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- घाटे की खेती
Written by जनसत्ता: सरकार ने 2015-16 में किसानों की आमदनी दुगनी करने का भरोसा दिलाया था। बेशक पिछले छह सालों में विभिन्न फसलों का समर्थन मूल्य काफी बढ़ गया है और सरकार ने अपने बजट में कृषि पर 1.23 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का एलान भी किया है, किसानों की भलाई के लिए कई उपाय भी किए हैं।
इसके बावजूद किसानों की आर्थिक स्थिति में किसी किस्म का सुधार होता हुआ दिखाई नहीं देता, बल्कि स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है। खेती में काम आने वाले बीज, खाद, कीटनाशक, डीजल तथा मजदूरी पहले से ज्यादा महंगे होने के कारण उत्पादन लागत बढ़ गई है। लेकिन सरकार की कृषि व्यापार नीति और कृषि आय बढ़ाने की नीति किसानों के लिए फायदेमंद साबित नहीं हुई। इतना ही नहीं, सरकार की तरफ से किसानों को मिलने वाली सम्मान निधि का भी कोई फायदा नहीं हुआ।
मौसम और बरसात के अनिश्चित तथा अनियमित होने के कारण फसलों का उत्पादन कम हो गया है। इस साल गर्मी ज्यादा होने की वजह से गेहूं की फसल जल्दी पक गई, जिसके फलस्वरूप गेहूं का उत्पादन पहले से तेईस लाख टन कम हुआ! कुछ समय के लिए गेहूं का निर्यात किया गया, लेकिन देश में इसकी कमी को देखते हुए यह बंद कर दिया गया। विदेश में भारत के चावल की मांग भी कम हो गई है।
कृषि क्षेत्र पहले के मुकाबले में कम हो रहा है। फसलों पर बहुत ज्यादा ठंड और पाले का विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। लंबे किसान आंदोलन के बावजूद कृषि पदार्थों का एमएसईबी नहीं मिल सका। कृषि क्षेत्र में कारपोरेट के घुसपैठ करने के कारण किसानों को लागत से भी कम कीमत पर अपना उत्पादन उनको बेचना पड़ता है, जिसे वे बहुत ऊंचे दामों पर बेचकर उपभोक्ताओं का शोषण करते हैं।
जिस तरह खाद्य पदार्थों तथा सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं, अगर यह आमदनी किसानों को प्राप्त हो जाए तो उनकी तो बल्ले-बल्ले हो जाए! लेकिन ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि फसलों को पैदा करने के लिए किसानों को जो खाद, बढ़िया बीज, सिंचाई की सुविधाएं, ऋण आदि चाहिए, वह उपलब्ध नहीं है। किसान फसलों की लागत के ज्यादा और आमदनी के कम होने के कारण लिया हुआ ऋण वापस नहीं कर पाते, जिसकी वजह से देश में किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामले बढ़ते जा रहे।
क्या किसी ने कभी किसी उद्योगपति द्वारा लागत के मुकाबले में आमदनी कम होने के कारण आत्महत्या करने की बात सुनी है? नहीं सुनी होगी, क्योंकि उन्हें लागत के मुकाबले ज्यादा आमदनी मिलती है। यह है कि हमारे तीन-चौथाई सांसद ग्रामीण क्षेत्रों से चुनकर संसद में पहुंचते हैं, उनमें से बहुत सारे किसान परिवारों से होते हैं, इसके बावजूद कृषि संबंधी ऐसी नीतियां नहीं बनाई जा सकीं, जिससे किसानों को विभिन्न फसलों को पैदा करने की लागत के मुकाबले में आमदनी ज्यादा मिले। यह सचमुच शर्म की बात है कि सारे देश का पेट भरने वाला अन्नदाता किसान भूख से और कर्ज न उतार सकने के कारण या तो शहरों में मजदूरी कर रहा है या फिर आत्महत्या कर रहा है!