सम्पादकीय

मुश्किल नहीं है एमएसपी की कानूनी गारंटी

Gulabi
22 March 2021 1:52 PM GMT
मुश्किल नहीं है एमएसपी की कानूनी गारंटी
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केंद्र सरकार

केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमा पर चल रहा किसान आंदोलन 116 दिन का हो गया। आंदोलन कर रहे किसानों की दो मांगें हैं। पहली, केंद्र के बनाए तीन कानून रद्द किए जाएं और दूसरी, सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाए। तीन कानून रद्द करने की मांग नई है, जो जाहिर है कि पिछले साल कोरोना वायरस की महामारी में आपदा को अवसर बना कर तीन कानून बनाए जाने के बाद उठी है। लेकिन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की मांग पुरानी है। इस मांग के भी दो पहलू हैं। पहला तो यह कि न्यूनतम समर्थन मूल्य कैसे तय हो। इसके लिए एमएस स्वामीनाथन का सुझाया फॉर्मूला है, जिसकी चर्चा हर नेता करता है लेकिन उस पर अमल की इच्छा किसी की नहीं होती है। सो, पहला पहलू समर्थन मूल्य तय करने का है और दूसरा उसकी कानूनी गारंटी देने का है।


सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि किसान के लिए उसकी फसल की न्यूनतम कीमत की कानूनी गारंटी क्यों जरूरी है। इसे दो ताजा मिसालों से समझा जा सकता है। एक मिसाल कृषि मामलों के मशहूर जानकार देवेंदर शर्मा ने दी है। उन्होंने ट्विट किया है- एक हफ्ते पहले तक पंजाब में आलू की कीमत 12 से साढ़े 12 सौ रुपए प्रति क्विंटल थी लेकिन एक ही हफ्ते में इसकी कीमत गिर कर पांच से सात सौ रुपए क्विटंल पर आ गई और अंदाजा लगाया जा रहा है कि इसकी कीमत और गिरेगी। सोचें, अगर बाजार में एक हफ्ते में इतना उतार-चढ़ाव हो सकता है तो किसानों को मुनाफे की या उसकी लागत निकलने की ही गारंटी कैसे दी जा सकती है? जाहिर है इसका तरीका यही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की कानूनी गारंटी दी जाए। दूसरी मिसाल स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव ने दी है।


उन्होंने ट्विट करके बताया है- बंगाल में चने की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर होने की वजह से एक से 15 मार्च के बीच किसानों को 140 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। ऐसी स्थिति में 'एमएसपी था, एमएसपी हैं और एमएसपी रहेगा' कहने का क्या मतलब है? अगर एमएसपी के होते किसानों को एक-एक फसल पर इतना नुकसान उठाना पड़ेगा तो उस एमएसपी का निश्चित रूप से कोई मतलब नहीं है। अगर सरकार एमएसपी की कानूनी गारंटी देती है तो इस स्थिति से बचा जा सकता है। तभी प्रधानमंत्री को 'एमएसपी था, है और रहेगा' कहने की बजाय एमएसपी पर ही खरीद हो, यह सुनिश्चित करने के उपाय करने चाहिए।

अब सवाल है कि क्या एमएसपी की कानूनी गारंटी देने के बाद सारी फसल सरकार को खरीदनी पड़ेगी और अगर सरकार किसानों की सारी फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है तो उस पर कितना खर्च आएगा? इसके लिए 10 से 17 लाख करोड़ रुपए सालाना खर्च का आंकड़ा दिया जा रहा है। हालांकि यह आंकड़ा काफी हद तक काल्पनिक है क्योंकि सरकार देश भर के किसान का उपजाया सारा अनाज कभी नहीं खरीदती है और न आगे उसे खरीदने की जरूरत है। दूसरे, किसानों की जितनी पैदावार होती है उसका बड़ा हिस्सा वे अपने उपभोग के लिए रखते हैं और कुछ आगे की फसल के लिए बीज के तौर पर संरक्षित करते हैं। तीसरे, फल-सब्जियों आदि को एमएसपी के दायरे से बाहर रखा गया है। चौथे, जो 23 फसलें एमएसपी के दायरे में आती हैं उनमें से एक गन्ना भी है, जो सरकार नहीं खरीदती है। सरकार गन्ने की कीमत तय करती है और चीनी मिल चलाने वाली कंपनियां ही उसके खरीदती हैं।

