सम्पादकीय

प्रेम एक छलावा है

Subhi
24 April 2022 3:33 AM GMT
प्रेम एक छलावा है
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सबसे क्षणभंगुर भाव कौन-सा है, मैंने उससे पूछा। प्रेम भाव, उसने फौरन जवाब दिया। कैसे? मैंने आश्चर्य से कहा, प्रेम तो स्थायी भाव है। प्रेम से दुनिया चलती है। फिर सोचो।वह हंसने लगी।

अश्विनी भटनागर: सबसे क्षणभंगुर भाव कौन-सा है, मैंने उससे पूछा। प्रेम भाव, उसने फौरन जवाब दिया। कैसे? मैंने आश्चर्य से कहा, प्रेम तो स्थायी भाव है। प्रेम से दुनिया चलती है। फिर सोचो।वह हंसने लगी। अरे, प्रेम कभी स्थायी नहीं हो सकता है। प्रेम चंचल है… अल्हड़ है… शरारती है… कभी इससे शरारत कर जाता है, तो कभी उससे… क्षण भर से ज्यादा कहीं टिक नहीं पाता है… अपनी उछल-कूद में मस्त रहता है… उसका स्वभाव है।

तुम तो हर चीज को बड़े हल्के में लेती हो, मैंने कुछ नाराज लहजे में कहा।

हल्की चीज को हल्के में ही लिया जाएगा न? वह खिलखिलाई और चिढ़ाते हुए बोली, अब आप अपने को देख लीजिए… मैंने जैसे ही आपकी राय के विपरीत कुछ कहा, आपका प्रेम भाव गुस्से में बदल गया…

नहीं भई, मैंने उसकी बात काटी, मैं गुस्सा नहीं हूं।

तो फिर आप मेरी बात सुन कर चिड़चिड़ा गए थे, क्या?

मैं मुस्कराने लगा। उसको आश्वस्त करने का मेरे पास एक यही तरीका था।

झूठी मुस्कान है, मेरे फैले हुए होठों पर उसने अपना विनोदपूर्ण टीका फौरन जड़ दिया।

नहीं, नहीं। एकदम सच्ची है, मैंने अपनी झेंप छिपाते हुए प्रतिवाद किया।

चलिए मान लेते हैं कि आप वास्तव में गुस्सा नहीं हैं। वैसे, एक मुस्कराहट अक्सर कई भेदों पर पर्दा डाल देती है… अमूमन मुस्कुराहट बेबाक नहीं होती, बल्कि रहस्यमई होती है। जब हम अपने को किसी पक्की हां या ना में नहीं बांधना चाहते हैं, तो मुस्करा कर काम चला लेते हैं… जब कोई मुस्कराता है, तो वह अपनी अनिश्चितता को मखमली जामा पहना कर जाहिर कर देता है। मुस्कराहट अनिश्चितता का द्योतक है, जबकि हंसना निश्चित मन का मुक्त संवाद है।

तुम ठीक कह रही हो। लोग ज्यादातर मुस्कराते हैं, ठहाका कम लगाते हैं, मैंने सहमति जताई।

गंभीरता वास्तव में वाणी का सोलह शृंगार है। हम उससे अपने को ढंक कर ज्यादा आकर्षक बनाने की कोशिश करते हैं। ठहाका निर्वस्त्रता की स्थिति है- पूर्ण उन्मुक्तता की स्थिति। इसलिए इस सुसंस्कृत समाज में गंभीर वाणी को सभ्य और अट्टहास को अभद्र, असभ्य माना जाता है। कितने दुख की बात है, है न? उसने भारी मन से कहा।

हां, मैंने स्वीकार किया, हमारे समाज में हंसना मना है।

पर, उसने अचानक जोश में आते हुए कहा, प्रेम एकदम निराला है। मेरे अनुसार प्रेम की कल्पना करके मनुष्य ने अपने पर अत्याचार किया है।

प्रेम कल्पना है? मैंने हैरानी से पूछा।

कल्पना नहीं, तो और क्या है? उसने सवाल का जवाब दोटूक सवाल से दिया।

प्रेम हमारे जीवन का आधार है, मैंने जोर देते हुए आग्रहपूर्वक कहा, हम एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, जिससे संबध बनते हैं। प्रेम लौकिक नहीं, अलौकिक भी है… सारे धार्मिक ग्रंथ प्रेम की महत्ता बताते हैं…

धर्म! वह खिलखिला कर कर हंस पड़ी, अरे, धर्म भी तो कल्पना है- हमारे हाथ, पैर, जुबान, दिमाग, जज्बात को बांधने की, उन्हें जड़ करने की कल्पना!

