सम्पादकीय

राष्ट्रवाद के नए प्रारूप का हवाला देकर उदारवादी मूल्यों को किया जा रहा है दरकिनार

Gulabi Jagat
25 March 2022 8:32 AM GMT
राष्ट्रवाद के नए प्रारूप का हवाला देकर उदारवादी मूल्यों को किया जा रहा है दरकिनार
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दुनिया में धुर-राष्ट्रवाद का उदय हमारे समय की एक चौंकाने वाली घटना है
शशि थरूर का कॉलम:
दुनिया में धुर-राष्ट्रवाद का उदय हमारे समय की एक चौंकाने वाली घटना है। जब यह सदी शुरू हुई थी, तब लगता था जैसे वैश्वीकरण को कोई नहीं रोक सकेगा। राष्ट्रीय सीमाओं में प्रवेश पर पाबंदियां घटने लगी थीं। राज्यसत्ताएं अपनी ताकतों को अपने से बड़ी संस्थाओं के हवाले करने लगी थीं, जैसे कि यूरोपियन यूनियन, विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय क्रिमिनल कोर्ट।
तब कम ही ने पूर्वानुमान लगाया होगा कि नई सदी का दूसरा दशक आते-आते चीजें इतनी बदल जाएंगी और दुनिया वैश्वीकरण के विरुद्ध हो जाएगी। इस बदली हुई परिघटना का ही कुरूप परिणाम है हाइपर-नेशनलिज़्म का उदय। आज दुनिया में संरक्षणवाद बढ़ता जा रहा है। यूरोप, अमेरिका में तो इसने प्रवासियों व अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नस्ली हिंसा का रूप ले लिया है।
इस तरह की नकारात्मकता को हमेशा अपने लिए एक सकारात्मक संदेश की जरूरत होती है, जो अमेरिका में मेक अमेरिका ग्रेट अगेन और तुर्की में साम्राज्यवादी तुर्की-गौरव को वापस स्थापित करने सम्बंधी नारों में व्यक्त हुए हैं।
बहुसंख्यकवादी नैरेटिव हर देश में बहुलतावादी राजनीति को क्षीण कर रहा है। वैश्वीकरण के मूल में एक ऐसी दुनिया थी, जो अपनी भिन्नताओं को भुलाकर स्वतंत्रताओं को बढ़ावा देगी। लेकिन आज का प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद विभेद को रेखांकित करता है व राज्यसत्ता के प्रति निष्ठावान होने की मांग करता है। जहां तक राष्ट्रीय प्रतीकों और सेनाओं के बलिदान का सम्मान करने की बात है, मुझे इससे कोई समस्या नहीं।
लेकिन जब प्रतीकों का इस्तेमाल मौजूदा शासनतंत्र के नैरेटिव को बल देने के लिए किया जाने लगता है, तब मुझे इस पर ऐतराज होने लगता है। इस बिंदु पर आकर राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति सम्मान की भावना को राज्यसत्ता और सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति आज्ञाकारिता से जोड़कर दिखाया जाने लगता है। आज यूरोप में जिस तरह से दक्षिणपंथी लोकप्रियतावादी का उभार देखा जा रहा है, वह भी इसी वृत्ति को उजागर करता है।
तंत्र-विरोधी लोकप्रिय पार्टियों, जैसे कि फ्रांस में नेशनल फ्रंट, यूनान में सीरिजा और इटली में फाइव-स्टार मूवमेंट का तेजी से आगे बढ़ना इसी का उदाहरण है। यूरोप में एक पॉवर वैक्यूम के बीच ही आज ऐसे उग्र राष्ट्रवादी विचारों का उदय हो रहा है। फ्रांस में अगले महीने चुनाव होने जा रहे हैं और एमान्युअल मैक्रों के विकल्प के रूप में दो नाम प्रस्तुत किए जा रहे हैं, दोनों ही धुर राष्ट्रवादी- नेशनल फ्रंट की मरीन ली-पेन और प्रवासियों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने वाले एरिक जेम्मॉउर।
ऑस्ट्रिया में फार-राइट ग्रुप्स और जर्मनी में एएफडी ने हाल ही में जैसा प्रदर्शन किया है, वह भी बदलती हुई दुनिया के ट्रेंड को बतलाता है। ये परेशान कर देने वाले और खतरनाक बदलाव हैं। राष्ट्र के विचार का मूल यह था कि उसके सभी नागरिक एक समुदाय के रूप में मिलकर रहेंगे, जिसमें हर व्यक्ति को संवैधानिक संरक्षण दिया जाएगा, वह निजी प्रसन्नता और राष्ट्रीय दायित्व के अपने विचार को अपना सकेगा और शासकों के दबावों से मुक्त होगा।
लेकिन राष्ट्रवाद के अधिकृत रूप से बदले गए प्रारूप का हवाला देकर आज इन मूल्यों को दरकिनार किया जा रहा है। 1920 और 1930 के दशक में इटली और जर्मनी ने जिस तरह से फासिज्म और नाजीवाद को अपनाया था, उसकी पुनरावृत्ति होती दिखलाई दे रही है।
आज कम्युनिकेशन के साधन आधुनिक हो चुके हैं और मीडिया मुक्त है, वैसे में फासिज्म के डर को अतिशयोक्तिपूर्ण कहा जा सकता है, लेकिन जब आप देखते हैं कि सोशल मीडिया पर जहरीली और असंसदीय भाषा किस हद तक जा चुकी है तो निश्चिंत होने का विकल्प शेष नहीं रह जाता।
1991 में मुक्त-बाजार प्रणाली को अंगीकार करने के बाद से भारत ने बहुत कुछ पाया है। हमने केवल विदेशी-निवेश और मुक्त-व्यापार से ही प्रतिबंध नहीं हटाए, दुनिया के लिए भी दरवाजे खोले थे। मौजूदा अंतरराष्ट्रीय रीतियों के प्रति हममें स्वीकार का भाव आया था।
हमने राष्ट्रवाद के विचार को एक व्यापक उदारवादी और कॉस्मोपोलिटन अंतरराष्ट्रीयवाद में सम्मिलित कर दिया था। लेकिन अब वह सब बदल रहा है। हिंदुत्व के विचार को खुलकर सत्ता के द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है और अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेला जा रहा है। परम्परागत पोशाकें पहनने वाली युवा लड़कियों को पढ़ने से रोका जा रहा है। देश अब उदारवादी नहीं रह गया है। प्रामाणिकता के नाम पर हम अपनी सौम्यता को गंवाते जा रहे हैं।
प्रतीकों का इस्तेमाल सत्ता के नैरेटिव को बल देने के लिए करना ठीक नहीं। आज राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति सम्मान की भावना को सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति आज्ञाकारिता से जोड़कर दिखाया जाने लगा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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