सम्पादकीय

भारत के संदर्भ में फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव परिणाम के सबक और उपलब्धियां

Rani Sahu
28 April 2022 3:24 PM GMT
भारत के संदर्भ में फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव परिणाम के सबक और उपलब्धियां
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महाशक्ति के रूप में अमेरिका की दुनिया में घटती ताकत और यूरोप के सशक्त होते देश फ्रांस के चुनाव परिणामों पर सबकी नजर रही है

अवधेश माहेश्वरी।

महाशक्ति के रूप में अमेरिका की दुनिया में घटती ताकत और यूरोप के सशक्त होते देश फ्रांस के चुनाव परिणामों पर सबकी नजर रही है। इसके क्या परिणाम देखे जाने चाहिए? ये इस्लामिक कट्टरता के लिए संदेश हैैं। यूरोपीय यूनियन के लिए राहत की सांस है, तो भारत के लिए नए समीकरण बनाने वाले हैं। चुनावों में इस्लामिक कट्टरपंथ से वहां जिस तरह मुस्लिमों को ज्यादा विकल्प नहीं दिखे, उससे भारतीय मुस्लिमों को भी सबक लेना चाहिए। सोचना चाहिए कि फ्रांस जैसे प्रगतिशील राष्ट्र में इस्लामिक कट्टरता क्यों इतना बड़ा मुद्दा बनी। वहां उसके खिलाफ कैसा रुख अख्तियार किया गया। यह भी समझना चाहिए कि नए दौर में राष्ट्र सर्वोपरि है।

