सम्पादकीय

डब्ल्यूएचओ की चेतावनी सुनिए : चिंता का विषय है गैर संचारी बीमारियों का बढ़ता ग्राफ, बच्चों का ध्यान रखना होगा

Neha Dani
15 Oct 2022 2:13 AM GMT
डब्ल्यूएचओ की चेतावनी सुनिए : चिंता का विषय है गैर संचारी बीमारियों का बढ़ता ग्राफ, बच्चों का ध्यान रखना होगा
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विमर्श में लाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि हमारा भविष्य दांव पर है।

पिछले महीने राजनीतिक खबरों के बीच एक रिपोर्ट की ओर अपेक्षाकृत ध्यान कम ही गया। यह थी, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से जारी एक नई रिपोर्ट, 'अदृश्य आंकड़ा- गैर-संचारी रोगों का सही पैमाना'। इसमें रेखांकित किया गया है कि पूरी दुनिया में हर दो सेकंड में गैर-संचारी रोगों से सत्तर वर्ष से कम उम्र के एक व्यक्ति की मौत हो जाती है और ऐसी 86 फीसदी मौतें निम्न और मध्यम आय समूह वाले देशों में होती हैं। नॉन कम्युनिकेबल डिसीज (एनसीडी) यानी गैर-संचारी रोग जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां हैं।

