत ही दिखाई देती है. सामाजिक बदलावों और मानवीय मूल्यों में आयी गिरावट के कारण आज प्रेम में ठहराव कहीं दिखाई ही नहीं देता. त्याग तो बहुत दूर की बात है.
मनोवैज्ञानिक रावर्ट स्टीनबर्ग ने प्रेम को घनिष्टता, आवेग और प्रतिबद्धता के रूप में तीन घटकों में बांटा है. उन्होंने कहा है कि घनिष्ठता, आत्मीयता, अंतरंगता और प्रगाढ़ प्रेम का आधार, आवेग में यौनाकर्षण की प्रमुखता और प्रतिबद्धता संबंधों को स्थायी बनाने में अहम भूमिका निभाती है. उनके अनुसार प्रेम की सबसे महत्वपूर्ण, अनुकूल और सबसे अधिक पसंद की जानेवाली स्थिति वह है, जिसमें प्रेम करनेवाले इन तीनों अंगों की समान मात्र के इच्छुक हों अर्थात दोनों समान मात्रा में और समान तीव्रता से प्रेम करने वाले हों.
उनमें प्रेम का अहसास संपूर्ण होता है. वह सर्वत्र है, लेकिन उसे हम एक दिन विशेष, जिसे हम 'वैलेंटाइन डे' के रूप में जानते हैं, के लिए सीमित कर दिया गया है. इसकी आज युवा पीढ़ी बड़ी बेताबी से प्रतीक्षा करती है. आज जरूरत है अपने अंदर की भावनाओं को बिना डर के बांटने की, क्योंकि तभी हृदय संपूर्णता में खुलेगा. कबीर ने कहा है कि 'दोनों हाथ उलीचिए, यह संतन को काम' अर्थात प्रेम को बांटो, केवल इसी दिन नहीं, बल्कि सदैव क्योंकि यह एक वस्तु नहीं, संपूर्ण जीवन है.
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