सम्पादकीय

धर्म की सीमा

Subhi
2 July 2022 6:02 AM GMT
धर्म की सीमा
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मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’। यह पंक्ति हम बरसों से सुनते आए हैं, लेकिन वर्तमान में यह पंक्ति धुंधली होती हुई नजर आ रही है। भारतीय दर्शन में धर्म का अर्थ हमेशा से स्वकर्तव्य पालन के संदर्भ में रहा है और इस दृष्टिकोण से भारतीय समाज में नैतिकता और धर्म, दोनों एक दूसरे से पूरक संबंध में जुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं।

Written by जनसत्ता; मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। यह पंक्ति हम बरसों से सुनते आए हैं, लेकिन वर्तमान में यह पंक्ति धुंधली होती हुई नजर आ रही है। भारतीय दर्शन में धर्म का अर्थ हमेशा से स्वकर्तव्य पालन के संदर्भ में रहा है और इस दृष्टिकोण से भारतीय समाज में नैतिकता और धर्म, दोनों एक दूसरे से पूरक संबंध में जुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं।

महात्मा गांधी, गुरु नानक और ईसा मसीह जैसे महान आदर्श लोगों के जीवन दर्शन में हम धर्म को नैतिकता और स्वकर्तव्य पालन के रूप में देख सकते हैं। धर्म पर टिकी हुई नैतिकता व्यक्ति के विचारों के स्तर पर नहीं, बल्कि उसके मूल्यों और संस्कारों के स्तर पर कार्य करती है और इससे धार्मिक व्यक्ति की नैतिकता में विचलन का खतरा कम होता है। अगर इस आधार पर देखा जाए तो सांप्रदायिक हिंसा करने वाले लोगों में कोई नैतिकता नहीं होती और अनैतिक व्यक्ति का कोई धर्म नहीं होता। वह व्यक्ति अपनी धर्मांधता के आवेश में मात्र धर्म का चोला ओढ़कर अपने किए गए कृत्य को वैधता प्रदान करने का प्रयास करता है।

सांप्रदायिकता और सहिष्णुता की बहस भी इतनी ज्यादा जटिल हो चुकी है कि ज्यादातर विद्वान आजकल इससे किनारा करते हुए दिखाई देते हैं। जो बहसें इससे संबंधित मुद्दों पर होती हैं, उनमें भी ज्यादातर एक दूसरे समुदायों पर आरोप और प्रत्यारोप ही दिखाता है। सांप्रदायिक हिंसा के तौर पर घटित ज्यादातर मामलों में हिंसा के बाद एक समान बात यह निकल कर आती है कि घटनाओं के कारणों को ज्ञात करने से पहले ही एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय के धर्म को एकाएक ही कसूरवार मान लेता है और ऐसी घटनाओं की जड़ें एक दूसरे धर्म में देखने लगता है। जबकि इसका मूल कारण तो धर्मांधता है, न कि धर्म। फिर यह और वीभत्स रूप की ओर आगे बढ़ता है।

इसलिए आवश्यक है कि हमें धर्म को उसके सही अर्थों के साथ अपनी बहसों में शामिल करना होगा और धर्मांधता और धर्म के विभिन्न विभेदों को स्पष्ट तौर पर सामने रखना होगा। वर्षों से हम यह सुनते आए हैं कि कोई भी धर्म हिंसा नहीं सिखाता और सभी धर्मों के धर्मगुरु, धार्मिक ग्रंथ भी यह बात हमेशा कहते पाए जाते हैं कि धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। लेकिन व्यवहार में इसके उलट होता क्यों दिखता है? इसे धर्म और धर्म के संचालक रोक क्यों नहीं पाते? क्यों कुछ लोग धर्म को धर्म के रास्ते पर नहीं चलने दे रहे हैं? ऐसे लोगों की मानसिकता में धर्म के नाम पर हिंसा कैसे घुसती है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? बर्बर कृत्य और अपने दिमागी पागलपन को धर्म का नाम देकर आखिर क्या हासिल करना है? सभ्य समाज न तो बर्बरता सिखाता है और न ही धर्मांधता का पागलपन।

'धर्मांधता की हिंसा' (संपादकीय, 30 जून) ताजा हालात पर करारा प्रहार लगा। आज देश में जिस तरह का माहौल है, उसे किसी भी हालत में उचित नहीं कहा जा सकता है। मुट्ठी भर लोग जिस तरह का जुनून लिए माहौल को हिंसक बनाते हैं, उसे गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। उदयपुर की घटना कट्टरवाद का उदाहरण ही नहीं, तालिबानी रवैये से भी ओतप्रोत लगती है।

दूसरी ओर, अन्य धर्मों में बढ़ती कट्टरता उस धर्म को तालिबानी रास्ते पर ले जाएगी। यह सब कुछ देश के लिए ठीक नहीं है। इस तरह के कदमों से प्रतिस्पर्धात्मक हिंसा को बढ़ावा मिलेगा। सरकार को चाहिए कि वह दोषियों को सख्त सजा के साथ देश में ऐसा माहौल बनाने के लिए आगे आए, जिसमें सद्भाव के साथ ही कानून का भय भी व्याप्त हो।


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