आमतौर पर, ये हृदय रोग, कैंसर, पुरानी सांस की बीमारियां और मधुमेह की बीमारी हैं। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि 2019 में भारत में हुई मौतों में से 66 फीसदी के लिए चिंताजनक रूप से एनसीडी जिम्मेदार थे। अधिकांश भारतीय अब जीवनशैली की बीमारियों से मर रहे हैं, न कि संक्रामक रोगों से। हममें से हर कोई किसी न किसी बीमारी के कारण समय से पहले मरने वाले किसी न किसी व्यक्ति को जानता है। कुछ प्रमुख कारण, जो किसी के जीवन को जोखिम में डालते हैं, वे हैं अस्वास्थ्यकर आहार, शारीरिक गतिविधि की कमी और तंबाकू तथा शराब का सेवन।
रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में भारत में 60.46 लाख लोगों की मौत हुई। वास्तव में चिंताजनक बात यह है कि हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह या क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज (सीओपीडी, यह रोगों का ऐसा समूह है, जिसमें रोगी को सांस लेने में कठिनाई होती है) सहित इनमें से किसी एक प्रकार की गैर-संचारी बीमारी के कारण 30 से 70 वर्ष की आयु के लोगों में मृत्यु की 22 फीसदी संभावना थी। अनेक लोग सोचते हैं कि जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां, जिन्हें स्वास्थ्य विशेषज्ञ गैर-संचारी रोगों के रूप में चिह्नित करते हैं, सिर्फ अमीर लोगों को होती हैं। यह सही नहीं है।
ये बीमारियां फैल रही हैं, और आप जान सकते हैं कि निम्न आय समूहों वाले भारतीयों और गांवों में रहने वाले लोगों में भी जीवनशैली से जुड़ी ये बीमारियां हो रही हैं। एक बड़ी समस्या तो यही है कि हमारे देश में अधिकांश लोग जोखिम से जुड़े कारकों के बारे में कुछ जानते ही नही हैं, या उन्हें पता ही नहीं होता कि वे उच्च रक्तचाप जैसी किसी बीमारी से ग्रस्त हैं। दरअसल हमारे यहां सालाना मेडिकल जांच की परंपरा ही नहीं है; अधिकांश लोग इसका खर्च वहन नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें किसी तरह की पूर्व चेतावनी नहीं मिल सकती।
एक और परेशान करने वाला रुझान यह है कि वयस्कों और बच्चों में मोटापे की समस्या बढ़ रही है, जिसकी वजह से जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों का जोखिम भी बढ़ रहा है। हम इसके बारे में ज्यादा बातें नहीं करते हैं, क्योंकि इस देश में लाखों लोग अब भी भूखे सो जाते हैं, फिर भी, अधिक वजन वाले भारतीयों की बढ़ती संख्या के बारे में पता होना असंभव नहीं है। बेशक कम संख्या में, लेकिन निम्न आय समूहों में भी यह समस्या है। इसके कारण बहुत जटिल हैं। स्कूली बच्चों में मोटापे की समस्या का क्या हश्र होगा?
अग्रणी निजी अस्पताल मेदांता में एंडोक्रिनोलॉजी और डायबिटीज के सीनियर कंसल्टेंट मोहम्मद शफी कहते हैं, 'बच्चों में मोटापे के कारण इंसुलिन प्रतिरोध और मधुमेह, उच्च रक्तचाप, उच्च रक्त कोलेस्ट्रॉल के स्तर, पित्त पथरी और लीवर से जुड़ी समस्याएं हो सकती हैं। मोटापे से ग्रस्त बच्चे जल्दी थक जाते हैं और उनमें व्यायाम करने की क्षमता घटने लगती है। मोटापा बच्चों पर मनोवैज्ञानिक असर भी डालता है, जिससे ऐसे बच्चों में हीन भावना बढ़ने लगती है, उनका शरीर बेडौल हो जाता है, चिंता तथा चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है, जिससे वे अवसाद का शिकार भी हो सकते हैं।
बच्चों में मोटापे के सामाजिक परिणाम सामाजिक गतिविधियों में कम भागीदारी और साथियों के साथ कम बातचीत के रूप में सामने आते हैं।' स्वास्थ्य विशेषज्ञ और जन स्वास्थ्य से जुड़े थिंक टैंक पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में कार्यरत शिफालिका गोयनका बढ़ते बाल मोटापे के कारकों को समझने पर जोर देती हैं। अगर भारत के भीड़-भाड़ वाले शहरों के गरीब इलाकों में भी बच्चों का मोटापा बढ़ने लगा है, तो इसका कारण यह है कि संकट में पड़े लोग नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं।
शहरों में उन्हें खराब स्वच्छता और बदतर परिवेश में रहना होता है। गोयनका कहती हैं, 'वे अपनी अल्प आय का उपयोग अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थ खरीदने के लिए करते हैं, जिनसे उन्हें जरूरत की कैलोरी भी नहीं मिलती।' हमें मोटापा, अल्प-पोषण और जलवायु परिवर्तन के बीच की कड़ी को भी देखना होगा; ये तीनों एक ही प्रणालियों और नीतियों से संचालित हैं। जलवायु परिवर्तन हर चीज को प्रभावित कर रहा है। गोयनका कहती हैं, सूखा, जैसी मौसम की चरम स्थितियों के कारण कृषि में बदलाव आ सकता है, जिससे खाद्य असुरक्षा बढ़ सकती है और अंततः अल्प-पोषण में वृद्धि हो सकती है।
इसके साथ ही वह यह भी कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन बुनियादी खाद्य वस्तुओं, विशेष रूप से फलों और सब्जियों की कीमतों को भी प्रभावित कर सकता है, संभावित रूप से प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की बढ़ती खपत बढ़ा सकता है, और इसलिए खाद्य और कृषि नीतियों, परिवहन, शहरी डिजाइन और भूमि उपयोग प्रणालियों में आमूल-चूल प्रणालीगत परिवर्तन की आवश्यकता है। स्पष्ट रूप में हमें जीनवशैली से जुड़ी बीमारियों और जोखिम वाले कारकों को लेकर और अधिक जागरूकता फैलाने की जरूरत है। ऐसी बीमारियों के लिए उनसे पीड़ित लोगों को ही अकेले जिम्मेदार ठहराना नुकसानदेह हो सकता है।
हमें इस बारे में जागरूकता की आवश्यकता है कि स्वस्थ भोजन क्या है और हानिकारक भोजन क्या है और प्रसंस्कृत खाद्य सामग्री पर चेतावनियां हैं या नहीं। जमीनी स्तर पर हमें पैदल चलने वालों के लिए अनुकूल स्थान, सुव्यवस्थित पार्क और लड़कियों की सुरक्षा की आवश्यकता है, ताकि लोग बाहर निकल कर पैदल चलने के लिए प्रेरित हों। हरे-भरे पेड़ के छत्रों के माध्यम से स्वच्छ हवा और गर्मी के शमन की भी आवश्यकता होती है। इन सबसे ऊपर, जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों को मुख्यधारा के विमर्श में लाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि हमारा भविष्य दांव पर है।



सोर्स: अमर उजाला

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