- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- जीने का नाम जिंदगी
रमेश चंद्र मीणा; हमारे आसपास बहुत कुछ अनुकरणीय, प्रेरणादायी होता है। कुछ शब्द, वाक्य और सूक्तियां या फिर कविता की पंक्तियां हमें मार्ग दिखा जाती है। बेशक जीवन जटिल, दुर्गम और संघर्षमय है। जीवन की गलियां सीधी-सपाट और सुगम नहीं हुआ करती हैं। यह बात जानते-समझते हुए भी सभी कई बार जीवन की भूलभुलैया में भटक जाया करते हैं। हर सफल व्यक्ति ने कितने पापड़ बेले होते हैं, यह दूसरे नहीं जान पाते। गांधी हों, बुद्ध या अन्य, उनके अनथक संघर्ष का ही परिणाम होता है, उनका एक मुकाम पर होना।
एक कविता की पंक्तियां हैं- 'अभी जिस हाल में हूं/ उसमें बची रह गई तो भी बच जाऊंगी।' इसमें 'हाल', 'बच', और 'बची' शब्द कविता को गहराई देते और सोचने पर मजबूर कर देते हैं। कवि केदारनाथ सिंह कहते थे- नई कविता पाठ करने के तरीके से समझ आती है। कविता के अर्थ कुछ शब्दों में छिपे होते हैं, जिन्हें पाठक पाठ करते हुए ही समझ पाता है। इस अर्थ में कविता में महज तीन शब्द, जो कि सामान्य हैं, बाकी शब्द रोजमर्रा के होते हुए भी, अर्थ गंभीरता लिए हुए हैं। कोई शब्द जब एक बार निकलता है तो धनुष से निकले तीर की तरह दूर तक जाता और लक्ष्य भेदन करता है।
आदमी जीता क्यों हैं? यह शाश्वत सवाल है, जिससे हर दौर में विचारवान मुठभेड़ करते रहे हैं। संत, अध्येता और व्याख्याता मनन-मंथन करते रहे हैं। जीवन दुखमय है। इस जीवन सत्य को जान कर ही बुद्ध महल, स्त्री सुख का त्याग कर जंगल चले जाते हैं। बुद्ध त्याग, तपस्या से जीवन के रहस्य को ही जान रहे होते हैं। हर उस व्यक्ति ने जीवन के रहस्य को जानने का प्रयास किया है, जिसने अपने आप से ऊपर उठ कर सोचा/ किया है। यानी जो भी अपने तर्इं, निहित स्वार्थ से मुक्त हुआ है, वह चिंतन के धरातल पर कुछ नया दे गया है। यह क्रम सतत जारी है। कालिदास रहे हों, तुलसीदास या कबीर, सबके चिंतन में जीवन के यही रहस्य खुलते हैं।
आदमी जीता क्यों है? इस सीधे-सरल से दिखने वाले सवाल का जवाब लगातार खोजा जा रहा है। कविता की पंक्ति है- 'बची रह गई तो' वाक्य में अपने आप से सवाल है। यहां आया- 'तो' भी मानीखेज है। पहली बात तो यह है कि कवयित्री जितनी विकट हाल में है, उसमें बचे रहने की संभावना ही नहीं है। फिर भी अगर जी गए, जीते रह गए तो फिर जी ही जाऊंगी! यह उसकी जिजीविषा है, जो जिला ही लेगी।
यह शाश्वत सत्य है कि जीवन दो शब्दों के आसपास है- संघर्ष और जिजीविषा। इन दो शब्दों को समझना हर किसी के वश में नहीं होता। हम देखते हैं- हर दिन घटित होती घटनाएं, आत्महत्या करते युवा, अधेड़, गरीब-अमीर, बेरोजगार, किसान, यहां तक कि नौकरीपेशा होकर भी लोग जीवन से मोह छोड़ बैठते हैं। ऐसे हालात जो यकायक बनते हैं, जिसकी तरफ इशारा किया है कि जब बनते हैं हालात तो दिमाग कुंद हो जाया करता है। ऐसे समय में थोड़ा-सा चिंतन, चेतना, सूक्ति कथन या ऐसी पंक्तियां भी राह दिखा दिया करती हैं।
यह सच है कि सघन अंधेरे के बाद ही उजाला आता है। जीवन में उतार-चढ़ाव आने ही हैं। व्यक्तिगत जीवन में या इस दुनिया में हर दौर में अनहोनी होती रही हैं। कभी ऐसा भी घटित होता है जैसा पहले कभी नहीं हुआ होता। फिर भी जीवन और जगत चलता रहता है। पर ऐसे भी हैं, जो जीवन से हार जाते हैं, अपनी जीवन लीला खत्म कर बैठते हैं। कारण? हालात! ये हालात, ये समस्याएं ही हंै, जिनके सामने कुछ घुटने टेक देते हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो फिर उठ खड़े होते हैं। इतना-सा ही तो फर्क है जीवन और मृत्यु में। समाजशास्त्री दुर्खाइम का कथन है- अगर उस पल से आत्महंता को निकाल लिया जाए तो वह आत्महत्या नहीं कर सकेगा, अगर उस पल में अन्यों का सहारा मिल जाए। ऐसे विचार गं्रथों, महाकाव्यों, संतों की वाणियों में भरे पड़े हैं।
ऐसे विपरीत हालात में भी अगर- 'बची रह गई तो' फिर बच ही जाना है। विकट हालात में भी अपने को बचाए रख सकता है, वही बच पाता है। जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम रहा है। इसी पंक्ति की तरह है एक गीत के बोल- 'जितने तुम प्यार में जी लोगे, उतनी ही जिंदगी।' जीवन चलते रहने का ही नाम है। हम जीवन कैसे जीते हैं? और विकट समय में कैसे उठ खड़े होते हैं! जीवन के फलसफे को समझना होता है। बीज भी पेड़ तभी बनता है जब वह अंधेरे में दफ्न होता है। एक दर्द, संघर्ष से गुजरना ही होता है तो यकायक आ जाने वाली आफतें अगर झेल ली जाएं तो जीवन फिर से चल पड़ता है। इसलिए यह सामान्य-सी दिखने वाली पंक्ति कितनी गहरी, सारगर्भित, हौसला देने वाली है!