सम्पादकीय

अपनी महत्ता खोता: यदि संयुक्त राष्ट्र समय के साथ नहीं बदलता तो उसका प्रासंगिक बने रहना होगा कठिन

Gulabi
31 Oct 2020 1:26 PM GMT
अपनी महत्ता खोता: यदि संयुक्त राष्ट्र समय के साथ नहीं बदलता तो उसका प्रासंगिक बने रहना होगा कठिन
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संयुक्त राष्ट्र यानी यूएन ने हाल में अपनी हीरक जयंती मनाई।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। संयुक्त राष्ट्र यानी यूएन ने हाल में अपनी हीरक जयंती मनाई। इन पिछले 75 वर्षों में दुनिया खासी बदल गई है। गुजरे जमाने की महाशक्तियों की ताकत जहां कमजोर हुई, वहीं भारत जैसे नए खिलाड़ी उभरे हैं, जो न केवल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, बल्कि दूसरा सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश होने के साथ ही एक बड़ी आर्थिक ताकत है। इस दौरान आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन जैसे नए मुद्दे भी उभरे हैं, जिन्होंने सामान्य जीवन में गतिरोध का खतरा उत्पन्न किया है। इसके बावजूद यूएन है कि सुधार के लिए तैयार ही नहीं। वह भारत जैसे देश को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने में हीलाहवाली का परिचय दे रहा है। यदि यह संस्था स्वयं को समय के साथ नहीं बदलती तो भला कैसे प्रासंगिक रह जाएगी?

पीएम मोदी ने कहा- संयुक्त राष्ट्र अपनी महत्ता खोता जा रहा है

असल में मोदी ने यह मुद्दा छह साल पहले सितंबर, 2014 में ही छेड़ा था, जब बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया था। उस अवसर पर उन्होंने यह रेखांकित किया था कि यदि यूएन में सहभागिता बढ़ाकर उसे अधिक लोकतांत्रिक बनाकर परिवर्तन नहीं किया गया तो उसके अप्रासंगिक होने का जोखिम बढ़ेगा। गत माह महासभा में उन्होंने फिर कहा कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना जिन परिस्थितियों में हुई थी, मौजूदा हालात उनसे भिन्न हैं। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इस पर अवश्य विचार करे कि 1945 में बनी संस्था क्या आज भी प्रासंगिक है? मोदी ने कहा, 'आखिर कब तक भारत को संयुक्त राष्ट्र की निर्णय प्रक्रिया से बाहर रखा जाएगा?'

मोदी ने कहा- भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए पर्याप्त हैं पहलू

करीब 135 करोड़ भारतीयों की भावनाओं को स्वर देते हुए प्रधानमंत्री का संकेत यही था कि भारत का संयम क्षीण पड़ता जा रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को जहां 91.1 करोड़ मतदाता हैं, जिनमें से 60 करोड़ ने पिछले साल हुए आम चुनाव में मतदान किया था। यह दुनिया का सबसे विविधतापूर्ण देश भी है, जिसकी सांस्कृतिक एवं भाषाई विविधिता की दुनिया में अन्यत्र तुलना भी नहीं सकती और जहां दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों के अनुयायी रहते हैं। भारत में 121 भाषाएं और 270 बोलियां हैं। भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी वास करती है और वर्ष 2027 में वह चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा। अर्थव्यवस्था और सैन्य शक्ति के लिहाज से भी भारत विश्व के शीर्ष पांच देशों में शुमार है। साथ ही वह संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य और उन 26 देशों में से एक है, जिसने 1942 की पहली कांफ्रेंस में हस्ताक्षर किए थे। संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भी भारत ने अहम योगदान दिया है। क्या ये सभी पहलू भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं?

संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र में उल्लेखों पर खरा नहीं उतर रही

दुनिया के सबसे बड़े और जीवंत लोकतंत्र के गौरवान्वित नागरिक होने के नाते भारतीयों को इस मांग का अधिकार है संयुक्त राष्ट्र अपनी मूलभूत अवधारणाओं के प्रति कटिबद्ध रहे। क्या यह अजीब बात नहीं कि खुद संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र में उल्लेख है कि वह महिलाओं एवं पुरुषों के अधिकारों में कोई भेदभाव नहीं करेगा और सभी छोटे-बड़े देशों को एक दृष्टि से देखेगा, इसके बावजूद वह स्त्री-पुरुष में भेद के साथ ही देशों के वरीयता क्रम को बढ़ावा देता है। यह स्थिति भारत कैसे स्वीकार कर सकता है, जिसके संविधान में ही समानता एक मूल्य के रूप में स्थापित है। इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुच्छेद 2 के अनुसार संयुक्त राष्ट्र सभी सदस्यों की संप्रभु समानता पर ही आधारित है।

दुनिया की आबादी का पांचवें हिस्से के बराबर वाला देश सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है

यह लक्ष्य कैसे हासिल हो सकता है, जब दुनिया की आबादी के करीब पांचवें हिस्से के बराबर आबादी वाला देश सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है। वहीं यूरोप के दो देश ब्रिटेन और फ्रांस इसके सदस्य हैं, जिनकी कुल आबादी ही भारत के मात्र एक प्रांत कर्नाटक के ही बराबर है? यूएन घोषणापत्र का अनुच्छेद 108 और 109 भी घोर अलोकतांत्रिक है, क्योंकि यदि दो-तिहाई सदस्य मिलकर भी घोषणापत्र में संशोधन लाने के लिए सहमत होते हैं तो सुरक्षा परिषद का कोई एक सदस्य अपनी वीटो पावर से उस संशोधन की राह में अवरोध उत्पन्न कर सकता है। यह लोकतांत्रिक दुनिया के किसी भी सभ्य संस्थान के लिए उचित नहीं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को यह क्यों स्वीकार्य होना चाहिए। ये अनुच्छेद सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों को राजनीति करने और सुधारों की राह अवरुद्ध करने की शक्ति प्रदान करते हैं। यही कारण है कि भारत, ब्राजील, जापान और जर्मनी जैसे देशों के समूह जी-4 की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए एक दूसरे के समर्थन की मुहिम अभी तक फलीभूत नहीं हो पाई है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भारतीय धैर्य की सीमा को समझना चाहिए

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भारतीय धैर्य की सीमा को अवश्य समझना चाहिए। वह यह भी समझे कि एक नए आशावादी, आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर भारत का भी उदय हो रहा है। यह सच है कि सात दशक पहले सदियों तक औपनिवेशिक दासता की बेड़ियों से मुक्ति के बाद भारत आर्थिक दुर्दशा का शिकार था, जिससे वह अपने वाजिब अधिकारों के लिए आवाज उठाने की स्थिति में नहीं था, मगर आज का भारत अलग है। आज भारतीय नागरिक इन असमानताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। वे उन बंदिशों से मुक्ति चाहते हैं, जो 75 साल पहले उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के लिए उन पर थोपी गई थीं।

पीएम मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में सुधारों को लेकर भारतीयों की आकांक्षाओं का उल्लेख किया

भारत अतीत के भ्रमों को भुला रहा है। वह अपनी मासूमियत और भोलेपन को पीछे छोड़ रहा है। उसे आभास हुआ है कि अपने पड़ोस और पूरी दुनिया में शांति को बढ़ावा देने के लिए उसे शक्तिशाली और आत्मनिर्भर बनना होगा। चीन हाल में भारत के इन तेवरों का स्वाद चख चुका है और जल्द ही दूसरे देशों को भी इसका अंदाजा लगना शुरू होगा। यह प्रक्रिया पलटने वाली नहीं। अपने नागरिकों को इस नई सोच की दिशा में उन्मुख करने वाले पीएम मोदी यह परिवर्तन महसूस कर रहे हैं। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र में सुधारों को लेकर उन्होंने भारतीयों की आकांक्षाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया।

आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर संयुक्त राष्ट्र भारत को शीर्ष क्रम में शामिल होने के लिए आमंत्रित करे

भारत वर्ष 2022 में अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र को इस अवसर को इस रूप में भुनाने के लिए निश्चित रूप से तत्पर रहना चाहिए कि लोकतंत्र ही मानव द्वारा ईजाद की गई सबसे सभ्य राजनीतिक प्रणाली है और वह भारत को शीर्ष क्रम में शामिल होने के लिए आमंत्रित करे।

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