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- साक्षरता के कदम

रवि शंकर: भारत ने पिछले एक दशक में शिक्षा के क्षेत्र में काफी तरक्की की है, पर इस हकीकत से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता कि साक्षरता के मामले में अब भी बहुत पीछे है। साक्षरता के स्तर पर विश्व में भारत का एक सौ इकतीसवां स्थान है। दुनिया भर में आज भी बड़ी संख्या में निरक्षर हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया भर में करीब चार अरब लोग साक्षर हैं, तो वहीं दूसरी तरफ अब भी करीब 77.5 करोड़ लोग निक्षर हैं।
इनमें से दो-तिहाई महिलाएं हैं। लगभग तीन चौथाई निरक्षर आबादी दुनिया के सिर्फ दस देशों में रहती है। इसका मतलब यह है कि हर पांच में से एक व्यक्ति निरक्षर है। वहीं दुनिया के लगभग पैंतीस देशों में आज भी साक्षरता की दर पचास फीसद से भी कम है।
अगर भारत में साक्षरता दर की बात करें तो यह वर्ष 2011 में बढ़ कर 74.4 फीसद तक पहुंच गई। इसमें पुरुषों की साक्षरता दर जहां 82.16 फीसद थी, वहीं महिलाओं की साक्षरता दर 65.46 फीसद ही दर्ज की गई। फिर भी यह विश्व की औसत साक्षरता दर चौरासी फीसद से काफी कम है।
साथ ही, हर राज्य में पुरुषों की साक्षरता दर महिलाओं की तुलना में ज्यादा है। यह बात सही है कि आजादी के समय भारत की साक्षरता दर काफी कम थी। उस वक्त मात्र बारह फीसद देश की आबादी साक्षर थी। इस दृष्टि से देश की साक्षरता दर सतहत्तर प्रतिशत तक पहुंचना एक अच्छी उपलब्धि मानी जाएगी। मगर जब हमने आजादी के बाद इतना लंबा सफर तय कर लिया है, तब देश की यह उपलब्धि थोड़ी बौनी जरूर लगती है।
आजाद भारत में भी कई राज्यों ने साक्षरता पर बहुत अच्छा काम किया है, जिसका परिणाम भी वहां दिखाई देता है। छियानबे प्रतिशत के साथ केरल का देश का पहले नंबर का साक्षर राज्य होना उसके बेहतर प्रयासों को दर्शाता है। लेकिन कई राज्य साक्षरता के मामले में काफी पीछे हैं। वर्तमान में छियासठ प्रतिशत साक्षरता वाला राज्य आंध्र प्रदेश सबसे निचले पायदान पर है।
साक्षरता के मामले में झारखंड और बिहार की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। कई राज्यों की साक्षरता दर राष्ट्रीय साक्षरता दर से बेहतर या फिर इसके आसपास थी, लेकिन कई राज्यों का ग्राफ राष्ट्रीय साक्षरता दर से नीचे था। इनमें झारखंड और बिहार भी शामिल हैं। इनमें झारखंड का प्रतिशत थोड़ा बेहतर था और बिहार लगभग निचले पायदान पर था। मगर झारखंड की तुलना में बिहार की साक्षरता की विकास दर बेहतर है।
देश में कम साक्षरता दर का एक कारण शिक्षा प्राप्त लोगों का भी बेरोजगार होना है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। क्योंकि अपने संक्रमण काल से ही भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों और समस्याओं का सामना करना पड़ा है। आज भी ये चुनौतियां और समस्याएं हमारे सामने हैं, जिनसे दो-दो हाथ करना है।
स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही भारतीय शिक्षा को लेकर जद्दोजहद चलती रही। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार के लिए अनेक प्रयास किए। यह और बात है कि इन प्रयासों में अनेक खामियां भी सामने आर्इं, जिन्हें दूर करने का प्रयास किया जाता रहा है।
बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट रूप से जिक्र किया गया है कि निरक्षरता के कारण दुनिया भर की सरकारों को सालाना 129 अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ रहा है। साथ ही दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा पर खर्च किया जाने वाला दस फीसद धन बर्बाद हो जाता है, क्योंकि शिक्षा की गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जाता। इस कारण गरीब देशों में अक्सर चार में से एक बच्चा एक भी वाक्य पूरी तरह नहीं पढ़ सकता।
