सम्पादकीय

आजादी की सीमा

Subhi
21 Jun 2022 6:22 AM GMT
आजादी की सीमा
x
पिछले कई वर्षों से अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र के नाम पर चल रहे नाटक को देख कर बुद्धिजीवी वर्ग हतप्रभ-सा है।

Written by जनसत्ता; पिछले कई वर्षों से अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र के नाम पर चल रहे नाटक को देख कर बुद्धिजीवी वर्ग हतप्रभ-सा है। क्या अब समय नहीं आ गया कि अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक अधिकारों की भी एक सीमा तय हो, क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो इस तरह के नाटक लगातार होते रहेंगे और सामान्य नागरिक इसमें पिसता रहेगा। कभी हाईवे जाम से, कभी आगजनी से, कभी पत्थरबाजी से, कभी आराध्य देवों के अपमान से।

भारत में बेरोजगारी एक ऐसा विषय है जो सालों से हर राजनीतिक दल के चुनावी मुद्दों की सूची में शामिल रहता है। मगर चुनाव जीतते ही इसे हवा में उड़ा दिया जाता है। पर सही मायनों में देखा जाए, तो बेरोजगारी के कसूरवार सिर्फ राजनीतिक दल नहीं हो सकते। आज के युवाओं में हुनर और प्रतिभा पर विश्वास की कमी दिखाई देती है। रोजगार के क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा से उन्हें अपने चुने गए विषय और मेहनत पर संशय होने लगता है। कम पढ़े-लिखे युवा कहीं भी रोजगार की तलाश कर काम करने लगते हैं। बेरोजगार तो वह व्यक्ति रह जाता है, जिसके पास डिग्रियां तो हैं, पर अपने कौशल पर विश्वास नहीं।

सरकार ने कौशल विकास के लिए योजनाएं बनाई, पर इनका परिणाम कोई खास बदलाव नहीं ला पा रहा है। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में कुछ ऐसे विशेष बदलाव लाने होंगे, जिससे छात्रों को अपने कौशल और ज्ञान पर आत्मविश्वास बढ़े।


Next Story