सम्पादकीय

जिंदगी की राह: पन्ने आखिर पलट ही जाते हैं

Gulabi Jagat
6 April 2022 9:48 AM GMT
जिंदगी की राह: पन्ने आखिर पलट ही जाते हैं
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ओपिनियन
पन्ने किताब के हों, कापी के हों, डायरी के हों अथवा किसी दस्तावेज के आखिरकार पलट ही जाते हैं. जिन्दगी भी असंख्य पड़ावों का नाम है. कहीं थककर रुक जाना और कभी जोश में भरकर चल देना ही इसका काम हैं. लक्ष्य तक पहुंचकर मृत्यु के अंजाम तक जाना इसका उद्देश्य है. प्रथम पन्ना देखते ही शिशु को लगता है कि पूरी किताब कैसे खत्म होगी. पेन्सिल से कापी पर अंक या अक्षर की शुरुआत करते ही विचलित हो जाता है कापी कैसे भरेगी. लड़खड़ाते वाक्यों से बेचैन हो जाता है. सब कुछ याद कैसे होगा पर पन्ने आखिर पन्ने हैं, भरते जाते हैं और पलटते रहते हैं.
जिन्दगी की डायरी भी प्रतिदिन भरती रहती है. पन्ना हर क्षण बदलता रहता है. जैसे सुबह से शाम होना अनिवार्य है ऐसे ही जीवन की शाम भी तीव्रगति से आ जाती है. प्रेम की हो या घृणा की, खट्टी हो या मीठी, सरस हो या नीरस एक मोड़ पर आकर सब कुछ रूक ही जाता है। कल की ही बात लगती है जब जिन्दगी की शुरुआत करते हैं. बचपन,जवानी,बुढ़ापा अपनी तहों में दबा होकर भी किस तीव्रता से निकलकर अपने मुकाम पर पहुंचकर ठंडी सांसें लेने लगता है पता ही नहीं चलता.
हर क्षण का बदलाव जिन्दगी की चाल कोे गतिमय बनाता है और ठहराव शान्त कर देता है,बेचैन कर देता है. बचपन की कोमलता, शैशव की चंचलता, कौमार्यावस्था की अल्हड़ता, प्रौढ़ावस्था की गम्भीरता और वृद्धावस्था की विकलता शनैः-शनैः कब अपने मुकाम पर पहुंचकर पूर्णता को प्राप्त होती है, ज्ञात ही नहीं होता. इन अध्‍यायों को पूरा करने में कुछ व्यक्ति कर्म करते हैं, कुछ कर्मों में आसक्त हो जाते हैं तो कुछ आसक्ति रहित होकर जीवन यापन करते हैं. कुछ प्रसन्न रहते हैं, कुछ दुविधा ग्रस्त रहते हैं, कुछ अभिमानी हो दूसरों को अस्तित्व हीन ही समझते रहते हैं. दिन-प्रतिदिन कर्म करके आजीविका की सन्तुष्टि से प्रसन्न रहते हुए अन्त में कर्मचक्र के आंकड़े सामने आने शुरु हो जाते हैं.
स्व की प्रमुखता से दूसरों को सारी जिन्दगी कष्ट दिया. देने का भाव ना होकर छीनने का ही रहा. कत्लेआम किया. कुदृष्टि से सम्मान को ठेस पहॅंचाई. रिश्तों की परवाह नहीं की. उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रखा. पद के अहंकार में सामने वाले का तिरस्कार किया. मनमानी की. पर अन्त में कर्मों का हिसाब तो देना ही पड़ा. जीवन भर कमाया लोभ, मोह, झूठ कुछ काम नहीं आया. कष्ट आये तो फिर शिकायत किससे और क्यूं? परिश्रम करके भोग किया या सिर्फ भोग ही किया, त्रास दिया, दु:ख दिया. जीवन तो कट ही गया. ऐसे निष्फल जीवन का क्या प्रयोजन जो किसी के काम ही ना आ सका? वन्दन मिला ना अभिनन्दन,अपनों का प्यार मिला ना गैरों की नफरत. जीते जी किसी के प्यार के लायक ना रहे और मरने के बाद भी सबके मन में तिरस्कार का भाव.आततायी आतंकी के मारे जाने की खबर से दिल को सुकून मिला. उपेक्षित भाव से अन्तिम विदाई.
