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- रफ्तार के रंग में खोती...
पूनम पांडे; गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी एक कहानी में किसी पात्र के माध्यम से कुछ ऐसा कहा है कि कर्म की शुरुआत और उसका आनंद हम लेते हैं, पर हमारा वह कर्म ही आखिर अपने व्यवहार का न्याय करता है। हिटलर या मुसोलिनी की मिसाल ले लीजिए या रावण, कंस, दुर्योधन आदि पौराणिक पात्रों की। यही गति हम सबकी भी है। ज्वार-भाटा, उतार-चढ़ाव और इस तरह अपने कर्म की इस गति से भौंचक इंसान हैरत में पड़ जाता है।
अपनी गलती याद नहीं करता और फिर सदमे का शिकार होकर वह कुछ भी कहने लगता है। किसी की नजर लग गई या जरूरी नहीं कि वह उसे किस्मत का उलटफेर कहकर सफाई देता जाए या जो भी उसके मन में हो। मगर किसी ने खूब कहा है कि परमात्मा तो एक बार माफ कर भी देगा, लेकिन कर्म कभी माफ नहीं करता। यानी हर कर्म जो किया जाएगा, उसका किसी मोड़ पर फल पाना ही होगा, फिर चाहे वह कर्म दो मिनट का हो या दो साल का।
हम सबका यह जीवन इसी ताने-बाने से बुना हुआ है कि धैर्य के साथ अपनी राह चलें और यह मान लें कि रास्ता ही मंजिल है। जीवन के सफर में दूसरों का नहीं, अपना मूल्यांकन करते रहें। मगर आज के आपाधापी के समय में सफलता की नई परिभाषा लिखने वाले और रटाने वालों के समक्ष बाजार हावी है और वे कर्म को बस येन-केन-प्रकारेण सफलता का जरिया ही बनाना चाहते हैं। पढ़िए गीता और बनिए सीता या 'रामायण बांचो, खुद को जांचो' वाली मानसिकता रही ही नहीं। आज भिगोया, धोया और हो गया। ऐसा करके मनुष्य को मशीन बनाया जा रहा है।
ऐसी शिक्षा जो दे रहे हैं, वे यह नहीं जानते कि एक छोटा-सा कर्म भी इतना विराट भविष्य ले आता है, जिसे किसी भी कसौटी या मापदंड में रख कर नापा नहीं जा सकता। फटाफट करो, चटपट पा लो, झटपट से हासिल कर लो। इस तरह के इन नए सिखाने वालों का उदय भारत के आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक इतिहास के जिस दौर में हो गया है, वह खुद ही इस सच को छिपा रहे हैं कि जो चीज जितनी आसानी से मिलती है, समाप्त भी हो जाती है।
इस जल्दी, जल्दी और जल्दी ने ऐसा माहौल रचा है कि हर दस मिनट में तीन युवा अवसाद से भर रहे हैं। जो बचे हुए हैं, वे किशोर युवा होते-होते इतने स्वार्थी और मतलबी होने लगे हैं कि दुष्ट और धूर्त शब्द ही इस प्रवृत्ति के लिए मिलता-जुलता लगता है। हर तरफ इस तरह की ओछी कार्यशैली और तौर-तरीका छाया हुआ है। किसी उदाहरण की जरूरत नहीं है। आसपास नजर दौड़ाते ही सब साफ दिखाई देने लगता है। सामाजिक शोध और समाज विज्ञानी एकदम चौंकाने वाले आंकड़े दे रहे हैं।
अध्ययन यह बता रहे हैं कि चार दशक पहले लगभग सत्तर फीसद युवा अपने काम और अपने रहन-सहन से तालमेल बनाने में सक्षम थे। आज बीस फीसद युवा ही ऐसे हैं। बाकी अस्सी फीसद न तो काम से खुश हैं, न जीवन से, न सुख सुविधाजनक दिनचर्या से। तो यह सब कैसे हुआ? यह उस कर्म का परिणाम सामने आ रहा है, जहां मैं, मेरा, मुझे- बस यही प्रशिक्षण दिया गया और आहिस्ता-आहिस्ता एक समय ऐसा आ गया है कि दौलत, शोहरत का अजीम-उल-शान दौर आखिरी लम्हों से गुजरने लगता है। घुटन होने लगती है। मुलायम बिस्तर भी कंटक की सेज लगता है। भोजन पचता नहीं। हवा विषैली लगती है। आदत तो वही थी वहम, धोखा, प्रपंच और मतलब की।
अब लगातार बदलते संसारिक परिदृश्य में खुद को किस तरह प्रासंगिक बनाए रखते। यही सब पलटकर मिला तो सहन नहीं हो रहा। राशन लाए तो महंगा और मिलावटी, घर खरीदा तो दलाल ने धोखा दिया, विवाह किया तो साथी ने तलाक लेकर कई स्तर पर खाली कर दिया। संन्यास लिया तो वह बाबा या गुरु ही पाखंडी निकला। यानी अपने ही कर्म फल पर सिलसिलेवार ढंग से नजर डालने पर वक्त की करवट के संकेत देखे जा सकते हैं। आज हर शरीर में प्यार और टीस से भरा दिल है, उलझन भरा दिमाग और फालिज से अशक्त हाथ।
वे हाथ सफलता का ख्वाब बेचने वाले प्रशिक्षक ने तराशा, लेकिन आगे की सारी कहानी छिपा गए। मदारी ऐसे चतुर निकले कि जमूरे को मजबूत करने की जगह मजबूर कर दिया। जमूरे ने अशांत मन से देह को किसी धुन में लगाकर बीस साल तक दौलत एकत्र कर ली। ठीक बीस साल बाद अगले बीस साल तक वह दौलत बीमार तन और मन को दुरुस्त करने में लगा दी। 'लौट के बुद्धू घर को आए', मगर घर, घरेलू, घराना यह आज की पीढ़ी के लिए जाना-पहचाना रहा ही नहीं।