सम्पादकीय

कोविड की सीख से जिंदगी लंबी संभव, सरकारें स्कूलों में भी साबुन-पानी की सुनिश्चितता करें

Gulabi
26 Feb 2022 8:26 AM GMT
कोविड की सीख से जिंदगी लंबी संभव, सरकारें स्कूलों में भी साबुन-पानी की सुनिश्चितता करें
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कोविड की सीख से जिंदगी लंबी संभ

डॉ चन्द्रकांत लहारिया का कॉलम:

पिछली दो सदियों में दुनिया भर में लोगों की जीवन-प्रत्याशा तेजी से बढ़ी है। लेकिन इसका सबसे बड़ा श्रेय चिकित्सा विज्ञान की प्रगति या अस्पतालों को नहीं, बल्कि जन-स्वास्थ्य पहलों और बीमारियों से बचाव के तरीकों- जैसे साफ पानी और पेयजल की उपलब्धता, स्वच्छता तथा कचरा प्रबंधन और लोगों द्वारा व्यक्तिगत साफ-सफाई जैसे नहाना और हाथ धोने पर अधिक ध्यान- को जाता है।
बात अटपटी लग सकती है लेकिन आज से करीब 200 साल पहले तक लोग नियमित रूप से नहीं नहाते थे। नहाने की बात छोड़ दें, हाथ धोना भी आम बात नहीं थी। यहां तक कि अस्पतालों में डॉक्टर बिना हाथ धोए ऑपरेशन तक करते थे। फिर 1847 में, हंगरी के चिकित्सक इग्नाज सेमेल्विस ने शोध आधारित प्रमाण दिए कि डॉक्टरों और अन्य कर्मचारियों द्वारा नियमित रूप से और विशेषकर शल्य प्रक्रिया करने से पहले हाथ धोने से संक्रमण को रोका जा सकता है और ऐसा करने पर मरीज जल्दी ठीक होकर घर जाते थे।
इसके दशकों बाद, आधुनिक नर्सिंग की संस्थापक कही जाने वाली फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने इटली के अस्पताल- जहां वो काम करती थीं- में हाथ धोने और अन्य स्वच्छता प्रथाओं को लागू किया और इसका नतीजा मरीजों के जल्दी ठीक होने के रूप में मिला। इन दो पहलों के परिणामस्वरूप दुनिया भर में अस्पतालों में हाथ धोने और अन्य स्वच्छता-उपायों अपनाने में वृद्धि हुई। फिर, 1940 के दशक में स्कूली बच्चों पर किए गए एक शोध ने साबित किया कि खाने से पहले हाथ धोने से कई बीमारियों से बच सकते हैं।
और भी शोध आए कि हाथ धोने से स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति में सुधार होता है। इसके बाद, कई देशों में और करोड़ों लोगों के लिए हाथ धोना एक प्रथा-सी बन गई; लेकिन नियमित रूप से हाथ धोने वाली आबादी का अनुपात कम ही रहा। 1980 के दशक में, जब कुछ खाद्यजनित प्रकोपों व स्वास्थ्य संबंधी संक्रमणों के बाद अमेरिका में पहले राष्ट्रीय स्तर पर अनुमोदित हाथ स्वच्छता दिशानिर्देश जारी किए गए और दुनिया भर में हाथ धोने का स्वास्थ्य से सम्बन्ध की ओर ध्यान गया।
पिछले कुछ दशकों में- साबुन से हाथ धोने की- बीमारियों को रोकने में भूमिका सिद्ध हो गई है। शोध दर्शाते हैं कि समुदाय में हाथ धोने की शिक्षा ने 3 में से 1 डायरिया/दस्त की बीमारी और 5 में से 1 सांस संबंधी बीमारियों, जैसे सर्दी या फ्लू रोकने में मदद की है। हाथ धोने की आदत के सामाजिक पहलू भी हैं। कई घरों में कपड़े, बर्तन धोने या नहाने के लिए साबुन मिलता है, लेकिन हाथ धोने के लिए नहीं। हाथ धोना व्यावहारिक कारकों व सामाजिक मानदंडों पर भी निर्भर करता है।
जन-स्वास्थ्य और स्वच्छता कार्यक्रमों की शुरुआत करीब 200 साल पहले हैजे की महामारी के साथ हुई थी। विब्रियो कोलेरी नामक कीटाणु से होने वाली यह बीमारी गंदगी और दूषित पानी से फैलती है। 1817 में दुनिया में पहली हैजा महामारी की शुरुआत हुई, जो कई देशों तक फैली। उसके बाद हर दस से बीस साल में कॉलेरा की महामारी लौटती रहती थी। इस महामारी के चलते ही स्वच्छता के बारे में अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन हुए और सरकारों का ध्यान स्वच्छता और पेयजल सुधारों पर जाने लगा।
कोविड फैला तो एक बार फिर साबुन से हाथ धोने के महत्व को समझा गया। अब जब स्कूल खुल रहे हैं तो समय आ गया है सरकारें स्कूलों में भी साबुन-पानी की सुनिश्चितता करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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