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- देश के लिए जवानी की...

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बूढ़ा हो जाने के बाद आदमी कितनी सफाई से झूठ को सच बना कर बोल लेता है। लगता है इतना बूढ़ा हो गया है। सच ही कह रहा होगा। हो सकता है वास्तव में इसने जीवन में इतनी ही उपलब्धियां हासिल कर ली हों! इसका जीवन एक शाहकार बन कर गुजरा हो। वास्तव में क्यों न इसकी बात मान ही लो कि दुनिया में सबसे अकलमंद गदहा होता है, और सबसे सुखी जीव सुअर है। जो बात एक बूढ़े होते आदमी के लिए सही है, वही बात एक बूढ़े हो गए देश के लिए भी सही है। एक झूठ को दस बार सच कह कह दुहरा दो, तो वह वास्तव में सच ही लगने लगता है। हम अपने देश की रगों में दौड़ते उद्दाम यौवन की कल्पना करते हैं, तो लगता है वास्तव में देश बुढ़ापा त्याग फिर से जवान हो उठा। काव्य पंक्तियां क्यों दुहरायें कि ‘बूढ़े भारत की रगों में फिर से आई नई जवानी थी।’ इसी से लगता है सैकड़ों बरस पुराने भारत के जीर्ण-शीर्ण मूल्य खण्डित हो गये। नये मूल्यों ने, नये बदलाव ने फिर जन्म ले लिया।
देश चिरयुवा हो उठा, चिल्ला-चिल्ला कर उठाये गये नारे एक नया सच बन कर उभर आये। उन्होंने कितनी बार कोरोना के इस विचलित कर देने वाले दिनों में कहा था, यह घरबंदी का विलाप सदा नहीं रहेगा। अच्छे दिन आने वाले हैं। उन्हें आने से कोई रोक नहीं सकता। फिर बताया, हमने कहा था न कि यह कोरोना के एकालाप का विलाप नहीं रहेगा। लो कहां रहा? मृत्यु दर इतनी गिरी कि गिरावट को शर्मिंदा करने लगी और मरीजों के स्वस्थ होने की दर इतनी तेजी से बढ़ी कि लोगों ने उससे हर्षित हो मास्क को एक उपेक्षित कवच बना दिया। हाथों को सैनिटाइज करना भूल गए। देखो न, इस भीड़ भरे देश में आदमी पर आदमी चढ़ा चला आ रहा है, भला सामाजिक अन्तर कैसे रख लेते। लीजिये बन्धु हमारी कृपा से टीका दर टीका चले आ रहे हैं।
एक सौ चालीस करोड़ लोगों के देश में एक करोड़ लोगों को रिकार्ड समय में टीका लग गया। छह महीने में उन्नीस करोड़ लोगों को और लग जायेगा। फिर भी आप हमारे कामयाब नेतृत्व को दाद नहीं देते। इधर देश के फिर धृष्ट कोने कोरोना संक्रमण के बढऩे की धमकी देने लगे। कोरोना की दूसरी या तीसरी लहर के फूट पडऩे की आशंकायें व्यक्त होने लगीं। भाई जान, क्या करें हम तो कोरोना मुक्त भारत के अच्छे दिन देश में ले ही आये थे। लेकिन आपको क्या कहें? आपने तो भीड़ तंत्र के साथ सफलता का जश्न मनाना शुरू कर दिया। बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। आपको कैसे समझायें दोष कोरोनामुक्त भारत में अच्छे दिन आ जाने का नहीं, हम ही उसे सम्भाल नहीं पाये। तुम कहते हो भूख, बेकारी और महंगाई बढ़ गई। अरे महसूस तो करो, तुम्हारी भूख मिट गई। देश खुल गया है, बेकार हाथों को काम मिल गया। और महंगाई की दिक्कत की बात न करना। आर्थिक विकास दर के गिर कर ऋणात्मक होने की बात न करना, सकल घरेलू उत्पादन में रिकार्ड कमी आई, इसकी बात न करना। तालियां बजाना सीखो।
हमने बता तो दिया है कि कोरोना का दबाव कम हो गया है। देश की आर्थिक गतिविधियां खुल रही हैं। अब आर्थिक विकास दर भी बढ़ेगी, सकल घरेलू उत्पादन की कमी दूर हो जाएगी। बस थोड़ा सा धीरज रखने का इन्तजार करने की जरूरत है, सब सही हो जाएगा, अच्छे दिन लौट आयेंगे। बस यही तो तुम इस देश के लोग कर नहीं पाते। प्रशासन को भला-बुरा कहने लगते हो। कुछ महीनों बाद महाचुनाव होंगे। हमारे भाल फिर से तिलक लगा देना। अभी तुम नौकरियों के पीछे भागते हो, फिर नौकरियां हाथ बांध कर तुम्हारे पीछे-पीछे चली आएंगी। हमने अच्छे दिन लाने का वायदा कर रखा है। ये अवश्य मिलेंगे, बस सत्ता की गद्दी पर जमने का हमें स्थायी मौका दे दो, इस देश के महाभ्रष्टाचारी और रिश्वतखोर होने का कलंक हटा कर दम लेंगे।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal

Rani Sahu
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