फ्रांस में 2002 में जैक शिराक के बाद इमैनुएल मैक्रों पहले ऐसे उम्मीदवार हैैं, जो दोबारा चुनाव जीतकर राष्ट्रपति भवन एलिसी पैलेस पहुंचे हैैं। इसके बाद भी एक सवाल उभर रहा है कि फ्र ांसीसी समाज में ऐसा कौन सा गुस्सा रहा, जिस वजह से मतदाताओं ने पिछले चुनाव के मुकाबले मैक्रों की जीत का अंतर कम किया और इसकी तुलना में प्रतिद्वंद्वी और धुर दक्षिणपंथी ली मरीन पैन को 41.46 प्रतिशत वोट दिए।
फ्रांस के चुनाव मेंं अबकी विकास पर सुरक्षा का मुद्दा हावी हो गया। इसकी वजह रही कि वहां जीवन-यापन महंगा हो चुका है, कोरोना ने अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। इससे भी बड़ी समस्या देश में मुस्लिम शरणार्थियों की बन गई है। यूरोपीय यूनियन में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देश में अब भी इनके आने का सिलसिला रुक नहीं रहा है। इसके बाद भी मैक्रों चुनाव जीते तो इसलिए कि अमीर और मध्यम वर्ग ने माना कि मैक्रों ने कोरोना से निपटने के लिए सही कदम उठाए, जिससे नुकसान कम हुआ। सुधार लागू कर बेरोजगारी के मुद्दे की धार खत्म कर दी। इस्लामी कट्टरपंथियों के खिलाफ कदम उठाए और खुलकर बोले भी।
चुनावों में मैक्रों की प्रतिद्वंद्वी ली पैन के सशक्त रहने से इस्लामिक कट्टरता का सवाल खूब उभरा। पेरिस में हो चुके आतंकी हमले के बाद मैक्रों भी लचीले नहीं रह सकते थे। वैसे भी मैक्रों पूर्व में कह चुके थे कि इस्लाम दुनिया के लिए खतरा बनकर उभर रहा है। फ्रांस को इस्लामी कट्टरपंथियों से मुक्ति चाहिए। उन्होंने दो साल पहले प्रमुख मुस्लिम नेताओं के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि धार्मिक कट्टरता से बचाने के लिए बच्चों को घर में नहीं पढ़ाया जा सकेगा। उनके कड़े रुख को देखते हुए मुस्लिम नेतृत्व को झुकना पड़ा था। ऐसी स्थिति के बाद भी मुस्लिमों को मुख्य दौड़ में शामिल मैक्रों और मरीन ली पैन में से ही किसी एक का चुनाव करना था। अन्य विकल्प में वामपंथी जीन लुक मेलेंचोन थे, जो लगातार मुस्लिमों पर अत्याचार की बात उठाते रहे हैैं। माना जा रहा है कि 70 प्रतिशत मुस्लिमों ने वामपंथी नेता की हार तय देखते हुए भी उन्हें अपना हमदर्द मानकर वोट दिया।
चुनाव प्रचार के दौरान एक वक्त था जब मैक्रों और ली के बीच कड़ा मुकाबला दिख रहा था। ऐसे में मैक्रों मुस्लिमों को बेहतर ढंग से आश्वस्त करने की कोशिश कर सकते थे, लेकिन उन्होंने गंभीर प्रयास नहीं किए। ऐसे में मुस्लिम अंदर ही अंदर मानते रहे कि मैक्रों मुस्लिम विरोधी हैैं। यदि उन्हें वोट दिया तो उनके अब तक के मुस्लिम विरोधी फैसलों पर मुहर लग जाएगी। चुनाव में ली पैन ने तो मुस्लिमों को लेकर बहुत कुछ ऐसा कहा कि उन्हें वोट देने का सवाल ही नहीं था। महिलाओं के हिजाब को लेकर तो यहां तक कह दिया कि यह कभी कट्टरपंथियों की शुरू कराई परंपरा है। पुलिस ने सार्वजनिक स्थलों पर हिजाब पहनने वाली महिलाओं पर नजर रखी। हालांकि मैक्रों हिजाब पर थोड़ा नरम रहे। ऐसे में भारतीय मुस्लिमों को समझना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में भी इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ आवाज तेज हो रही है।
फ्रांस के चुनाव परिणामों को लेकर यूरोपीय यूनियन और नाटो के माथे पर भी चिंता की लकीरें थीं। माना जा रहा था कि यदि मैक्रों की जगह ली पैन जीतीं तो वह फ्रांस के हितों की बात करते हुए फ्रैं क्जिट (ब्रैक्जिट) से बाहर का रास्ता अपना सकती थीं। मैक्रों समर्थकों ने भी यह मुद्दा उठाया था कि ली की नीतियां यूरोपीय यूनियन में फ्रांस के हितों के लिए खतरे की घंटी होंगी। मैक्रों के इस प्रचार के असर को देखते हुए ली पैन को कहना पड़ा था कि फ्रैंक्जिट पर कोई गुप्त एजेंडा नहीं है। ली की जीत से पुतिन के एजेंडा को भी मजबूती मिलते हुए यूरोप देख रहा था। अब मैक्रों की जीत और ली पैन की हार से यूरोपीय यूनियन को राहत की सांस मिली है।
भारत के साथ मजबूत रक्षा संबंध : फ्रांस ने भारत के साथ मजबूत रक्षा संबंधों के लिए पाकिस्तान को हथियार सप्लाई करने से दूरी बना रखी है। वैसे भारत और फ्रांस के विशेष संबंधों की शुरुआत जैक शिराक के दौर में हो गई थी, जब उन्होंने भारत को परमाणु आर्डर वाले राष्ट्रों में लेने की जोरदार पैरवी की थी। उन्होंने कहा कि इसको लेकर सही कदम उठाने की जरूरत है। परंतु उसके बाद संबंधों की प्रगति हुई तो सही, लेकिन तेजी कायम नहीं रही। फ्रांसीसी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री लगातार एक-दूसरे राष्ट्र के दौरे पर जाते हैैं, लेकिन अटल-क्लिंटन वार्ता से अमेरिकी संबंधों में आई गर्मी वाली बात नहीं दिखती है।