पांचवें, गन्ने के अलावा तीन नकदी फसल की एमएसपी सरकार तय करती है। उसमें से कपास सहित बाकी तीन फसलों में से एक-तिहाई पैदावार ही सरकार खरीदती है। छठे, सरकार जो फसल खरीदती है उसकी बिक्री से उसे भी कुछ आमदनी होती ही है। अगर अनाज और कुछ दालों को छोड़ दें जो सरकार बहुत ज्यादा सस्ती दर पर करोड़ों लोगों को उपलब्ध कराती है तो बाकी फसलों के उसे ठीक-ठाक दाम मिल जाते हैं। जो सस्ते में या मुफ्त में दिया जाता है उससे भी तो वोट की गारंटी बनती ही है! एक अनुमान के मुताबिक अनाज की सरकारी खरीद डेढ़ लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की नहीं होनी है। सो, यह कहना की एमएसपी की कानूनी गारंटी दी गई तो सारी फसल अनिवार्य रूप से सरकार को खरीदनी होगी और उसके लिए लाखों करोड़ रुपए खर्च करने होंगे या सरकार को लाखों करोड़ का नुकसान होगा, एक किस्म का मिथक है, जिसका प्रचार निश्चित रूप से सरकार प्रायोजित है।

सरकार को सिर्फ इतना करना है कि हर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करना है और उससे कम कीमत पर उपज की खरीद-बिक्री को गैरकानूनी ठहराना है। इससे किसान को भी अपनी उपज की एक निश्चित कीमत मिलने की गारंटी होगी और तय मानें कि फसल की खरीद करने वाले निजी खरीदार को भी नुकसान होगा। इसे भी एक मिसाल के जरिए समझा जा सकता है। केरल में सरकार ने टमाटर की न्यूनतम कीमत आठ रुपए प्रति किलो तय की है और कहा है कि बाजार में अगर दाम इससे कम होते हैं तो सरकार किसानों को उसकी भरपाई करेगी। इसके लिए 35 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। प्रायोगिक तौर पर छह महीने पहले शुरू हुई इस योजना में अभी तक सरकार को एक रुपया भी खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी है। यानी बाजार में हमेशा टमाटर की कीमत आठ रुपए से ऊपर रही है। जाहिर है किसान को उसकी लागत के हिसाब से पूरी कीमत मिल रही है और खरीदार को भी कोई नुकसान नहीं है तभी वह निर्धारित कीमत से ज्यादा पैसे देकर उसे खरीद रहा है।

पंजाब सरकार ने दो उत्पादों के साथ इसी तरह का प्रयोग शुरू किया है। उसने आलू और कीनू की कीमत निर्धारित करते हुए कहा है कि अगर बाजार में कीमत इससे कम होती है तो किसानों को सरकार भरपाई करेगी। इसके लिए सरकार ने एक फंड भी बनाया है। ऐसा करने की जरूरत इस वजह से पड़ी क्योंकि पिछले साल के 10 से 15 रुपए किलो की बजाय आलू इस साल छह से साढ़े सात रुपए किलो की दर पर बिका और कीनू की कीमत पिछले साल 15-18 रुपए से गिर कर इस साल नौ रुपए प्रति किलो पर आ गई। ऐसे में किसानों के हितों की रक्षा के लिए जरूरी है कि न्यूनतम कीमत तय की जाए और उसकी गारंटी की जाए। स्पेन में यह प्रयोग पहले से चल रहा है। वहां सरकार ने हर फसल की लागत के आधार पर उसकी न्यूनतम कीमत तय कर दी है और उससे कम कीमत पर खरीद-बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया है।

भारत सरकार को भी वहीं करना है। उसे सारी फसल खुद नहीं खरीदनी है। उसे फसल की न्यूनतम कीमत से कम पर खरीद-बिक्री को गैरकानूनी बनाना है। अगर सरकार सचमुच कारपोरेट के लिए काम नहीं करती है, किसानों की हितैषी है और उसकी आय बढ़ाना चाहती है तो एमएसपी की कानूनी गारंटी कोई मुश्किल काम नहीं है। वैसे भी सरकार की ओर से बार-बार कहा जा रहा है कि मंडियों से बाहर खरीदार एमएसपी से भी ज्यादा कीमत पर खरीद कर सकता है। अगर ऐसा है तो एमएसपी की कानूनी गारंटी करने में और भी कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए।


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