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- फिर सूरज की तलाश

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बीती महामारी के दौरान लोगों को डबल मास्क लगाने का आदेश क्या हुआ, तब से लोगों ने अपने चेहरे पर एक और चेहरा लगा दिया। मुखौटों का नया बाजार सज गया। यहां दृढ़ संकल्प, आत्मविश्वास बढ़ाने और संतुलित रहने वाले उपदेशकों का मुखौटा मिलता है, वहां समाज सेवा और जनसेवा का दम भरते हुए लोग अपने लिए एक नई पहचान यात्रा जुटाने पर चल दिए। काला व्यापारियों के मन में बीमारों के प्रति दर्द का नया एहसास जागा। जरूरी दवाओं की अनुपलब्धता बता फिर हमदर्दी जताते हुए दुगने-चौगुने दाम टीका निकाल देते हैं। निजी अस्पताल विशेष सेवा के नाम पर सरकारी रेट से अधिक दाम ले दिन-रात सेवा का वायदा करते हैं। सफाचट ने दाढ़ी बढ़ा ली और दडिय़ल सफाचट हो अपने व्यक्तित्व के प्रदर्शन के प्रति वैराग्य दिखा रहे हैं। लेखकों में टालस्टाय, रवि बाबू या प्रेम चंद की छवि लेने का आकर्षण पैदा हो रहा है। जीवन जीने का नहीं, छवि बनाने का खेल हो गया। पहले वक्त और था, आदमी न काम का हो न धाम का, बस बातों के साथ अपनी प्रशंसा का जलतरंग बजा महिमा मण्डित हो जाता था। अपना स्मारक स्वयं बना कर इस पर श्रद्धा सुमन स्वयं चढ़ाता था। अपनी अब तक छपी पुस्तकों की भूमिकाओं और आलोच्य टिप्पणियों की किताब छपवाने की भूमिका बनाता था। अब फटाफट लोग मरने लगे तो उनके बारे में अपनी शोक संवेदनाओं अथवा काल्पनिक संस्करणों के महाग्रन्थों का प्रणयन कर रहा है। लोग एकांत में निर्वासित होने लगे, जो किसी को पास न फटकने दे ऐसा बिस्तर तलाशने लगे। लगा अब जमाना भूमिका नहीं उपसंहार को लड़ीबद्ध कर पुस्तक या पीडीएफ बनाने का आ गया। लोग अन्धेरी रात में नया सूरज उगने की तलाश करने लगे हैं। इसकी शोक धुन बजा रहे हैं। लेकिन अच्छे दिन लाने वाला सूरज आंख मिचौली खेल गया।
उन्होंने तो अन्धेरे के यम ताण्डव की महामारी से विदा लेने की कल्पना कर प्रगति और विकास के काल्पनिक आंकड़ों के रंगों से देश के कैनवास पर ताजा सुबह के आगमन की सूचना दे दी थी। लेकिन कैसी आस निरास भई? तुमने अस्वस्थ दिनों से छूट जाने का भ्रम कैसे पाल लिया? सामान्य जिंदगी का उत्सव कैसे मना लिया? नहीं, नहीं, पीछे हटो। चेहरों पर नकाब ओढ़ लो, हाथों का मटमैला हो जाने का भ्रम भूलना चाहते थे, नहीं भूलो न, जिंदगी तो और भी मटमैली हो गई। रोजी-रोजगार छूट गए, भूख तुम्हारी देहरियों पर नृत्य कर रही है। महंगाई के आंकड़ों की हाय तौबा आदमी को बाजार की ओर जाने से डरा रही है। एक भीड़ भरे देश में उत्सवी, धर्मी होना गुनाह है, जानते नहीं हो क्या? इसलिए बगल हटो। तुम्हारे घुलने मिलने ने, जीवन के लौटने की उम्मीद ने मौत के दरकारों को वापस तुम्हारी गलियों में निमंत्रित कर लिया है। इनसे बचने के लिए फिर वहीं सन्देश मिलने लगे। लेकिन मर्ज पुराना हो जाए, तो लोग न केवल उससे बेपरवाह हो जाते हैं, बल्कि छद्मवेश धारण कर इसे छकाने का प्रयास भी करते हैं। लीजिये जीवन फिर अस्त-व्यस्त होने लगा, अब अपने विजेता बने रहने के भ्रम को कैसे जिंदा रखें? इधर-उधर परिवेश की जांच-पड़ताल की तो पाया कि विजेता वही होता है, जो विजय के भ्रम को अधिक देर तक जिंदा रख सके। चेहरे पर विलक्षणता नजर आए, इसलिए इसने दाढ़ी बढ़ा ली है। हां बंधु, यही तो है आपातकाल की नई परिपाटी। बेशक मास्क लगाओ, लेकिन सभ्य जागरूक नागरिकता का प्रमाण आपका एक चित्र तो छपना बनता ही है। यह दिन सदा रहेंगे नहीं। जब संकट भरे दिन लौट जायेंगे, तो हम यह छपा हुआ चित्र दिखा कर कह सकेंगे कि लो भाई इन दिनों से विरक्त होकर हमने दाढ़ी बढ़ा ली थी।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal

Rani Sahu
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