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- आम को चाटकर खाएं

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आम के सीजन में उसकी दुविधा इसको खाने के तरीके पर हमेशा रही है। इस बार भी वह यह तय नहीं कर पा रहा कि आम को काटकर खाए या चूस कर। वह लोकतांत्रिक तरीके से सोचता है तो न चूसना सही लगता और न ही काटकर खाना मुनासिब होता। वैसे भी अपने भोजन की प्रक्रिया में वह पूरी तरह सरकार पर निर्भर है, इसलिए मुफ्त के अनाज को निगलना सीख गया है। एक बार उसने सोचा कि क्यों न आम को भी पूरी तरह निगल ले, लेकिन इसका आकार बता रहा था कि यह कई कृषि-बागबानी विश्वविद्यालयों के अनुसंधान से निकला उत्पाद है, इसलिए इसे निगलना आम आदमी के वश की बात नहीं। वैसे इसे निगल निगल कर ही चखा गया है ताकि देश का अनुसंधान यह बता सके कि ‘आम’ को ‘खास’ बनाने में हमारे विश्वविद्यालय कितनी मेहनत कर रहे हैं। देश की नीतियां जहां कहीं भी निगल सकती हैं, हरसंभव कोशिश करती हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि आम आदमी भी इसका अनुसरण करे। निगलना एक खास परिपाटी है, अभ्यास है। यह भी एक तरह की प्रतियोगिता है, जो वर्षों तक सरकारी सेवा में बने रहने का एहसास है। हम क्या खाक निगलेंगे, लेकिन हमारा भी प्रयास-अभ्यास जारी है। कितने ही मच्छर हम यूं ही निगल जाते हैं, फिर भी आज तक डेंगू के स्वाद का पता नहीं चला, जबकि देश की नीतियां हमारे कान में भिनभिना के पूछती रहती हैं, बल्कि कई बार तो कह भी देती हैं, ‘आया स्वाद।’ खैर वह समझ गया कि निगल कर स्वाद बताना उसकी क्षमता से फिलहाल बाहर है, ‘कल कहीं गलती से सरकारी नौकरी मिल गई, तो पहला काम हर स्वाद के लिए निगलना शुरू करेगा।’ वह बाजारों में आम की सजावट देखकर दंग हो रहा था, तभी मन में विचार आया आम के कलात्मक पक्ष को लेकर, ‘आम को तोडऩा ज्यादा कलात्मक है या इसे बेचने की वजह। आम को खाना भी अगर कलात्मक हो जाए, तो दुविधा मिट जाएगी।’
उसने मन ही मन सोचा कि खाने का शिष्टाचार आखिर आम को ही क्यों फंसा रहा है, जबकि जो लोग खाने के सलीके में नहीं बंधे, पूरा स्वाद ले रहे हैं। उसने सोचा कि पहले यह पता कर लिया जाए कि खाने की तह•ाीब में कितने तरीके संसदीय और कितने असंसदीय हैं। डर उसे यह भी था कि कहीं आम खट्टा निकल आया और अगर गलती से इसे निकम्मा कह दिया, तो यह असंसदीय हो जाएगा। उसे इतना मालूम था कि यह आम किसके बागीचे का था, लेकिन वह ‘जयचंद’ के बागीचे से आया बताता तो संसद में हंगामा हो जाता कि असंसदीय भाषा का प्रयोग कर रहा है। वह इस महंगाई में आम खाने का चाहकर भी ‘ढिंढोरा’ नहीं पीट सकता था, क्योंकि देश की संसद को इस शब्द से भी चिढ़ है। उसके हाथ आया आम अब उसे फंसा चुका था। वह इसे खाए तो खाए कैसे और अगर पचाए तो किस हैसियत से। वह अब डरने लगा कि कहीं आम आदमी के हाथ में आए आम से कानून व्यवस्था का प्रश्न खड़ा न हो जाए। वैसे भी देश में जब कभी किसी आम आदमी के हाथ कुछ आता है, तो कानून व्यवस्था को शंका हो जाती है। आम और कानून व्यवस्था में कई समानताएं हैं। देश में चूसना व काटना अपराध है, इसलिए उसने तय कर लिया कि वह इस तरीके से आम का स्वाद नहीं चखेगा, लिहाजा उसने इसे चाटना शुरू कर दिया। वह चाटने की मेहनत करके न आम को नुकसान पहुंचा रहा था और न ही इसका स्वाद पता कर पा रहा है। इस वजह से आम को भी अब काटने से किसी आम ने ही बचा लिया।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal

Rani Sahu
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