एक तरफ किसी ने सारी जिन्दगी दूसरों की सेवा में लगा दी, जन सेवा की, देश सेवा की. तन से साथ दिया, मन से दूसरों के दु:खों में रोये, सुखों में हॅंसे. लोगों को अपना वक्त दिया. निःस्वार्थ भाव से जीवन व्यतीत किया. अन्त आया तो सैकड़ों ऑंखों से गिरते आँँसुओं ने जीवन सफल कर दिया. हर दिल रोया. एक-एक पल का वाणी ने जिक्र किया. जन्म सफल हो गया.आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर तो फिर सत्कर्म क्यों नहीं?
हमारे जीवन के पन्ने कर्मों के अदृश्य शब्दों से भरे होते हैं जो हमें प्रभावित करने, सजा या पुरस्कार देने में सक्षम होते हैं. इन पन्नों पर हमारी ही कहानी होती है. कुछ पर वक्त की मार होती है तो कुछ पर प्यार होता है. हमारी कहानी हमारे कर्मों द्वारा ही कही जाती है. ये कहानी कभी खत्म ही नहीं होती. हर पल ये संसार बहता जा रहा है और हम जीव निरन्तर इसके बहाव में खुद को डुबोते रहते हैं.
संसार की परिवर्तनशीलता हर क्षण एक नया अध्याय जिन्दगी में जोड़ देती है.अखबार के पन्ने हर दिन नये किस्सों से हमारा सामना करातें हैं. कभी उदास है जिन्दगी तो कभी खुशहाल, कभी शान्त है तो कभी मुखर, कभी चाह है तो कभी वैराग. हर विषयवस्तु में समय के अन्तराल से बदलाव होता रहता है. सम्बन्ध हो व्यवहार हो, प्रयास हो परिस्थितियां हो, प्रथाएं होंं या कार्यविधियां हो, व्यक्तिगत अवधारणा हो या सामाजिक संरचना, परिवर्तन निश्चित है.
पुरानी हर व्यवस्था समाप्त होती है और नयी रचनाओं व व्यवस्थाओं की स्थापना होती रहती हैंं. निरन्तर परिवर्तन विकास की ओर ले जाता है. हर क्षण का बदलाव प्रगति का सूचक है. कभी मन की भावनाएं सुप्तावस्था में होती हैं तो कभी आवेग में, कभी जाग्रत हो पूर्णता की प्राप्ति करती हैं. हर क्षण के बदलाव में अपने जीवन को सुखद अहसासों से भरकर रखने से हमारे हर पन्ने हमारी अंतर्रात्‍मा को जीवन्त बनाए रखते हैं. मन की यह सोच कि यह दुनिया ही सर्वस्व है इसमें लिप्त हो हर उस गतिविधि को अंजाम देना जो स्वार्थ से भरी हो या जनहित में नहीं हो अविवेकपूर्ण है. परिवर्तन और शाश्वतता को दृष्टि में रखते हुए को सद्गुणों से युक्त जीवन व्यतीत करना सबके हित में है और यही उचित भी है.
सभी जानते हैं कि शैशवावस्था से मृत्यु तक का सफर कंटकपूर्ण है, घुटनों के बल रेंग-रेंगकर चलने से लेकर अपने पैरो पर खड़ा होना और फिर कमर का झुक जाना, ऑंखों का धुंधला होना, शरीर का शिथिल होना, हँसती, सिसकती जिन्दगी को अपने अन्जाम तक पहुँचाता है. किसी का भी जीवन यहाॅं सदैव के लिए बस जाने के लिए नहीं है, फिर दूसरों के जीवन का फैसला क्यॅूंं स्वार्थ में भरकर आततायी करते हैं? क्या उन्हें इस धरती से नहीं जाना? क्यूॅं आतंक फैलाकर दुनिया का अन्त करने की लालसा रखते हैं?
संयम, परोपकार, त्याग, दया, सहिष्णुता, विनम्रता के साथ भोग करते हुए समरसता को प्राप्त नहीं होते. तीव्र हवा के झोंकों के साथ गुजरती जिन्दगी को शीतल, मन्द, सुगन्धित समीर की आवश्यकता है, जिससे हमारी जिन्दगी के अध्याय हर कदम पर सब पढ़ सकें. सच्चाई से परिचित हों. ये जिन्दगी प्यार के लिए है नफरत के लिए नहीं क्योंकि ये शाश्वत सत्य है कि पन्ने तो पलट ही जाते हैं और अध्याय समाप्त हो जाते हैं.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

रेखा गर्ग लेखक
समसामयिक विषयों पर लेखन. शिक्षा, साहित्य और सामाजिक मामलों में खास दिलचस्पी. कविता-कहानियां भी लिखती हैं.
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