सम्पादकीय

जिए मेरा देश

Gulabi
2 Sep 2021 6:49 AM GMT
जिए मेरा देश
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वह नेता हो गए हैं। हर नया दिन गुजऱने के बाद वह और भी बड़े नेता होते जा रहे हैं

दिव्याहिमाचल.

वह नेता हो गए हैं। हर नया दिन गुजऱने के बाद वह और भी बड़े नेता होते जा रहे हैं। बर्नार्ड शा की उक्ति को सभ्यता का आवरण ओढ़ा कर कहूं, तो लगता है वह इस बात को उनका अमर वचन मान कर शिरोधार्य कर चुके हैं कि 'राजनीति खलनायकों का अंतिम शरण स्थल है। लेकिन आजकल कौन नायक है और कौन खलनायक, इसमें भेद करना बहुत कठिन हो गया है। हमें तो लगता है बदलते युग में नायक के गुणों वाले व्यक्ति भोथरे कहला कर आंख ओझल कर दिए जाते हैं और ऊंची आवाज़ वाले झगड़ालू खलनायक ही आज के नए नायक बन जाते हैं। उनका काम हर गलत काम को सही करवाना असल नायकत्व होता है। उचित लोगों को पीछे फेंक कर तरक्की लेना, बालाईदार सीटें अभद्र अधिकारियों को दिलवा उनसे ठेके खाना, बदली हो जाए तो उसे रुकवा देना और जो पसंद नहीं परंतु ईमानदार अधिकारी है, इसे अपने हलके से तबदील करवा सकना ही आज के इन नए नायकों की शक्ति दिखाता है। ऐसे लोग थानों, अस्पतालों, सेवा सांझ केन्द्रों और अफसरों के भाई-भतीजों के गिर्द पाए जाते हैं। इन्हें थानों में मासूमों को मुजरिम बना पकड़वाने या भिड़ती पार्टियों के क्रास पर्चे दर्ज करवाने में महारत होती है। लाग डाट रखने वाले बड़े आदमियों को भड़का उनके अपने आदमी बन दोनों तरफ से अपनी जेब भर लेना उनकी विशेषता होती है। लाग डाट बढ़े तो यह समझौता करवाने के लिए भी आगे हो जाते हैं और अपने टैंट गर्म करने के बाद ये उनको शांति और समझौते का उपहार देते हैं। लेकिन समय के साथ-साथ इन युग पुरुषों के कारनामों में भी चार चांद लगते जा रहे हैं। ये इस फिराक में रहते हैं कि किसी इलाके में कौन-सा अवैध निर्माण हो रहा है। पहले उसकी शिकायत खुद कर आते हैं। अवैध निर्माण गिराने वाले आएं तो उन्हें मानवता का वास्ता देकर मौका-ए-वारदात से लौटाने का काम भी यही करते हैं। उस समय उनकी वक्तृता और विद्रोही तेवर का जादू देखते ही बनता है।

उपन्यासकार थॉमस हार्डी इस युग में होते तो उन्हें अपना उपन्यास 'मिस्टर जैकिल और मिस्टर हाइडÓ लिखने की कतई ज़रूरत न पड़ती। लगता है आज केवल नेतागण ही क्यों, धर्म प्रचारक, समाज सुधारक और युग प्रवर्तक कहलाने की इच्छा रखने वाले सब महानुभाव दो-दो चेहरे धारण कर जीने की निपुणता हासिल कर चुके हैं। देश के भाग्य विधाता एक ओर किसान, गरीब, बेकार और मजदूर के सब दुख हर देने का, उनके अच्छे दिन ले आने का वायदा करते हैं। लेकिन उनके वायदे एक चेहरा है और दूसरा चेहरा धनाढ्यों के प्रासादों की एक और मंजि़ल उठाने में उनके अमूल्य योगदान का बन गया है। देश के जिस नवनिर्माण का ढिंढोरा पीटा जाता है, उसकी नींव रखने के नाम पर निवेशकों में केवल उनकी व्यापारिक साख के नाम पर करोड़ों रुपया बांट देना। फिर इसको मरा खाता बना कर इन महानुभावों का देश से छूमंतर हो जाना। फिर भी इनका दावा चाहे रहता है, गिनती में यह रुपया चाहे इन मृत खातों में बढ़ा, लेकिन इनकी प्रतिशत राशि तो घटी है, इसलिए हम बैंकों की आर्थिक सेहत संवारने के लिए बड़े बैंकों में छोटे बैंक मिला रहे हैं। लक्ष्य है कि देश में केवल पांच बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक रह जाएं, ताकि हर छोटा-बड़ा बैंक अपने मृत खाते दिखा कर आपको चौंकाए नहीं। यहां यह भी बता दिया जाए कि यहां हमने वंचित वर्ग का जीवन बदलने के नाम पर पहले अपनी ग्रामीण बैंकिंग और सहकारी बैंकिंग से अपने चुनिंदा किसानों में ऋण बांटे। ऋण वापस नहीं आए, मृत हो गए तो इसे हमने कृषि क्षेत्र के कल्याण की कीमत बताया। अब यही कीमत मुद्रा योजना की सहायता से अदा की जा रही है।
सुरेश सेठ
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