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- अंधेरी सुरंग के पार...
मुकेश पोपली; एक लंबा अरसा बीत गया। रोशनी के मायने बदल गए। पहले घरों में छोटे-छोटे लट्टू हुआ करते थे। बहुत जगहों पर तो सिर्फ एक दीया जलता था। उन्हीं की धुंधली रोशनी में घर की मां, दादी, बहुएं धुएं के बीच चूल्हे पर रोटियां बनाया करती थीं और पूरे का पूरा टब्बर (परिवार) वहीं, उस कालिख भरी रसोई में आसन बिछा कर और कभी-कभी ठंडे फर्श पर भी गर्व के साथ बैठ कर भोजन किया करता था। यह भी देख लिया जाता था कि पिताजी और बुजुर्गों ने भोजन कर लिया है या नहीं।
उस भोजन का स्वाद कुछ अलग ही होता था, क्योंकि वह मेहनत की रोटी होती थी और उसके साथ सिर्फ कच्चे प्याज और हरी मिर्च की सब्जी भी बहुत भाती थी। इसका कारण यह भी था कि उसमें प्यार का तड़का लगा होता था। फिर धीरे-धीरे रसोई कुछ-कुछ चमकने लगी। लकड़ी, गोबर और कोयले के स्थान पर कहीं बत्ती वाला, तो कहीं पंप वाला पीतल का स्टोव काम में लिया जाने लगा।
पंप वाला स्टोव आवाज बहुत करता था, इसलिए धीरे-धीरे रसोई से आसन उठने लगे और बाहर आंगन या फिर घर की बैठक में भोजन किया जाने लगा। ऐसे भोजन के समय जब बत्ती चली जाती थी तब एक ढिबरीनुमा दीपक जला लिया जाता था, तो कुछ अमीर घरों में लालटेन से घर में रोशनी कर दी जाती थी। इससे इतना तो समझ में आ ही गया कि घर में अंधेरा अच्छा नहीं होता। कहते भी थे कि अंधेरे में भोजन नहीं करना चाहिए।
फिर समय बदला, इधर रसोई में सिलेंडर आने लगे और उधर चूल्हे से कुकर और दूसरे आधुनिक बर्तन दोस्ती करने लगे। वैसे भी दुश्मनी से किसी को आज तक मिला ही क्या है! फिर भी ऐसे अनेक किस्से हमारे सामने आते हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि हमने घर बैठे ही दुश्मनी पाल ली। कभी अपने पड़ोसियों से, तो कभी रिश्तेदारों से। इस दुश्मनी का कारण सिर्फ इतना है कि तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे। पहले किसी भी पड़ोसी या रिश्तेदार के घर पर नया सामान आता तो सब उसे देखने जुटते थे और आसपास लड्डू बांटे जाते थे।
मगर आजकल लोगों में मुहब्बत कम और ईर्ष्या अधिक है। अगर कोई सक्षम नहीं है तो उसे ताने मारे जाते हैं और अगर कोई सक्षम है, तो उसे घमंडी बताया जाता है। मानवीयता का आवरण ओढ़ कर हम गरीब आदमी की इज्जत सड़क पर उछालते हैं और उसे चोर, लुटेरा कह कर उसे समाज का दुश्मन बना देते हैं।
कभी-कभी तो हम उसे इतना मजबूर कर देते हैं कि वह आत्मघाती कदम भी उठा लेता है, जिसके फलस्वरूप उसका परिवार उजड़ जाता है। हमारे समाज में भूख सबसे बड़ी और गंभीर समस्या है।'रोटी' फ़िल्म में राजेश खन्ना एक संवाद बोलते हैं, 'इनसान को दिल दे, दिमाग दे, जिस्म दे, पर कमबख्त ये पेट न दे…।' यह जीवन की एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता।
बदलती दुनिया में सब कुछ बदल रहा है। रसोई भी बदल रही है और रसोई में बनने वाले व्यंजन भी बदल रहे हैं, लेकिन हमारा पेट नहीं बदल रहा। हम दिन-ब-दिन परिवर्तन की बात स्वीकार करते हैं, विकास की बात स्वीकार करते हैं, लेकिन साथ ही हम विभिन्न व्यंजनों के नाम पर न जाने कितना अनाज बर्बाद भी करते हैं। यह तथ्य भी भुलाया नहीं जाना चाहिए कि कोई भी समाज, भाषा और संस्थान तब तक प्रगति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता, जब तक कि वह वातावरण को सूंघ न ले और फिर उसके अनुसार अपने आप को बदल न ले।
यह परिवर्तन सहज हो, तब कोई परेशानी की बात नहीं है और थोड़ी-बहुत प्रतिस्पर्धात्मक हो तब तक भी ठीक है, लेकिन अगर इसे नाक का सवाल बना लिया जाए, तो मुश्किल ही मुश्किल है। हमारे समाज में आजकल बहुत से काम कुछ इस तरह से किए जाने लगे हैं, जिनसे दुर्भावना साफ झलकती है, क्योंकि इन परिवर्तनों का सीधा असर आम आदमी पर दिखाई देने लगा है।
परिवर्तन वही श्रेष्ठ होता है, जिससे एक बड़ी आबादी को लाभ हो और ज्यादातर लोगों का जीवन सुगम बन सके। बहुत बार यह परिवर्तन हमारे खानपान, रहन-सहन, रीति-रिवाजों को प्रभावित करने लगता है और सामाजिक प्रगति के नाम पर दुर्गति अधिक हो जाती है। बहुत बार अपनी जिद और अनेक बार दूसरे की जिद हमें ले डूबती है और हमारे जीवन का सामंजस्य नहीं बैठ पाता, जिसके कारण हम पर अवसाद हावी हो जाता है। कोशिश की जानी चाहिए कि रोटी भरी थाली भूखे तक बिना किसी रुकावट के पहुंचे। अगर किसी का पेट भरा होगा तो वह रात के अंधेरे में भी उजाले की किरण ढूंढ़ लेगा, वरना उसके लिए पूरी दुनिया में अंधेरा कायम रहेगा।