सम्पादकीय

लाउडस्पीकर विवाद : आवाजों पर सियासत में खोई आध्यात्मिकता, अजान और भक्ति गीतों पर बवाल कोई नया नहीं

Neha Dani
8 May 2022 2:29 AM GMT
लाउडस्पीकर विवाद : आवाजों पर सियासत में खोई आध्यात्मिकता, अजान और भक्ति गीतों पर बवाल कोई नया नहीं
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कोई नहीं जानता कि इसे वापस बोतल में कैसे बंद किया जाएगा। मगर किसी भी कीमत पर इसे नियंत्रण में करना जरूरी है।

इन दिनों ध्वनि विस्तारक यंत्रों की आवाजों पर सियासत हो रही है। मस्जिदों की अजान और मंदिरों के भक्ति गीत इसका निशाना बन रहे हैं। क्या किसी ने कभी सोचा था कि इस लोकतांत्रिक देश में भी कभी इन मसलों पर बहस छिड़ेगी और आम आदमी की पढ़ाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और नागरिक अधिकार कहीं हाशिये पर चले जाएंगे? स्वतंत्रता के समय केवल सत्रह-अट्ठारह फीसदी आबादी साक्षर थी। महिलाओं में यह प्रतिशत तो और भी कम था। तब हिंदुस्तान का समाज इतना असहिष्णु नहीं था।

आज सत्तर-अस्सी फीसदी जनसंख्या पढ़ी-लिखी बताई जाती है और संसार में भारत के पेशेवर अपने ज्ञान का डंका बजा रहे हैं, लेकिन हम एक दूसरे के आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति के प्रति सहिष्णुता नहीं दिखा रहे। यह कैसा आधुनिक भारत है और हम कैसे जागरूक समाज की रचना करते जा रहे हैं? तर्क की कसौटी पर रखना हो, तो कहा जा सकता है कि विश्व के अनेक देश इन दिनों अनुदारवादी रास्ते पर चल पड़े हैं। एक समुदाय दूसरे के अस्तित्व को नकारने पर आमादा है।
राष्ट्रवाद के नाम पर विभिन्न देशों में अपनी-अपनी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। लेकिन यह तस्वीर एक दूसरा पहलू भी पेश करती है। नई पीढ़ी की नींव अगर इस बुनियाद पर रखी जा रही है, तो क्या वह संसार को एक भयावह खतरे का संदेश नहीं दे रही है? क्या किसी बौद्धिक विमर्श में इन बिंदुओं पर कोई मंथन हो रहा है? फिलहाल तो भारतीय समाज में ऐसी कोई गंभीर पहल नहीं दिखाई दे रही है। अपने आध्यात्मिक दर्शन के लिए विख्यात भारत में अब संप्रदायों के आधार पर नफरत, उन्माद और हिंसा का प्रसार हो रहा हो, तो यकीनन उससे हिंदुस्तान की छवि कोई बहुत उज्ज्वल नहीं होती।
मस्जिदों की अजान और उनके सामने हिंदुओं के भक्ति गीत पर बवाल कोई नया नहीं है। सौ साल पहले के भारत में भी यह होता था और उससे पहले भी। लेकिन तब उसे सियासत से जोड़कर नहीं देखा जाता था और न ही उसे राजनीतिक संरक्षण मिलता था। उन दिनों यह विशुद्ध सामाजिक मुद्दा था। महात्मा गांधी ने अपनी एक प्रार्थना सभा में दोनों संप्रदायों से कहा था, 'मुसलमानों को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे हिंदुओं को मस्जिदों के सामने बाजा बजाने या आरती करने से जबर्दस्ती रोक सकते हैं। उन्हें हिंदुओं को अपना दोस्त बनाना चाहिए और विश्वास रखना चाहिए कि वे मुसलमान भाइयों की भावनाओं का ख्याल जरूर रखेंगे। दूसरी तरफ हिंदुओं को भी समझना चाहिए कि मुसलमान भाइयों के पीछे पड़े रहने से कुछ भी नहीं बनेगा।'
गांधी वांग्मय के भाग 24 में पृष्ठ 156 पर गांधी जी कहते हैं, 'मस्जिदों के सामने बाजे बजाने और मंदिरों में आरती के मुद्दे पर मैंने काफी सोच-विचार किया है। जिस तरह गौ हत्या हिंदुओं के लिए क्षोभ का विषय है, उसी तरह आरती और बाजे मुसलमानों के लिए। जिस तरह हिंदू जबर्दस्ती मुसलमानों से गौ हत्या बंद नहीं करा सकते, उसी तरह मुसलमान भी तलवार के दम पर बाजे और आरती बंद नहीं करा सकते। उन्हें भी हिंदुओं की भलमनसाहत का भरोसा करना चाहिए । एक हिंदू होने के नाते मैं हिंदू भाइयों को सलाह देना चाहूंगा कि सौदा करने की भावना न रखकर उन्हें मुसलमान भाइयों की भावना का ध्यान रखना चाहिए।
मैंने सुना है कि कई जगह हिंदू भाई जान-बूझकर चिढ़ाने के लिए ठीक नमाज के वक्त आरती शुरू कर देते हैं। यह विवेकहीन और अमैत्रीपूर्ण कृत्य है। मित्रता तो यह मानकर ही चलती है कि मित्र की भावनाओं का ध्यान रखा जाएगा। फिर भी मुसलमानों को हिंदुओं के बाजे को जोर-जबर्दस्ती से रोकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। मारपीट की धमकी या मारपीट के डर से किसी काम को न करना अपने आत्मसम्मान और धार्मिक विश्वास को तिलांजलि देने जैसा है। पर, जो आदमी स्वयं किसी धमकी से नहीं डरता, वह अपना व्यवहार भी ऐसा रखेगा, जिससे किसी को चिढ़ने का मौका न आए और संभव हुआ, तो वह ऐसा मौका आने ही नहीं देगा।'
आजादी के करीब दो महीने बाद अपनी एक प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा था, 'सारे धर्मों की मंजिल एक ही है। उस मंजिल तक पहुंचने के लिए हम बेशक अलग-अलग रास्ते ले सकते हैं। उसमें लड़ना किस बात का? वह लड़ाई ईश्वर के खिलाफ है, जिसमें भाई भाई को मारता है। जिस अंधेरे में भाई भाई को नहीं देख सकता, उस अंधेरे का अंधा तो खुद अपने को ही नहीं देखता। जिस उजाले में भाई भाई को देख सकता है, उसमें ही ईश्वर का चेहरा दिखाई देता है। जब भाई के प्रेम में दिल भीग जाता है, तब अपने आप ईश्वर को प्रणाम करने के लिए हाथ जुड़ जाते हैं।'
आज के भारत में सांप्रदायिक उन्माद और नफरत का ज्वार चिंता में डालता है। यह उस जिन्न की तरह है, जो बोतल में बंद था और बाहर आ चुका है। यह गुस्सैल जिन्न अब विध्वंस पर उतारू है। कोई नहीं जानता कि इसे वापस बोतल में कैसे बंद किया जाएगा। मगर किसी भी कीमत पर इसे नियंत्रण में करना जरूरी है।

सोर्स: अमर उजाला


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