सम्पादकीय

लेफ्ट-लिबरल अफगानिस्‍तान का ये सच देखने से चूक गए या उन्‍होंने बेईमानी की है

Rani Sahu
25 Aug 2021 10:25 AM GMT
लेफ्ट-लिबरल अफगानिस्‍तान का ये सच देखने से चूक गए या उन्‍होंने बेईमानी की है
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15 अगस्‍त, 2021 को काबुल पर तालिबान के कब्‍जे के बाद से पूरी दुनिया का मुख्‍यधारा मीडिया रिपोर्टिंग के साथ अफगानिस्‍तान के मौजूदा हालात पर विशेषज्ञों के विचार छाप रहा है

मनीषा पांडेय। 15 अगस्‍त, 2021 को काबुल पर तालिबान के कब्‍जे के बाद से पूरी दुनिया का मुख्‍यधारा मीडिया रिपोर्टिंग के साथ अफगानिस्‍तान के मौजूदा हालात पर विशेषज्ञों के विचार छाप रहा है. शुरुआती सदमे और चिंताओं के बाद आश्‍चर्यजनक रूप से पश्चिम के मीडिया का सुर तालिबान को लेकर नरम पड़ता गया. यूके के चीफ ऑफ डिफेंस स्‍टाफ सर निक कार्टर ने स्‍काई न्‍यूज को दिए एक इंटरव्‍यू में तालिबानों को काउ बॉएज कहा. निक कार्टर का ये इंटरव्‍यू एक तरह को तालिबान को स्‍वीकृति देने की कोशिश थी. 15 अगस्‍त के घटनाक्रम के बाद जब यूरोप के तमाम देशों ने काबुल स्थित अपने दूतावासों पर ताला लगा दिया था, रूस और चीन के दूतावास पहले की तरह बदस्‍तूर काम कर रहे थे. इन दोनों ताकतवर देशों ने तालिबान को अपना समर्थन पहले ही दे दिया था.