भारत की आजादी के बाद रूस को एशिया में अमेरिका से बैलेंस बनाने के लिए एक मजबूत गठबंधन की जरूरत थी, जो भारत के साथ गठबंधन में सामने आई। अब 21वीं सदी में परिस्थितियां बदल चुकी हैैं। रूस और चीन ज्यादा करीब हैं। यूक्रेन संकट ने इसे और मौका दिया है। रायसीना डायलाग में यूरोपीय यूनियन की अध्यक्ष उर्सुला वोन ने भी यूक्रेन संकट से बढ़ी रूस और चीन की करीबी की बात उठाई। यह भी कहा कि इस दोस्ती की कोई सीमा नहीं है। इस इशारे को समझना चाहिए। रूस और यूक्रेन के बीच तनाव बढऩे के साथ ही भारत यह महसूस कर रहा है कि यह उसके लिए बेहतर नहीं है। इसके बावजूद उसने अपनी रणनीति इस तरह बनाई है कि अपने हितों को बरकरार रख सका है। रूस, ब्रिटेन और अमेरिका से संबंधों को भी कायम रखा है। इसके बावजूद रूस और चीन की बढ़ती पींगों पर भारत को नजर रखनी होगी, क्योंकि सोवियत रूस के पतन के साथ ही दोनों का सीमा विवाद खत्म हो चुका है, तब से इन संबंधों में लगातार मजबूती आ रही है। ऐसे में भारत के साथ फ्रांस यहां रुचि दिखाता है तो इस क्षेत्र में नए समीकरण बनेेंगे। चीन के सीमा विवाद से परेशान दूसरे देश भी इस दोस्ती को निश्चित रूप से एक नए अवसर के रूप में देखकर आगे-पीछे इससे जुड़ेंगे
भारत के लिए मैक्रों की जीत के मायने % इमैनुएन मैक्रोंं की जीत के भारत के लिए अलग मायने हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी उन्हें बधाई देते हुए कहा था कि मित्र मैक्रों की जीत से भारत-फ्रांस रणनीतिक साझीदारी और मजबूत करने का रास्ता आगे बढ़ेगा। भारत में पिछले कुछ वर्षों से यह उम्मीद लगाई जाती है कि हम अब रूस की जगह फ्रांस को दे सकते हैैं। इसकी वजह भी रही है कि फ्रांस और भारत का रक्षा सहयोग में विशेष समझौता है। फ्रांस 36 राफेल लड़ाकू विमानों की आपूर्ति के बाद भारत के लिए युद्ध सामग्री का विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता बन गया है। वह छह पी-75 स्कार्पीन पनडुब्बी बनाने की परियोजना पर प्रौद्योगिकी स्थानांतरण के साथ कार्य कर रहा है, जबकि दूसरे देश प्रौद्योगिकी स्थानांतरण में हिचकिचाते हैं या कड़ी सौदेबाजी करते हैं। दोनों देशों की सेनाएं लगातार युद्धाभ्यास करती हैं। दोनों देशों के बीच समुद्री क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर लंबे समय से अच्छा तालमेल है।
मई 2021 में भारत ने क्वाड के जापान, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के अलावा फ्रांस की नौ सेना के साथ बंगाल की खाड़ी में पहली बार ला पेरोस युद्धाभ्यास में भाग लिया था। इससे साफ हुआ कि क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे से निपटने के लिए फ्रांस भी पूरी तरह आगे बढ़ रहा है। फ्रांस हिंद महासागर के अपने सीमावर्ती क्षेत्र में चीन की खनिज को लेकर चली जा रही चालों से परिचित भी है। इस युद्धाभ्यास के बाद सवाल उठा था कि क्वाड प्लस में यदि फ्रांस शामिल हुआ तो चीन के लिए एक नई चुनौती बनेगा। हालांकि चीन क्वाड को ढीला-ढाला समूह कहकर ऊपर से यह दिखाता रहा है कि वह इसकी चिंता नहीं करता, लेकिन वियतनाम, इंडोनेशिया और फिलीपींस पर नजर भी रखता है कि कहीं वह क्वाड के साथ नजदीकी न बनाने लगें, क्योंकि ऐसा होने पर ये देश क्वाड को अपने सैन्य अड्डों की सुविधा भी दे सकते हैं।
फ्रांस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन कर रहा है। व्यापार के क्षेत्र में बात की जाए तो वह भारत में सातवां सबसे बड़ा निवेशक है। फ्रांस ने 21वीं शताब्दी के पहले 20 साल में नौ अरब डालर का प्रत्यक्ष निवेश किया। हालांकि भारत में संभावनाओं को देखते हुए यह और ज्यादा होना चाहिए था। वैसे भी फ्रांस की दृष्टि से देखा जाए तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र का आर्थिक उभार वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य सच्चाई है। जी-20 की छह बड़ी अर्थव्यवस्था भारत, चीन, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, जापान और दक्षिण कोरिया इस क्षेत्र से ही हैं। विश्व व्यापार में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी में लगातार वृद्धि हो रही है। फ्रांस ने इस बदलाव को पहले ही समझ लिया था, इसीलिए इंटरनेशनल सोलर एलायंस का मुख्यालय भारत में स्थापित करने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संभवत: मई के प्रथम सप्ताह में ही मैक्रों से मुलाकात कर सकते हैैं। इस दौरे पर सभी की नजरें होंगी। विशेषज्ञों का यह मानना है कि भारत के लिए फ्र ांस अब रूस की जगह ले सकता है। परंतु यह इतना आसान नहीं है। हमें यह समझना होगा कि रूस की यह जगह तब बनी, जब आजादी के बाद वह कश्मीर मसले पर लगातार हमारा समर्थन करता रहा है। एक वक्त जब यह खतरा था कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के चलते कश्मीर भारत के हाथ से निकल सकता है, तब उस समय रूस ने खुलकर भारत के लिए वोटों को प्रयोग किया। फ्रांस अभी इस प्रकार के किसी भी कदम को उठाने से बचेगा, हालांकि भारत को अब ऐसी जरूरत भी नहीं है। भारत को रूस परमाणु पनडुब्बी तक पट्टे पर दे रहा है, परंतु फ्रांस को अभी इसमें भी हिचक होगी।
Rani Sahu

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