सम्पादकीय

श्रीलंका की बदहाली में पूरी दुनिया के लिए छिपे हैं सबक

Rani Sahu
19 July 2022 10:55 AM GMT
श्रीलंका की बदहाली में पूरी दुनिया के लिए छिपे हैं सबक
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श्रीलंका की दुर्गति में उसके शासक ही मुख्य किरदार हैं


सोर्स- Jagran
ब्रह्मा चेलानी : श्रीलंका की दुर्गति में उसके शासक ही मुख्य किरदार हैं। राजपक्षे परिवार के चार भाइयों और उनके बेटों ने शासन की पूरी कमान अपने हाथ में ले रखी थी। वे किसी पारिवारिक कारोबार की तरह सरकार चला रहे थे। खुद ही बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से जुड़े रहे। इन अव्यावहारिक परियोजनाओं के लिए बेतहाशा कर्ज लिया। इसका नतीजा आर्थिक पतन के रूप में निकला। दो दशक तक राजनीतिक परिदृश्य पर वर्चस्व बनाए रखने वाले परिवार का रातोंरात बोरिया-बिस्तर बंध गया। ईंधन, खाद्य वस्तुओं, दवाओं और बिजली की किल्लत से श्रीलंकाई जनता इतनी आक्रोशित हो गई कि उसके अप्रत्याशित विरोध-प्रदर्शन ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागने पर विवश कर दिया। गत सप्ताह प्रदर्शनकारियों का राष्ट्रपति पैलेस पर कब्जा जनता की उस शक्ति का प्रतीक है, जिसने उस खानदान को खदेड़ दिया, जिसकी तानाशाही, भाई-भतीजावाद, विकृत पूंजीवाद और अक्खड़पन ने श्रीलंका को अंतहीन आर्थिक दुष्चक्र में फंसाकर घुटनों के बल ला दिया।
राजपक्षे परिवार राष्ट्रपति की शक्तियां निरंतर रूप से बढ़ाता रहा। इसके लिए 2020 में संविधान संशोधन तक किया गया। उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता का दमन किया। चीन से दोस्ती गांठ भरपूर लाभ उठाया। इतना कि अपने देश को ही कर्ज के जाल में फंसा दिया। राजपक्षे परिवार की सत्ता का नाटकीय पतन दुनिया भर में उन राजनीतिक वंशवादियों के लिए चेतावनी है, जिनकी अपने देशों में सरकार या पार्टी पर वर्चस्व है, लेकिन जवाबदेही और सुशासन से कोई सरोकार नहीं। एशिया से लेकर लैटिन अमेरिका में ऐसे तमाम परिवारों की भरमार है, जिन्होंने सरकारों को पारिवारिक मामला और राजनीतिक दलों को पारिवारिक जागीर बना दिया।
राजपक्षे परिवार की बात करें तो महिंदा राजपक्षे उसके राजनीतिक साम्राज्य के सूत्रधार रहे। एक दशक तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे और इस दौरान बहुत सख्ती से पेश आए। महिंदा 2015 का चुनाव मामूली अंतर से हार गए और परिवार को कुछ समय के लिए सत्ता से बेदखल होना पड़ा। इसी दौरान नई सरकार में संसद ने राष्ट्रपति के कार्यकाल को सीमित कर दिया। इसके चलते परिवार को महिंदा के छोटे भाई और उनकी सरकार में रक्षा मंत्री रहे गोटाबाया को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाना पड़ा। इस उम्मीदवारी की पात्रता प्राप्त करने के लिए गोटाबाया ने अपनी अमेरिकी नागरिकता भी छोड़ दी।
2019 में राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद गोटाबाया ने महिंदा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। महिंदा ने भी अपने दो बेटों, दो भाइयों और एक अन्य भाई के बेटे को सरकार में जगह दी। इस परिवार का यकायक हुआ अवसान इसलिए भी चौंकाने वाला है, क्योंकि राजपक्षे बंधुओं ने अपनी पहचान नस्लीय राष्ट्रवादी के रूप में बनाई थी। वे खुद को बहुसंख्यक सिंहली समुदाय के हितों का संरक्षक बताते थे। उन्होंने श्रीलंका में 26 साल से जारी गृहयुद्ध का निर्णायक, किंतु क्रूरतापूर्वक दमन किया। तब महिंदा राष्ट्रपति और गोटाबाया रक्षा मंत्री थे। उस समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्ध अपराधों को लेकर आलोचना के बावजूद दोनों सिंहलियों के नायक बनकर उभरे।
