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स्टैंड-अप कमीडियन मुनव्वर फारूकी की निराशा एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की नाकामी का संकेत है। रविवार को बेंगलुरु में होने वाला अपना शो आखिरी पलों में कैंसल किए जाने के बाद उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘नफरत जीत गई, आर्टिस्ट हार गया।
स्टैंड-अप कमीडियन मुनव्वर फारूकी की निराशा एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की नाकामी का संकेत है। रविवार को बेंगलुरु में होने वाला अपना शो आखिरी पलों में कैंसल किए जाने के बाद उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, 'नफरत जीत गई, आर्टिस्ट हार गया। आइ एम डन, गुड बाई (मैं थक गया, अलविदा)।' यह कोई पहला शो नहीं था मुनव्वर फारूकी का, जो इस तरह कैंसल किया गया हो। पिछले दो महीनों में अलग-अलग राज्यों और शहरों में उनके 12 शो कैंसल किए गए हैं।
दिलचस्प है कि ये सारे राज्य किसी एक ही पार्टी के शासन वाले नहीं हैं। अगर उनके सूरत, वड़ोदरा और अहमदाबाद में आयोजित शो नहीं होने दिए गए तो मुंबई और रायपुर में होने वाले शो भी उसी गति को प्राप्त हुए। इसके पीछे जरूर हर जगह बजरंग दल और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों की ओर से दी जा रही धमकियों की भूमिका रही, जिनका यह आरोप रहा है कि फारूकी हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाकर उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं।
मामला शुरू हुआ इस साल एक जनवरी को, जब इंदौर में आयोजित एक शो के सिलसिले में फारूकी को इंदौर पुलिस ने गिरफ्तार किया। उनके खिलाफ शिकायत एक बीजेपी विधायक के बेटे ने की थी। आरोप तब भी वही था हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने का। हालांकि फारूकी के मुताबिक उन्होंने वे जोक सुनाए ही नहीं। शो से पहले ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। करीब साल पूरा होने को आया, लेकिन अभी तक उस मामले में चार्जशीट भी फाइल नहीं की गई। फिर भी मामला अदालत में है और इसीलिए उसमें कौन कितना दोषी या निर्दोष है, यह अदालत से ही तय होगा।
यहां सवाल उनके या किसी भी कमीडियन, कलाकार, पत्रकार या आम नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी का है। तमाम नियम कायदों और निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन करते हुए किसी कलाकार का शो आयोजित होता है और कोई संगठन आयोजकों को धमकी देता है कि शो हम नहीं होने देंगे तो जाहिर है इस धमकी का कोई कानूनी आधार नहीं है। बावजूद इसके कानून-व्यवस्था सुनिश्चित करने वाली पुलिस मशीनरी ऐसी धमकियों से सुरक्षा देने के बजाय शो का ही परमिशन वापस ले लेती है तो इसे उसकी नाकामी नहीं तो और क्या कहा जाए? और ऐसा एक के बाद एक कई राज्यों में हो तो यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की साख पर बड़ा सवाल खड़ा करता है।
बेशक, अभिव्यक्ति के अधिकार पर कई तरह की कानूनी पाबंदियां हैं। अगर कोई इन पाबंदियों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ उपयुक्त कदम उठाया जा सकता है। लेकिन किसी को इस आशंका में बोलने ही न दिया जाए कि यह कुछ गलत बोल देगा तो निश्चित रूप से यह उस व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है। संबंधित राज्य सरकारों को तत्काल ऐसा माहौल सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाना चाहिए जिसमें कोई कलाकार हारा हुआ न महसूस करे।
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