कुल मिलाकर पूरी दुनिया में तकरीबन हो ये रहा था कि सारी महाशक्तियां अपने बयानों में और मुख्‍यधारा का मीडिया अपने लेखों को तालिबान को लेजिटमाइज करने यानी स्‍वीकृति और संवैधानिक दर्जा देने की कोशिश कर रहा था. दुनिया को किसी को इस बात से कोई दिक्‍कत पेश नहीं आई कि जिस सैन्‍य संगठन को अब तक आधी दुनिया ने एक आतंकवादी संगठन के रूप में चिन्हित कर रखा था, अब उसी को वो स्‍वीकार करने और उसके साथ मिलकर काम करने को भी तैयार थे.
वैश्विक राजनीतिक बिसात पर बहुत सोच-समझकर अपनी गोटियां सेट करने वाली महाशक्तियों के लिए तो ये एक सियासी कूटनीति और व्‍यावसायिक हितों का सवाल भी था, लेकिन क्‍या वजह थी कि विश्‍व की तकरीबन सभी लेफ्ट-लिबरल आवाजें और समानांतर मीडिया में छप रहे ओपिनियन पीस भी तालिबान के प्रति उतने ही उदार नजर आए, जितना कि वेस्‍ट का मेनस्‍ट्रीम मीडिया.
क्‍या ये सिर्फ इत्‍तेफाक है कि तालिबान को राजनीतिक स्‍वीकृति देने के मामले में लेफ्ट के विचार वेस्‍टर्न मीडिया के विचार के इतने करीब थे. वेस्‍टर्न मीडिया तो अपने देश की सरकारों के राजनीतिक हितों के पक्ष में लॉबिइंग का काम कर रहा है, लेकिन तारिक अली, स्‍लोवाक जिजेक जैसे लेफ्ट बुद्धिजीवि तालिबान को देखने में इतनी भारी भूल कैसे कर बैठे.
16 अगस्‍त को न्‍यू लेफ्ट रिव्‍यू में तारिक अली ने अफगानिस्‍तान पर एक लिखा, जिसकी पहली ही लाइन थी, "काबुल का तालिबान के हाथों में जाना अमरिकी साम्राज्‍य की बड़ी राजनीतिक और वैचारिक हार है."
इसी तरह दो लेफ्ट बुद्धिजीवियों नैंसी और जोनाथन नील ने एक लंबा आर्टिकल लिखा, जिसकी हेडलाइन थी- "अफगानिस्‍तान: द एंड ऑफ ऑक्‍यूपेशन." इस लेख की शुरुआत की इन तीन महत्‍वपूर्ण पंक्तियों से होती है-
"ब्रिटेन और यूनाइटेड स्‍टेट्स में अफगानिस्‍तान के बारे में बहुत सारी बकवास लिखी गई है, जिसके पीछे बहुत सारा जरूरी सच छिप गया है.
पहला, तालिबान ने अमेरिका को करारी मात दी है.
दूसरा, तालिबान की जीत इसलिए हुई है क्‍योंकि ज्‍यादा व्‍यापक जनसमर्थन हासिल है."
इन सबसे पहले स्‍लोवानिया के मार्क्‍सवादी बुद्धिजीवी स्‍लोवाक जिजेक ने 1979 की ईरानी क्रांति और उस क्रांति को फ्रेंच दार्शनिक मिशेल फूको से मिले समर्थन के हवाले से अफगानिस्‍तान में तालिबान के सत्‍ता हासिल करने को पश्चिम के खिलाफ के ओरिएंटल दुनिया के विद्रोह के रूप में देखा. वो विद्रोह, जिसे अंत में सफलता हासिल हुई.
दुनिया के अलग-अलग हिस्‍सों में बैठे, लेकिन एक ही तरह की राजनीतिक विचारधारा से ताल्‍लुक रखने वालों के विचारों में यहां एक अनूठा साम्‍य है. तकरीबन सभी एकमत से बार-बार एक ही बात कह रहे हैं कि तालिबान ने अमेरिकी साम्राज्‍यवाद को परास्‍त कर दिया है. तालिबान ने पश्चिम के आधिपत्‍य को हरा दिया है. तालिबान ने पश्चिम के श्रेष्‍ठताबोध को चोट पहुंचाई है. दुनिया की सबसे बड़ी सैन्‍य महाशक्ति के ऊपर ये अफगानिस्‍तान के स्‍थानीय, अनपढ़, लेकिन आत्‍मगौरव, साहस और आत्‍मसम्‍मान से भरे लड़ाकों की जीत है.
सच ये है कि अमेरिका की कोई हार नहीं हुई है. अमेरिका ने तालिबान के साथ समझौता किया है. दोनों के बीच करार हुआ है कि अमेरिकी सेना शांति से अफगानिस्‍तान की जमीन से निकल जाएगी, अफगान सेना युद्ध नहीं लड़ेगी और तालिबान आसानी से काबुल, कांधार, हेरात से लेकर पूरी अफगानिस्‍तान पर अपनी हुकूूूमत कायम कर लेगा. अमेरिकी सेना किसी मजबूरी और हार की वजह से नहीं, अपना उल्‍लू सीधा करके अपने हित के लिए तालिबान के साथ डील करके वहां से हटी है. अमेरिका की ऑफिशियल वेबसाइट पर उस पीस अग्रीमेंट (शांति अनुबंध) की कॉपी सार्वजनिक रूप से उपलब्‍ध है, जिसकी शुरुआत 2020 में ट्रंप के शासनकाल में तालिबान और अमेरिका के बीच हुई और अब 2021 में बाइडेन ने उस पर अपनी अंतिम मुहर लगा दी.
इसलिए लेफ्ट बुद्धिजीवियों का बार-बार ये दोहराना कि तालिबान ने अमेरिका को परास्‍त कर दिया है, एक ऐतिहासिक झूठ है. यह तथ्‍य को गलत ढंग से तोड़-मरोड़कर पेश करने की कोशिश है.
दूसरी सबसे महत्‍वपूर्ण बात, जो वामंपथियों के सारे राजनीतिक विश्‍लेषण में सिरे से नदारद है, वो है महिलाओं का जिक्र. नैंसी और जोनाथन तो अपने लेख में यहां तक कहते हैं कि तालिबानों का विरोध करने वाली अमेरिका और पश्चिमपरस्‍त फेमिनिस्‍ट महिलाएं हैं. अफगानिस्‍तान के गांवों और ग्रामीण इलाकों की औरतों का तालिबान को व्‍यापक समर्थन हासिल है. कुल मिलाकर क्‍या वो ये कहना चाह रही हैं कि औरतों को किसी गैर मर्द से बात कर लेने पर हंटरों और पत्‍थरों से पीटा जाना पसंद है. तालिबान के बेहद क्रूर और कट्टर स्‍त्री विरोधी सोच और व्‍यवहार के बावजूद अफगानिस्‍तान में उसे बहुसंख्‍य महिलाओं का समर्थन हासिल है.
ये किस तरह का झूठ है, जो वामपंथ के चश्‍मे से मर्दों को सच दिखाई देता है. ईरान की क्रांति की तारीफ में दसियों लेख लिखने वाले मिशेल फूको अपने किसी भी लेख में स्त्रियों का जिक्र तक करना भूल जाते हैं. एक लेख में वो साफ लिखते हैं कि ईरान की इस्‍लामी सत्‍ता महिलाओं के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगी. सिर्फ दोनों जेंडर में कुछ फर्क होगा क्‍योंकि ये फर्क प्राकृतिक रूप से है.
स्त्रियों ने पिछले 6-7 दशकों में जितनी भी आजादी और बराबरी हासिल की है, वो वामपंथ की न्‍याय और बराबरी पर आधारित विचारधारा और राजनीतिक संघर्षों की देन नहीं है. वो सब पूंजीवाद और लोकतंत्र की देन है. हम बाजार की चाहे कितनी भी आलोचना कर लें, लेकिन इस तथ्‍य से आंखें नहीं मूंद सकते कि उस बाजार ने ही औरतों को घर-परिवार और पितृसत्‍ता की कैद से आजाद किया है. बाजार ने औरत पर कौन सी बेडि़यां थोपीं, ये एक अलग विचार का प्रश्‍न है, लेकिन उसके योगदान को नकारना बेईमानी होगी.
तालिबान के विरोध में खड़ी अफगानिस्‍तान की औरतें अमेरिका और पश्चिम परस्‍त प्रिवेजेल्‍ड फेमिनिस्‍ट नहीं हैं. वो वहां की आम औरतें हैं, जिन्‍हें अपने वतन, अपनी मिट्टी से प्‍यार है. लेकिन जो इस्‍लामी कट्टरपंथ को, शरीया कानून को मानने के लिए तैयार नहीं. जो अपने लिए शिक्षा और योग्‍यता हासिल करने, नौकरी करने और समाज के हर क्षेत्र में हिस्‍सेदारी करने का बराबर हक चाहती हैं.
तालिबान को लेजिटामाइज करने की कोशिश कर रही लेफ्ट-लिबरल विचारधारा और पश्चिम का मीडिया अफगानिस्‍तान के भीतर से उठ रही तालिबान विरोधी आवाजों को नहीं दरकिनार कर रहे हैं. भविष्‍य के गर्भ में क्‍या छिपा है, ये तो आने वाला वक्‍त ही बताएगा, लेकिन आज जो वो कर रहे हैं, वो ऐतिहासिक भूल भर नहीं है. यह ऐतिहासिक अपराध है.


Rani Sahu

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