सम्पादकीय

जीवनदाता या आंदोलनजीवी!

Gulabi
30 Dec 2021 4:51 AM GMT
जीवनदाता या आंदोलनजीवी!
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युवा डॉक्टरों का सेवा-बहिष्कार का उद्घोष औसत मरीज और देशहित में नहीं है
दिव्यहिमाचल. युवा डॉक्टरों का सेवा-बहिष्कार का उद्घोष औसत मरीज और देशहित में नहीं है। यह पेशेवर नैतिकता भी नहीं है। दूसरी तरफ सरकार और मेडिकल काउंसिलिंग कमेटी को भी कोरोना-योद्धाओं के खिलाफ इतना संवेदनहीन नहीं होना चाहिए। यह डॉक्टरों की हड़ताल की आदर्श स्थिति नहीं है। देश में अब भी कोरोना-काल है। प्रधानमंत्री मोदी ने ही इस जमात की सेवाओं और प्रतिबद्धता के मद्देनजर हेलीकॉप्टर से फूलों की बरसात कराई थी। देश को ताली-थाली बजाकर उनका सम्मान करने का आह्वान किया था। यदि रेजिडेंट डॉक्टर नीट-पीजी काउंसिलिंग के मुद्दे पर अड़े हैं, तो उसका समाधान ढूंढा जा सकता है। बेशक कोरोना-काल में कई परीक्षाएं स्थगित करनी पड़ी थीं, लेकिन यह सर्वथा भिन्न विषय है, जो डॉक्टरांे के पेशेवर हुनर और कौशल से जुड़ा है। अंततः ये कौशल ही आम आदमी की जि़ंदगी बचा सकते हैं। नीट-पीजी काउंसिलिंग में पहले ही करीब 8 माह का विलंब हो चुका है। नतीजतन मेडिकल कॉलेज और पीजी संस्थानों में करीब 60,000 जूनियर डॉक्टरों की कमी है। ये डॉक्टर ही भारतीय अस्पताल और चिकित्सा ढांचे की बुनियादी ताकत हैं। इसके कारण ही गंभीर मरीजों के इलाज और ऑपरेशन भी प्रभावित हो रहे हैं। मरीजों के परिजन एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक धक्के खाने को विवश हैं, लेकिन सुनना पड़ता है कि डॉक्टर हड़ताल पर हैं। क्या जीवनदाता को भी जनता और मरीज से विमुख होकर अनुपस्थित होना चाहिए? देश के 542 मेडिकल कॉलेज और विभिन्न पीजी संस्थान ही इतने डॉक्टर पैदा करते हैं कि वे 6 लाख से अधिक बिस्तरों का प्रबंधन कर सकते हैं। इन्हीं के तहत अस्पतालों के सबसे बड़े समूह हैं, जिनमें अधिकतर आईसीयू बिस्तर उपलब्ध हैं। वे ही अत्यंत गंभीर मरीजों का इलाज करने में सक्षम हैं। इन्हीं अस्पतालों में 2 लाख से ज्यादा युवा डॉक्टर विभिन्न विशेषज्ञताओं में इंटर्नशिप या पीजी टे्रनिंग कर रहे हैं।
आईसीयू में कोरोना के गंभीर मरीजों की ज्यादातर देखभाल युवा डॉक्टर और नर्सें ही करते हैं। बेहद महत्त्वपूर्ण सवाल है कि वही युवा डॉक्टर आज सड़कों पर आंदोलित है। पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा है। सर्द, कंपकंपाते मौसम की रात में उन्हें हिरासत में रखा जाता है। ऐसी नौबत क्यों आई है? सरकार प्राथमिकता के स्तर पर मंथन करे कि वे जीवनदाता हैं या महज आंदोलनकारी अथवा उससे भी बढ़कर आंदोलनजीवी हैं? क्या तब तक सरकार निष्क्रिय रहेगी, जब तक कोरोना की नई, तीसरी लहर में 1.5-2 लाख संक्रमित केस रोज़ाना न आने लगें? जिस तीव्रता के साथ ओमिक्रॉन स्वरूप का संक्रमण भारत में फैल रहा है, उसके मद्देनजर महामारी विशेषज्ञों की आशंकाएं पुख्ता होती जा रही हैं कि जनवरी, 2022 के अंतिम सप्ताह तक कोरोना की तीसरी लहर देश में स्पष्ट होगी। 'पीक' के बारे में सोचना फिलहाल जरूरी नहीं है, क्योंकि मौजूदा संक्रमण एक लहर में तबदील होने लगता है, तो अस्पतालों पर बोझ बढ़ना स्वाभाविक है। बेशक ओमिक्रॉन अपेक्षाकृत हल्के लक्षणों का वायरस है, लेकिन जब संक्रमित केस धड़ाधड़ दर्ज होने लगते हैं, तो अस्पतालों में भर्ती होकर इलाज कराने वालों की दर भी बढ़ने लगती है। उस स्थिति में अस्पतालों में डॉक्टर नहीं होंगे, तो महामारी नई करवट भी ले सकती है। देश जानता है और उसने कोरोना के 'चरम' के दौरान देखा भी है कि हमारे सरकारी अस्पताल और डॉक्टरों को बेहद दबाव में काम करना पड़ा था। सरकार को भी नरम रुख से सोचना पड़ेगा।
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