तुम धर्म को कल्पना कह रही हो? मैंने वाद किया।

हां, खंडित कल्पना। अब देखो, प्रेम की बात धर्म करता है, हजारों साल से करता आया है, पर उसका परिणाम सिर्फ आपसी रंजिश है। और होगा क्यों नहीं, कोई भी धर्म प्रेम को परिभाषित नहीं कर पाया है, क्योंकि प्रेम प्रकृति का हिस्सा नहीं है। इस वजह से प्रेम की कल्पना हास्यास्पद है।

तुम क्या बात करती हो? मैंने चौंक कर कहा, क्या स्त्री-पुरुष आपस में प्रेम नहीं करते हैं? मां-बाप अपने बच्चों से प्रेम नहीं करते हैं?

नहीं, उसने दृढ़ता से उत्तर दिया, व्यवहार करते हैं। आप जिसको प्रेम समझ रहे हैं, वह वास्तव में व्यवहार है। स्त्री-पुरुष के बीच में काम वासना का व्यवहार होता है, बच्चों से प्रेम वात्सल्य का व्यवहार है।

पर इस व्यवहार का कर्ता तो प्रेम है, मैंने प्रतिवाद किया।

नहीं, वासना स्थायी है। हमेशा बनी रहती है। प्रेम वास्तव में आकर्षण का पर्यावाची है, जिसका भाव वासना है। बच्चों या अपने परिजनों से जब भावनाओं का व्यवहार होता है तो उसे प्रेम कह दिया जाता है। व्यवहार कहना भोंडा लगता है, इसीलिए एक अच्छा-सा शब्द- प्रेम- उसकी जगह प्रयोग किया जाता है।

उसके तर्कों से मैं हतप्रभ था। मेरी परेशानी देख कर उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया, जैसे मुझे संभालने की कोशिश कर रही हो।

अच्छा, एक क्षण के लिए मान लेते हैं कि प्रेम नाम का कोई विशिष्ट भाव है। ऐसी स्थिति में प्रेम का सर्वोत्तम प्रकार क्या है?

ईश्वर प्रेम, मैंने तुरंत उतर दिया।

और उसे करते कैसे हैं?

भक्ति और श्रद्धा से, मैंने कहा।

ठीक, उसने हामी भरी, भक्ति ईश्वर तक पहुंचने का व्यवहार है कि नहीं? और ईश्वर प्राप्ति किस लिए? मोक्ष के लिए न? दूसरे शब्दों में, भक्ति का पारितोषिक मोक्ष है- आप अपनी भक्ति कुछ पाने के लिए दे रहे हैं। इसमें स्वार्थ निहित है, प्रेम कहां है? मेरे हिसाब से काल्पनिक स्वार्थ में अंधे व्यक्ति को भक्त कहते हैं। वह प्रेम की कल्पना अपना स्वार्थ छिपाने के लिए करता है।

नहीं, ऐसा नहीं है, मैंने विरोध किया, भक्ति में आत्मबल होता है, त्याग और तपस्या होती है।

उसने मुस्करा कर मेरे विरोध को टाल दिया।

काम, क्रोध, लोभ, मोह स्थायी वासनाएं हैं, उसने धीरे से अपनी बात जारी रखी, प्रेम काम वासना में उत्पन्न होता है और मोह में भी। पर इन स्थायी भावों में वह मात्र तरंग की तरह है। क्षण भर के लिए भाटे की तरह उठता है और फिर व्यवहार में समा जाता है। जैसा मैंने कहा था प्रेम भ्रम उत्पन्न करने वाला आकर्षण का दूसरा नाम है।

अगर प्रेम नहीं है, तो आपसी भाईचारा और सौहार्द कैसे होगा?

शांत भाव से, उसने आखें बंद करते हुए कहा।

मैं समझा नहीं?

जब व्याप्त वातावरण को हम अपने में सम्मिलित कर लेते हैं, तो शांत भाव में आ जाते हैं। हम समद्रष्टा, समकर्ता हो जाते हैं। कोई अपना-पराया, छोटा-बड़ा आदि नहीं रहता है। हम शांत भाव के अनुसार व्यवहार करने लगते हैं। सौहार्दपूर्ण हो जाते हैं।

धर्म सौहार्द नहीं उत्पन्न करता? मैंने आश्चर्य से पूछा।

नहीं, क्योंकि धर्म प्रेम की सीख देता है। अपने अनुयायियों में स्वधर्म के प्रति और अधिक आकर्षण पैदा करने में जुटा रहता है। सौहार्द में उसकी रुचि नहीं है। शांत भाव से धर्म कतराता है। वह अशांत भाव की ओर उद्वेलित करता है। एक-दूसरे से बैर उत्पन्न करवाता है।

तो फिर हम क्या करें?

प्रेम मत करो। भटकाने वाली कल्पना के जाल से बाहर आओ। शांत हो जाओ। वास्तविक हो जाओ, व्यवहार करो। तुम्हारा धर्म से संकट मिट जाएगा।

हूं, मैं बुदबुदाया, वैसे तुम्हारा नाम क्या है?

शांता, उसने हंस कर कहा और अदृश्य हो गई।


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