सम्पादकीय

अंधेरे के बरक्स उम्मीदों के उजाले

Subhi
24 Oct 2022 5:35 AM GMT
अंधेरे के बरक्स उम्मीदों के उजाले
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दीये हमारे मार्गदर्शक होते हैं, क्योंकि जो कोई दीये को अपने पीछे रखते हैं, वे अपने मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं। सच तो यह है कि प्रकाश उस दाता की प्रतिकृति है और हम मानवों के लिए उसकी बहुत बड़ी नियामत है। दीपावली के पंच महोत्सव में दीयों की महत्ता बढ़ जाती है।

विलास जोशी: दीये हमारे मार्गदर्शक होते हैं, क्योंकि जो कोई दीये को अपने पीछे रखते हैं, वे अपने मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं। सच तो यह है कि प्रकाश उस दाता की प्रतिकृति है और हम मानवों के लिए उसकी बहुत बड़ी नियामत है। दीपावली के पंच महोत्सव में दीयों की महत्ता बढ़ जाती है।

दीयों का यह त्योहार केवल प्रकाशोत्सव ही नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत और महान परंपराओं का एक महा-आयोजन भी है। चूंकि यह अंधकार पर उजियारे की जीत का एक जश्न है, इसलिए समस्त देशवासियों के कल्याण और आनंद का स्रोत है। यह हमें संदेश देता है कि दीया तूफान के सामने खड़ा होकर भी अपने प्रकाश को न केवल जीवित रखने की आखिरी हद तक कोशिश करता है, बल्कि उससे अंधकार को भी रोशन करता है।

प्रकाश का कोई विकल्प नहीं है। अगर हम दीये के प्रकाश को ही प्रकाश मानें तो यह एक संकीर्ण सोच होगी। हमारे जगत में 'ज्ञान का प्रकाश' भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना की 'दीये का प्रकाश'। ज्ञान का प्रकाश हमारे जीवन चरित्र का निर्माण करता है। फिर ज्ञान प्रकाश को 'अनुभव की संतान' कहा गया है। ज्ञान प्रकाश ऐसा है, जिसे न तो कोई अग्नि भस्म कर सकती है और न कोई तलवार उसे काट ही सकती है।

इसके समान कोई वस्तु संसार में पवित्र नहीं है। दीये हमें संदेश देते हैं कि जिस प्रकार मैं तूफानों के सामने आखिरी दम तक डट कर खड़ा रहता हूं, उसी प्रकार तुम्हारे जीवन में कितने ही संकट और मुसीबतें क्यों न आएं, तुम भी उनसे डटकर मुकाबला करो। उस समय अपने ज्ञान और आत्मज्ञान के दीये मन में जलाओ और उस अंधकार रूपी संकटों से पूरी तरह भिड़ जाओ।

जो आत्मप्रकाश में जीते है, उनकी हमेशा ही जीत होती है। यह जीवन-यात्रा अंधेरे रूपी संकटों ओैर उजाले रूपी संघर्षों का प्रतीक है। जब कोई प्रकाश से दूर हो जाता है और अंधेरे को ही प्रकाश समझने लगता है तो उसकी सारी जीवन-यात्रा अवरुद्ध हो जाती है। वायजीद नाम का एक फकीर एक बार एक गांव से गुजरते समय रास्ता भटक गया। उसकी जीवन-यात्रा में यह एक अनजान और अनोखी बात थी।

इस बीच उसकी नजर एक बच्चे पर पड़ी, जो एक दीप जलाकर मंदिर जा रहा था। वायजीद ने उसको रोका और पूछा- 'यह दीया किसने जलाया है'। बच्चे ने जवाब दिया- 'यह दीया मैंने ही जलाया है'। उस फकीर ने फिर पूछा- 'क्या यह बात तुम यकीन से कह सकते हो कि ये दीया तुमने ही जलाया है और इस दीये की ज्योति तुम्हारे सामने ही प्रज्ज्वलित हुई है? फिर अब तुम मुझे ये बताओ कि इस दीये की ज्योति कहां से और कैसे आई'?

उस बच्चे ने फकीर की बात बहुत गंभीरतापूर्वक सुनी और उसकी तरफ गौर से देखते हुए एक जोर की फूंक मारी और दीया बुझा दिया। इसके बाद वह बच्चा उस फकीर से बोला- 'ज्योति चली गई और वह भी आपकी आंखों के सामने। अब आप मुझे बताइए कि वह ज्योति कहां गई और कैसे चली गई?' उस बच्चे का यह सवाल सुनकर वह फकीर अवाक् रह गया और बोला- 'बेटा, मुझे बहुत भ्रम था कि मैं जानता हूं कि जीवन कहां से आया और कहां जाना है, लेकिन हकीकत आज जान पाया हूं। जो बड़े गुणीजनों से नहीं सीख पाया, वह मुझे तुम्हारे दीये और उसकी ज्योति ने सिखाया है।'

यह एक अकाट्य सत्य है कि अगर हमारे अंतर्मन में अंधियारा बैठा हो तो उजाले में भी हमारी दृष्टि दूषित ही रहती है। ऐसे में महात्मा बुद्ध की बात याद आती है कि जब एक बार उनके शिष्य ने उनसे पूछा कि जब पृथ्वी पर आप नहीं होंगे, तब हमें मार्ग कौन दिखाएगा, तब भगवान बुद्ध ने कहा था- 'अपना प्रकाश तुम स्वयं बनो'।

आत्मज्ञान के प्रकाश से ही हम हमारी जीवन वैतरणी पार कर सकते है, क्योंकि किसी दूसरे के पीछे आंख मूंद कर चलने से हम गिर भी सकते हैं, इसलिए जरूरी यह है कि अगर हमें मंजिल पर पहुंचना है तो खुद प्रकाशवान होकर उसके प्रकाश में आगे बढ़ना है और यह एक निरंतर अंतहीन यात्रा है। दीपावली के दीये सिर्फ हमें प्रकाश नहीं देते, बल्कि यह भी सिखाते हैं कि आशाओं के दीये हाथ में लिए हम स्वयं के प्रकाश में जीवन-यात्रा जारी रखें, क्योंकि जिस प्रकार दीया स्वयं के लिए नहीं जीता है, उसी प्रकार हम भी दूसरों के लिए जीना सीखें।

एक गीत शायद सबने सुना होगा- 'अपने लिए जिए, तो क्या जिए…।' यही आत्मज्ञान का आत्मप्रकाश भी है। अगर प्रकाश की सही महत्ता जाननी हो तो किसी दृष्टिबाधित व्यक्ति से पूछ कर देखिए। रवींद्रनाथ ठाकुर ने एकदम सही कहा था कि 'प्रकाश जब काले बादलों को चूमता है तो वे स्वर्ग के फूल बन जाते हैं।'


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