सम्पादकीय

संकट से सबक

Subhi
7 July 2022 4:26 AM GMT
संकट से सबक
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सरकार की गलत नीतियां, आर्थिक कुप्रबंधन और सत्ता में परिवारवाद की बीमारी एक खुशहाल देश को कैसे कंगाल बना देती है, इसे आज श्रीलंका में साफ तौर पर देखा जा सकता है।

Written by जनसत्ता: सरकार की गलत नीतियां, आर्थिक कुप्रबंधन और सत्ता में परिवारवाद की बीमारी एक खुशहाल देश को कैसे कंगाल बना देती है, इसे आज श्रीलंका में साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस मुल्क को लेकर आए दिन जैसी खबरें आ रही हैं, वे भयावह तस्वीर पेश करती हैं। महंगाई और बेरोजगारी की बात दूर, लोग अब दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं। हालत यह है कि लोगों को रसोई गैस तक नहीं मिल रही।

इसलिए वे अब लकड़ियां जलाने को मजबूर हो गए हैं। दो-दो दिन तक कतार में लगने के बाद सिर्फ पांच लीटर पेट्रोल मिल रहा है, वह भी पांच सौ रुपए लीटर। परिवहन व्यवस्था ठप पड़ गई है। श्रीलंका सरकार ने स्कूल बंद कर दिए हैं, ताकि बच्चों को लाने-ले जाने का झंझट न रहे। ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि लोग बच्चों को दिन में बारह बजे तक इसलिए सुला रहे हैं ताकि उन्हें नाश्ता न देना पड़े। संपन्न तबका भी बेहद डरा हुआ है। लोगों ने खानपान से लेकर दूसरे जरूरी घरेलू खर्चों में भी खासी कटौती कर दी है, इस डर के मारे के कि न जाने ऐसे हालात कितने देखने पड़ें!

किसी देश में नागरिकों को अगर ऐसे विकट हालात का सामना करने को मजबूर होना पड़ जाए तो इसके मूल में आर्थिक कंगाली से कहीं ज्यादा राजनीतिक कारण होते हैं। राजनीतिक स्तर पर होने वाले फैसले देश की नीतियों और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। श्रीलंका में अगर लोग अगर आज धरने-प्रदर्शन और हिंसा का रास्ता अपना रहे हैं तो जाहिर है उनका आक्रोश उस व्यवस्था के खिलाफ फूट रहा है जिसे उन्होंने उम्मीदों और भरोसे के साथ सत्ता सौंपी थी।

लेकिन पिछले एक दशक में श्रीलंका की राजनीति में गोटबाया खानदान का जिस तरह से कब्जा होता चला गया, उससे देश के फैसले प्रभावित होने लगे, खासतौर से आर्थिक नीतियां। चीन ने श्रीलंका को भारी-भरकम कर्ज के जाल में फंसा दिया। जाहिर है, इन सबका नतीजा बर्बादी के रूप में ही सामने आना था। आज सरकार के पास पेट्रोल सहित दूसरा र्इंधन खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। सरकारी खजाना खाली है। बिजली का संकट गहरा गया है। महंगाई दर पचपन फीसद से ऊपर है और खाद्य महंगाई तो अस्सी फीसद से ऊपर निकल गई है। सवाल है ऐसे में लोग करेंगे क्या?

चिंता की बात यह है कि श्रीलंका का यह संकट देश के भीतर कहीं विद्रोह के हालात पैदा न कर दे। खाने-पीने की चीजों से लेकर पेट्रोल तक के लिए लोगों को जिस तरह संघर्ष करना पड़ रहा है और आए दिन सेना व पुलिस के साथ टकराव हो रहा है, वह अच्छा संकेत नहीं है। श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने मदद के लिए अब भारत, जापान और चीन जैसे देशों का दानदाता सम्मेलन करने की बात कही है।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अभी तक कोई मदद नहीं दी है। यानी हालात दिनोंदिन बदतर ही होने हैं। वैसे भी ज्यादातर देश अभी तक कोरोना महामारी की मार से उबरे नहीं हैं, अर्थव्यवस्थाएं पटरी पर आ नहीं पाई हैं। ऐसे में श्रीलंका के लिए कौन आगे आएगा, यह बड़ा सवाल है। श्रीलंका के हालात दूसरों के लिए सबक भी हैं। गौरतलब है कि हाल में भारत के रिजर्व बैंक ने भी कुछ राज्यों को चेताया था कि वे संभल कर चलें, वरना आर्थिक हालात श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी को नजरअंदाज करना संकट को न्योता देना होगा, जो श्रीलंका कर चुका है।


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