यह ठीक है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भारत ने बहुआयामी सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है, लेकिन अगर साक्षरता की बात करें तो इस मामले में आज भी हम कई देशों से पीछे हैं। यह ठीक है कि आजादी के समय से ही देश की साक्षरता बढ़ाने के लिए कई कार्य किए गए और कानून बनाए गए, पर जितना सुधार कागजों में दिखा उतना असल में नहीं हो पाया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में छह से चौदह वर्ष आयुवर्ग के बच्चों के लिए संविधान में पूर्ण और अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव रखा गया। मगर आजादी के साढ़े सात दशक से अधिक समय बीत जाने के बावजूद हम अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सके हैं। भारतीय संसद में वर्ष 2002 में छियासीवां संविधान संशोधन अधिनियम पारित हुआ, जिसके तहत छह से चौदह वर्ष आयुवर्ग के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया।
बावजूद इसके, नतीजों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। इतना ही नहीं, 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को सरकारी सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में मध्याह्न भोजन देने की व्यवस्था करने का आदेश दिया था। इसके अलावा देश में 1998 में पंद्रह से पैंतीस आयुवर्ग के लोगों के लिए 'राष्ट्रीय साक्षरता मिशन' और 2001 में 'सर्व शिक्षा अभियान' शुरू किया गया। इसमें वर्ष 2010 तक छह से चौदह वर्ष आयुवर्ग के सभी बच्चों की आठ साल की शिक्षा पूरी कराने का लक्ष्य था।
बाद में संसद ने 4 अगस्त, 2009 को सभी बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को स्वीकृति दे दी। एक अप्रैल, 2010 से लागू हुए इस कानून के तहत छह से चौदह वर्ष आयुवर्ग के बच्चों को निशुल्क शिक्षा देना हर राज्य की जिम्मेदारी और इसे पाना हर बच्चे का मूल अधिकार है। इस कानून को साक्षरता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना गया, मगर इन सबके बावजूद 'दिल्ली अभी दूर' ही लगती है।
शिक्षा व्यक्तिगत स्तर पर बेहतरी के साथ-साथ पूरे समाज में बदलाव ला सकती है। साक्षर होने का मतलब केवल लोगों को शिक्षित करना नहीं, बल्कि इसके कई फायदे हैं। बेहतर साक्षरता दर से जनसंख्या बढ़ोतरी, गरीबी और लिंगभेद जैसी चुनौतियों से निपटा जा सकता है। इस संदर्भ में भारत सरकार ने भी कई कदम उठाए हैं, लेकिन इसके बावजूद इसकी साक्षरता दर के विकास में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है।
भारत में अगर साक्षरता की दर ऐसी ही रही, तो उसे पूर्ण साक्षरता दर हासिल करने में 2060 तक का इंतजार करना पड़ सकता है। देश की बहुत सारी चुनौतियों और समस्याओं का समाधान करके एक बेहतरीन समाज बनाने का सपना तब तक साकार नहीं हो सकेगा, जब तक देश की अशिक्षित आबादी साक्षर नहीं हो जाती। आज विश्व आगे बढ़ता जा रहा है और अगर भारत को भी प्रगति की राह पर कदम से कदम मिला कर चलना है, तो साक्षरता दर में वृद्धि करनी ही होगी।
असल में हमारे यहां शिक्षा-व्यवस्था में प्रयोगवादी सोच की कमी है। देश में शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया गया, पर उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्य, जहां गरीबी अधिक है, इसके सफल होने में काफी मुश्किलें आ रही हैं। सरकार को यह भी समझना होगा कि सिर्फ साक्षर बनाने से लोगों का पेट नहीं भरेगा, बल्कि शिक्षा के साथ कुछ ऐसा भी सिखाना होगा, जिससे बच्चे आगे चल कर अपना पेट पाल सकें।