सम्पादकीय

जिंदगी या जिंदादिली

Rani Sahu
5 July 2023 7:06 PM GMT
जिंदगी या जिंदादिली
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बहुत वर्ष पहले रोटरी क्लब का एक आदर्श वाक्य हुआ करता था। वह वाक्य वस्तुत: एक प्रार्थना है जिसे नॉर्मन विंसेट पील नामक विश्वविख्यात कवि ने लिखा था और यह इतनी अर्थपूर्ण है कि सारे जीवन का फलसफा उसमें समाया हुआ है। वह आदर्श वाक्य है .. ‘हे प्रभु, मैं जिन चीजों को बदल नहीं सकता, मुझे उन्हें सहन करने की शक्ति दीजिए, जो बदल सकता हूं उसे बदलने का साहस दीजिए और इन दोनों का अंतर जानने की समझ दीजिए।’ इस प्रार्थना के तीन भाग हैं .. पहला, हम उन चीजों को बर्दाश्त कर सकें जिन्हें हम बदल नहीं सकते। दूसरा, जो चीजें सही नहीं हैं और हममें उन्हें बदल सकने की क्षमता है तो उन्हें बदलने पर होने वाले विरोध को झेल सकें, आलोचना को झेल सकें और अपना पद गंवाने की आशंका को झेल सकें या पद गंवाने को तैयार रहें, और तीसरा, हममें वह विवेक आ जाए कि हम यह समझ सकें कि हम क्या बदल सकते हैं और क्या नहीं। अक्सर होता यह है कि जो व्यक्ति या चीजें हमें पसंद नहीं हैं और हम उन्हें बदल नहीं पाते, उनको लेकर हम कुढ़ते रहते हैं, झुंझलाते रहते हैं और अक्सर हम दूसरे लोगों के सामने अपनी भड़ास भी निकालते हैं। इससे कई नुकसान होते हैं। पहला नुकसान तो यह है कि हम कुढ़ कर, झुंझला कर खुद को तनाव में ले आते हैं और अपनी सेहत खराब करते हैं। दूसरा नुकसान यह है कि लगातार तनाव में रहने के कारण हमारी कार्यक्षमता घटती है, काम की गुणवत्ता घटती है और हम अपने सहकर्मियों ही नहीं, धीरे-धीरे खुद अपनी नजरों में भी गिरते हैं।
तीसरा नुकसान यह है कि यदि हम किसी व्यक्ति को या उसके कामकाज के तरीके को पसंद नहीं करते, पर अगर हम उन्हें बदल नहीं सकते तो साधारणतया हम उनकी पीठ पीछे उनकी बुराई करेंगे, और जब हम किसी की पीठ के पीछे उसकी बुराई करते हैं तो यह हमारी अपनी कमजोरी को दर्शाता है, ऐसा करके हमें कोई लाभ भी नहीं होता, बल्कि हम हम अपनी शक्तिहीनता का ढिंढोरा खुद पीटते हैं, जिससे लोगों की निगाह में हमारा आदर घटता है। सो, अगर हम ऐसी चीजों या व्यक्तियों को बर्दाश्त करना सीख लें और उनके बारे में धनात्मक दृष्टिकोण अपनाएं तो इन सारी लानतों से बच सकते हैं। जीवन जीने या घसीटने, और जिंदादिली से जीवन जीने में यही अंतर है। जब हम किसी ऐसे पद पर या मुकाम पर हैं जहां हम उन चीजों या व्यक्तियों को बदल सकते हैं, जो गलत हैं या नहीं होने चाहिएं या समाज के लिए हितकर नहीं हैं, उन्हें भी बदलने में कई बार इसलिए हिचकिचाते रहते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि कमियों और गलतियों के बावजूद उस वस्तु, कार्यविधि अथवा प्रक्रिया (प्रोसेस) या व्यक्ति को बदल पाना संभव नहीं है क्योंकि हमारे उच्चाधिकारी, सहकर्मी अथवा समाज या तो हमारे विचार से सहमत नहीं हो पायेंगे या फिर उन्हें यह विश्वास नहीं हो पायेगा कि एक बार बदलने के बाद हम उसे बदला हुआ रख सकेंगे, या यह कि बदलने पर नई कठिनाइयां आयेंगी जो अभी की कठिनाइयों से भी ज्यादा बड़ी हो सकती हैं। विरोध का भय, कठिनाइयों का भय हमें जकड़ लेता है और हम अपंगों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। साहस की कमी के कारण हम वह नहीं कर पाते जो करना चाहते हैं, बावजूद इसके कि हममें वह करने की क्षमता या शक्ति है।
