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- समूचे परिवहन का घाटा
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By: divyahimachal
परिवहन की पताका ओढ़े हिमाचल की सरकारी बसों को फिर से बचाने और आजमाने की कोशिश में प्रदेश सरकार की चिंताएं सामने आ रही हैं। कुछ रास्ते निकाले जा रहे हैं और एचआरटीसी के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाते हुए नई बसों के बेड़े और ई-बसों की ओर बढऩे का प्रयास भी हो रहा है। इसमें दो राय नहीं कि सार्वजनिक परिवहन पिछली भाजपा सरकार में कुछ हद तक उपेक्षित रहा और एचआरटीसी अपनी क्षमता व काबिलीयत हारती हुई दिखाई दी, लेकिन इसके बरअक्स निजी बसों ने जनता को परिवहन सहूलियतों की भरपाई की। अब वर्तमान सरकार अपनी ई-वाहन पॉलिसी के तहत इलेक्ट्रिक बसों के मॉडल पर एचआरटीसी की नाक बचाना चाहती है। परिवहन निगम को आत्मनिर्भर बनाने की कसौटियां अपनी जगह सही हैं, लेकिन समूचे परिवहन को घाटे से उबारने के लिए एक सशक्त व स्थायी ट्रांसपोर्ट पॉलिसी की जरूरत है। इसी परिप्रेक्ष्य में साठ हजार के लगभग ट्रकों पर लगी पैनल्टी को माफ किया जा रहा है। कम से कम सरकार के आगामी कदमों में निजी क्षेत्र की वोल्वो बसें अपराधी घोषित हो चुकी हैं। इन्हें वोल्वो माफिया भी कहा जा रहा है, जबकि पिछले दो दशकों में यह साबित हो चुका है कि प्रदेश पर्यटन के फलक पर इन्हीं बसों ने एक शृंखला खड़ी की है। परिवहन और पर्यटन की तासीर में निजी क्षेत्र की सहभागिता का ही कमाल है कि हिमाचल में सैलानी आगमन निरंतर बढ़ रहा है।
हालांकि यह मुसाफिर बसें नहीं हैं, फिर भी खास तौर पर दिल्ली का आना-जाना प्राइवेट वोल्वो ने सुगम, आरामदायक व अंतरराष्ट्रीय मानकों तक पहुंचा दिया है। शिकायत यह है कि एचआरटीसी बनाम निजी वोल्वो की प्रतिस्पर्धा ने सरकारी बसों पर प्रश्न चस्पां किए हैं, तो अब कर प्रणाली को सख्त किया जा रहा है। प्रश्न यह है कि क्या एचआरटीसी को बचाने के लिए निजी बसों, खास तौर पर वोल्वो या पर्यटन बसों को इसके लिए आर्थिक अपराधी मान लिया जाए। सवाल यह भी है कि पर्यटन बसों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समझने के बजाय इन्हें प्रादेशिक जज्बात से क्यों तोला जाए। निजी बनाम सरकारी बसों से किसी का घाटा पूरा नहीं होगा, बल्कि समूचे परिवहन का घाटा ही बढ़ेगा। हम यह नहीं कहते कि निजी वोल्वो को मनमानी करनी दी जाए, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि ये बसें वर्तमान में हिमाचल पर्यटन की वास्तविक ब्रांड हैं, जो हर दिन हजारों सैलानियों को विभिन्न डेस्टिनेशन स्थलों तक पहुंचाती हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि पर्यटन पार्टनर के रूप में निजी वोल्वो बसों के परिचालन की नीति कुछ इस तरह बनाई जाए कि इनके जरिए पड़ोसी राज्यों के अधिकतम सैलानी यहां आएं। ये बसें फिलहाल आल इंडिया परमिट के तहत उसी तरह पंजीकृत हैं, जिस तरह प्रदेश पर्यटन की बसें चल रही हैं। यह भी एक हकीकत है कि कई हिमाचली युवा अब वोल्वो बसों का संचालन कर रहे हैं, लेकिन इनकी बसें हरियाणा या चंडीगढ़ में पंजीकृत हो रही हैं। इस तरह एक वोल्वो बस की खरीद पर कुल जीएसटी का नुकसान हिमाचल उठा रहा है जो कि करीब तीस से पैंतीस लाख तक हो जाता है।
हिमाचल भले ही प्रत्येक वोल्वो पर सालाना नौ लाख का शुल्क लगा दे, लेकिन इसके मुकाबले चंडीगढ़ हर साल 11 हजार, हरियाणा डेढ़ लाख, उत्तराखंड 72 हजार तथा अरुणाचल प्रदेश 42 हजार राज्य पथ कर वसूल रहे हैं। आज भले ही निजी वोल्वो बसों को हिकारत की दृष्टि से देखते हुए हम भारी प्रवेश शुल्क लगा दें, लेकिन कल जब यही बसें अपनी दिशा बदल लेंगी, तो पर्यटन को अवश्य ही कुछ चोट लगेगी। दूसरी ओर वोल्वो के साथ-साथ टैक्सी आपरेशन पर भी सरकार फैसला लेकर इन्हें मीटर पद्धति से चलाने की व्यवस्था करे, तो राज्य की छवि बतौर पर्यटन राज्य उज्ज्वल होगी। जहां तक एचआरटीसी के घाटे का प्रश्न है, प्रदेश को इसके संचालन की लागत घटानी होगी। एचआरटीसी की फिजूलखर्चियों में दर्ज हो चुके अनावश्यक बस डिपो और प्रबंधकों की शुमारी को घटाए बिना कोई भी उपाय ज्यादा सार्थक नहीं होगा। परिवहन क्षेत्र में निजी निवेश की संभावनाओं में वर्तमान सरकार की ई-वाहन पॉलिसी कारगर सिद्ध हो सकती है, बशर्ते बेरोजगार पढ़े-लिखे युवकों को सरकारी ऋण गारंटी मिले और परिवहन के सारे ढर्रे का युक्तिकरण किया जाए। हिमाचल में भले ही सरकारी परिवहन का योगदान सर्वोपरि है, लेकिन इसके साथ निजी क्षेत्र जुडक़र ही ब्रांड हिमाचल बनता है।
Rani Sahu
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