सम्पादकीय

सुनें किसान को: सुधारों की विश्वसनीयता बहाल करे सरकार

Gulabi
3 Dec 2020 2:20 PM GMT
सुनें किसान को: सुधारों की विश्वसनीयता बहाल करे सरकार
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 कुछ राजनीतिक व अन्य श्रमिक संगठनों के लोग भी आंदोलनकारियों के सुर में सुर मिलाने लगे हैं।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। केंद्र सरकार के तीन कृषि सुधार कानून के खिलाफ दिल्ली के दरवाजे पर मोर्चा जमाये किसानों की हालिया वार्ता भले ही किसी ठोस नतीजे पर न पहुंची हो, मगर उम्मीद तो जगाती है। भले ही आंदोलन का शंखनाद पंजाब के किसानों ने किया हो लेकिन अब इसमें हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि अन्य प्रदेशों के किसान भी जुटने लगे हैं। कुछ राजनीतिक व अन्य श्रमिक संगठनों के लोग भी आंदोलनकारियों के सुर में सुर मिलाने लगे हैं। जाहिरा तौर पर केंद्र सरकार को भी इस बात का अहसास है कि यह आंदोलन विस्तार लेकर मुसीबत पैदा कर सकता है। किसानों के आंदोलन से मुख्य मार्गों पर बाधा उत्पन्न होने से यातायात बाधित है और यात्रियों को भी भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

किसान भी दावा कर रहे हैं कि वे छह महीने का राशन-पानी लेकर चले हैं। बहरहाल, किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी तथा मंडी समितियों में खरीद की गारंटी व्यवस्था को कायम रखने पर अड़े हैं। यहां तक कि इस बाबत समिति बनाने के प्रस्ताव तक को भी किसान नेताओं ने ठुकरा दिया है। वे तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े हैं। अब तक केंद्र सरकार भी एमएसपी के मुद्दे पर कहती रही है कि यह व्यवस्था खत्म नहीं होगी।

साथ ही दलील यह भी कि पहले भी यह बात कानून में लिखित में नहीं थी, इसीलिए इसे कानून में शामिल नहीं किया गया। किसान व कुछ कृषि विशेषज्ञ सुझाव दे रहे हैं कि एक चौथा कानून लाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा दिया जाये ताकि कोई इससे कम कीमत पर अनाज की खरीद के लिये किसान को बाध्य न कर सके। एक अनुमान के अनुसार देश में केवल छह फीसदी किसान ही एमएसपी का लाभ उठाते हैं, जिसका भी बड़ा हिस्सा पंजाब और हरियाणा के किसानों को मिलता है। यही वजह है कि इन्हीं इलाकों में किसान आंदोलन उग्र है। दरअसल, किसानों की कई और चिंताएं भी हैं। किसान कहते हैं कि सरकार के तरफ से ऐसा कोई आदेश जारी नहीं हुआ है कि फसलों की सरकारी खरीद जारी रहेगी।

जो भी बाते हैं, वे मौखिक तौर पर कही जा रही हैं। किसान चिंतित हैं कि इस साल केंद्र ने ग्रामीण संरचनात्मक विकास के लिये दिये जाने वाला फंड भी नहीं दिया है जो कृषि से जुड़ी सुविधाओं के विस्तार के लिये दिया जाता है। किसान आशंकित हैं कि शायद  भविष्य में अनाज की सरकारी खरीद कम हो जाये और उन्हें निजी कंपनियों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़े। विगत में कई कमेटियों ने भी गेहूं व धान की खरीद कम करने की सिफारिश की थी। ऐसे में सवाल है कि जब खरीद सरकार की तरफ से नहीं होगी तो क्या एमएसपी का क्रियान्वयन हो पायेगा? ऐसी कौन-सी व्यवस्था है जो एमएसपी की खरीद की गारंटी दे सके। जाहिरा तौर पर भविष्य में निजी कंपनियां मनमाने दाम तय करके ज्यादा मुनाफा कमाना चाहेंगी।

आशंका है कि जब बाजार में निजी कंपनियों का वर्चस्व हो जायेगा तो वे कंपनियों का गठजोड़ बनाकर कीमतें तय करेंगी। उसी कीमत पर किसान अनाज बेचने को बाध्य होंगे। वैसे सरकार के पास भी कोई जरिया नहीं है कि वे निजी कंपनियों को बाध्य करे कि वे एमएसपी पर ही अनाज खरीदें। निस्संदेह एमएसपी किसानों को सुरक्षा कवच प्रदान करती है। वहीं व्यापारी बाजार में मांग व आपूर्ति के सिद्धांत का अनुसरण करता है।

अनुमान है देश में पिच्चासी फीसदी किसान छोटी जोत का है जो खुले बाजार का मुकाबला शायद ही कर सके। कुछ विशेषज्ञ एमएसपी के बजाय किसानों के खातों में सीधी नकद राशि डालने की बात करते हैं ताकि किसान अपनी फसल कहीं भी और किसी भी कीमत पर बेचे। इससे उसकी आर्थिक सुरक्षा भी बनी रहेगी। कुछ विशेषज्ञ परंपरागत फसलों के मुकाबले बाजार की जरूरत की नकदी फसलों का विकल्प चुनने को कहते हैं। बहरहाल, सरकार किसानों की शंकाओं को दूर करे और समस्या का सर्वमान्य हल तलाशे।


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