महिंदा ने ही लिïट्टे के खिलाफ अंतिम आक्रामक अभियान छेड़ा था। इस मुहिम में उन्हें गोटाबाया का पूरा समर्थन मिला। गोटाबाया इससे पहले कैलिफोर्निया में रह रहे थे, जहां उन पर कथित युद्ध अपराधों को लेकर मामले चले। उन्होंने श्रीलंका में उस गृहयुद्ध को तो समाप्त करा दिया, जिसके चलते हजारों लोग काल-कवलित हुए, लेकिन उसके दुष्प्रभाव भी हुए। हिंदू बहुसंख्यक तमिल समुदाय खुद को हाशिये पर महसूस करने लगा तो सिंहली और मुस्लिम समुदाय के बीच विभाजन की खाई और चौड़ी हो गई, जिनकी श्रीलंका की आबादी में 10 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इससे उपजे संघर्ष में वहां इस्लामिक आतंकवाद के बीज पड़ गए। इसका असर 2019 में ईस्टर पर हुए एक हमले में दिखा, जिसमें 277 लोग मारे गए। इसे दुनिया के दुर्दांत आतंकी हमलों में से एक गिना जाता है। उस आतंकी वारदात ने राजपक्षे परिवार को एक बार फिर सिंहली राष्ट्रवाद को भुनाने का अवसर प्रदान कर दिया।
स्पष्ट है कि यह परिवार नस्लीय और धार्मिक विभाजक रेखाओं का लाभ उठाकर ही अपने राजनीतिक वर्चस्व की इबारत लिख रहा था। चीन ऐसे ही मोहरों की तलाश में रहता है। वह ऐसे ताकतवर नेताओं या परिवारों के साथ बढिय़ा सौदेबाजी कर उस देश की कमजोरियों का लाभ अपने फायदे के लिए उठाता है। यहां तो उसके समक्ष दुनिया के सबसे व्यस्त सामुद्रिक मार्ग के करीब अपनी रणनीतिक पकड़ को गहरा बनाने का अवसर था।
चीन ने राजपक्षे की कमजोरियों और महत्वाकांक्षाओं का इसी मकसद के लिए लाभ उठाया। चीन युद्ध अपराध के आरोप का सामना कर रहे राजपक्षे की संयुक्त राष्ट्र में ढाल बन गया। इस तरह चीन को श्रीलंका की अहम बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का जिम्मा मिला और वह उसका प्रमुख कर्जदाता बना। इसी कर्ज के सहारे राजपक्षे परिवार अपनी राजनीतिक विरासत के प्रतीक रूप में गृह जनपद हंबनटोटा को चमकाने लगा। इसके तहत वहां एयरपोर्ट बनाया गया, जो वीरान ही पड़ा रहा। क्रिकेट स्टेडियम बनाया, जिसमें वहां की आबादी से अधिक सीटें थीं। 140 करोड़ डालर की लागत से बंदरगाह बनाया, जो चीन को 99 साल के लिए लीज पर देने से पहले बेकार ही पड़ा रहा। चीनी कर्ज से बनी सबसे महंगी 13 अरब डालर की पोर्ट सिटी परियोजना है, जो कोलंबो के निकट है।
राजपक्षे परिवार कर्ज संकट का अनुमान लगाने में गच्चा खा गया। उसने ऐसा कर्ज लिया, जिसकी शर्तों को सार्वजनिक तक नहीं किया। कोविड महामारी से ठीक पहले करों में कटौती से देश का राजस्व एक तिहाई तक घट गया। महामारी से श्रीलंका की आमदनी के दो प्रमुख स्रोतों पर्यटन और वस्त्र निर्यात की कमर टूट गई। यूक्रेन पर रूस के हमले से ऊर्जा संसाधनों की चढ़ी कीमतें श्रीलंका की तबाही के ताबूत में आखिरी कील साबित हुई। जब मदद की बारी आई तो मुश्किल में फंसाने वाले चीन ने मुंह फेर लिया। इस मुसीबत में भारत ही श्रीलंका के काम आया, जिसने उसे चार अरब डालर से अधिक की सहायता पहुंचाई है।
श्रीलंका की बदहाली और राजपक्षे परिवार के राजनीतिक पराभव में पूरी दुनिया के लिए दो सबक छिपे हैं। पहला यही कि कोई परिवार कितना ही ताकतवर क्यों न हो, जब पतन की बारी आती है तो बचना मुश्किल हो जाता है। दूसरा यह कि भारी कर्ज से लदे देश अपनी राजकोषीय नीतियों के मामले में सावधानी बरतें, अन्यथा आवश्यक वस्तुओं की भारी किल्लत महंगाई को नियंत्रण से बाहर कर सकती है।
Rani Sahu

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