सम्पादकीय

बिहार में शराबबन्दी और कैदी

Subhi
31 Dec 2021 2:53 AM GMT
बिहार में शराबबन्दी और कैदी
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बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार के इस वक्तव्य को आधुनिक भारत के सामाजिक सन्दर्भों में वैज्ञानिक तर्क से रखने की जरूरत है कि राज्य में लागू नशाबन्दी की वजह से जिन लोगों को बिहार आने में कठिनाई होती है

बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार के इस वक्तव्य को आधुनिक भारत के सामाजिक सन्दर्भों में वैज्ञानिक तर्क से रखने की जरूरत है कि राज्य में लागू नशाबन्दी की वजह से जिन लोगों को बिहार आने में कठिनाई होती है, वे ना ही आयें तो अच्छा है। नीतीश बाबू 21वीं शताब्दी की सच्चाई से भागने का यदि उपक्रम कर रहे हैं तो यह उनकी इच्छा हो सकती है मगर जमीनी हकीकत यही रहेगी कि मद्य निषेध लागू करके समाज को सदाव्रती नहीं बनाया जा सकता। खान-पान का अधिकार व्यक्ति के ऐसे मौलिक अधिकारों में आता है जिससे किसी दूसरे व्यक्ति को कष्ट न हो। इसका सम्बन्ध निजता के अधिकार से भी जाकर जुड़ता है। निश्चित रूप से मद्यपान भारत में ऐसी लत मानी जाती है जिसके साथ कई प्रकार के सामाजिक अपबन्ध जुड़े होते हैं मगर भारतीय संस्कृति में इसका पूर्ण रूपेण निषेध भी नहीं मिलता। वास्तव में यह आर्थिक अवस्थाओं में सामाजिक क्लेश का कारण अधिक मानी जाती है और बिहार की गरीबी को देखते हुए 2016 में नीतीश बाबू ने अपने राज्य में जो नशाबन्दी लागू की थी उसके तार भी इसी से जाकर जुड़ते हैं। मगर नशाबन्दी के चलते बिहार में इसे तोड़ने वालों के ​खिलाफ मुकदमों के अम्बार लगे हुए हैं और जेलों की भी हालत खराब है। इस सन्दर्भ में भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री ए.वी. रमण का वह कथन अत्यधिक महत्वपूर्ण है जो उन्होंने हाल ही में दिया था। इसमें उन्होंने विधायिका से दूरदृष्टि इस्तेमाल करते हुए कानून बनाने की अपील की थी और कहा था कि बिहार में नशाबन्दी कानून के तहत पकड़े गये लोगों की संख्या इतनी अधिक रहती है कि जमानत तक कराने में इन्हें एक साल तक का समय लग जाता है। इसकी वजह यह है कि बिहार की अदालतें ऐसे मुकदमों से पटी हुई हैं। बिहार की पुलिस अभी तक साढे़ तीन लाख के लगभग मुकदमे इस मामले में दर्ज कर चुकी है और चार लाख के लगभग लोगों को पकड़ कर जेलों मे बन्द कर चुकी है। पटना उच्च न्यायालय समेत अन्य अदालतों में कम से कम 20 हजार मामले जमानत के लिए लम्बित पड़े हुए हैं। चालू साल के 11 महीनों के भीतर अकेले पटना उच्च न्यायालय ने ही ऐसे जमानत के 19842 मामले निपटाये अर्थात अग्रिम या सामान्य जमानत की अर्जियां निपटाईं जबकि राज्य स्तर पर विभिन्न अदालतों ने 70 हजार से अधिक जमानत मामलों को देखा। अभी अगर जेलों की स्थिति को लें तो और भी भयावह तस्वीर उभर कर आती है। बिहार में कुल 59 जेलें बताई जाती हैं जिनकी कैदी क्षमता 47 हजार के करीब है। मगर इन जेलों में फिलहाल 70 हजार कैदी बन्द हैं जिनमें 25 हजार कैदी अकेले शराबबन्दी मामलों में ही पकड़े गये हैं।एक अनुमान के अनुसार बिहार की जेलों में बन्द प्रत्येक तीसरा कैदी नशाबन्दी का है। इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि समाज में नशाबन्दी का पालन कानून बन जाने के बावजूद नहीं हो पा रहा है। इसकी असल वजह क्या हो सकती है? सामान्यतः आम नागरिक कानून तोड़ना पसन्द नहीं करता है। खास कर सामाजिक सन्दर्भों में बनाये गये ऐसे कानूनों को जिनका सम्बन्ध उसकी जीवन शैली में सुधार से हो परन्तु शराबबन्दी ऐसा कानून है जो उसे अपने निजी जीवन की प्रणाली पर प्रतिबन्धात्मक लगता है जिसकी वजह से वह उसे तोड़ डालता है। इस मामले में तब स्थिति और भी ज्यादा खराब हो जाती है जब अवैध शराब बनाने या तस्करी करके उसका कारोबार करने के प्रयास होते हैं। अवैध शराब पीने से तो बिहार में ही कई हादसे हो चुके हैं जिनमें सैकड़ों लोगों की जान तक गई है। अतः बात जिद की नहीं बल्कि पूरी समस्या को वैज्ञानिक नजरिये से देखने की है। संपादकीय :झारखंड में सस्ता पैट्रोलचंडीगढ़ की पसंद...कश्मीर में आर्थिक बदलाव!अमर शहीद रमेश चंद्र जी के जन्मोत्सव पर ऑनलाइन संगीतमय भजन संध्या का आयोजनकाले धन के कुबेरहिन्दू-मुस्लिम नहीं भारतीयबिहार से लगे उत्तर प्रदेश में शराबबन्दी लागू नहीं है और बिहार के साथ लगते जिलों के लोग वहां जाकर अपनी लत पूरी करने से नहीं हिचकते। इसके साथ मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी हमे विचार करना चाहिए और फिर ऐसे नतीजे पर पहुंचना चाहिए जिसमें मानवीय कमजोरियों का निर्देशित इलाज संभव हो। इससे पहले 90 के दशक के अन्त में स्व. बंसी लाल ने भी हरियाणा में ऐसा प्रयोग किया था मगर वह पूरी तरह असफल रहा था। कानून बेशक बुराइयां रोकने के लिए ही बनते हैं मगर विचारणीय पहली यह है कि जिस कानून का सम्बन्ध व्यक्ति की निजी खान- पान की आदतों से हो उसके बारे में पहले से ही एहतियात के तौर पर सभी पक्षों पर गंभीरता से विचार कर लिया जाये तो बेहतर होता है। इसके साथ ही हमें अपराध व बुराई में अन्तर को भी देखना होगा। दहेज के बारे में जो कानून इस देश में लागू है उसका दुरुपयोग इसी वजह से होता है कि यह केवल एक पक्षीय है।

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