इसके विपरीत जब हम धीरज के साथ स्थिति का सांगोपांग विश्लेषण करते हैं, लोगों को अपना पक्ष बताते हैं और उनकी सहमति लेने का प्रयास न केवल करते हैं बल्कि जारी रखते हैं, लोगों की सहमति लेने के लिए कार्ययोजना बनाते हैं, उसकी खूबियों-खामियों का विश्लेषण करते हैं, उसकी कमियां दूर करते हैं और फिर अपनी सदिच्छा का विश्वास दिलाकर या फिर सीधे-सीधे विरोध की परवाह किये बिना अंतत: उन चीजों को बदल डालते हैं जो हानिकारक हैं तो हम अपने साहस का परिचय देते हैं। जीवन जीने या घसीटने, और जिंदादिली से जीवन जीने में यही अंतर है। यह सच है कि हम कुछ भी कर लें मानव के रूप में हमारी कुछ सीमाएं अवश्य रहेंगी, कुछ मर्यादाएं अवश्य रहेंगी और हमें उन सीमाओं में रहना होगा या उन मर्यादाओं का पालन करना होगा। जब हम उन मर्यादाओं के साथ जीना सीख लें और उसमें भी प्रसन्न रहें तो जीवन खुशहाल हो सकता है अन्यथा जीवन एक बोझ बन जाता है और हम चिड़चिड़ाने लगते हैं। एक बहुत पुराना चुटकुला है कि एक कुंवारा व्यक्ति अपनी होने वाली पत्नी की कुंडली लेकर एक ज्योतिषी के पास गया और अपने भविष्य के वैवाहिक जीवन के बारे में पूछा तो उसे जवाब मिला कि शादी का पहला साल बहुत कठिन होगा और उसके बाद सब ठीक हो जाएगा। तो उस व्यक्ति ने ज्योतिषी से पूछा कि क्या एक साल के बाद उसकी पत्नी सुधर जाएगी और उसका कहना मानने लगेगी तो उत्तर मिला कि ऐसा तो नहीं होगा, लेकिन उसे ही अपनी पत्नी के साथ जीवन जीने की आदत पड़ जाएगी।
लब्बोलुआब यह कि जब हम जीवन की कठिनाइयों और विसंगतियों के साथ खुशी-खुशी रहना सीख लेते हैं तो जीवन उत्सव बन जाता है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि हम कठिनाइयों के बावजूद, कमियों के बावजूद, असहमतियों के बावजूद खुशी-खुशी रहना सीखते हैं, तभी ऐसा हो पाता है कि हम जीवन का आनंद ले सकें, अपनी जीवंतता बरकरार रख सकें, खुद खुश रह सकें और दूसरों को खुश रख सकें, खुद भी निराश न हों और अपने आसपास के लोगों में भी आशा का संचार कर सकें। जब ऐसा हो जाता है तो जीवन सुखमय बन जाता है। जीवन जीने या घसीटने, और जिंदादिली से जीवन जीने में यही अंतर है। जिंदादिल इनसान या हंसमुख होता है, वह जीवन की छोटी से छोटी खुशी का भी पूरा आनंद लेता है, वह आसपास के लोगों के जीवन में भी आशा का संचार करता है और उन्हें खुश रहने के तरीके सिखाता है, वह अपने आप में एक उदाहरण है, जीवन का संबल है और प्रेरणा का स्रोत है। जिंदादिल इनसान बिना बात, या बात-बेबात खीझता नहीं, झींकता नहीं, किसी की आलोचना नहीं करता, खुद से निराश नहीं होता, स्थितियों से निराश नहीं होता, पूरे मन से काम करता है और काम का भी आनंद लेता है, खुशमिजाज होता है और आसपास खुशियां बिखेरता रहता है। जीवन जीने और जिंदादिली से जीवन जीने में यही अंतर है। इसे समझना ही हमारी आवश्यकता है, और इसे समझना ही हमारी सफलता है।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ई-मेल: [email protected]
By: divyahimachal
Rani Sahu

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