सम्पादकीय

सियासी बाजार में नेता ब्रांड

Rani Sahu
22 Oct 2021 6:39 PM GMT
सियासी बाजार में नेता ब्रांड
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बिहार के दूरस्थ गांव में एक लोकगीत सुना था, ‘मायापुर बजरिया में सब कुछ बिकानी’ अर्थात मायापुर बाजार में सब कुछ बिकता है

बद्री नारायण बिहार के दूरस्थ गांव में एक लोकगीत सुना था, 'मायापुर बजरिया में सब कुछ बिकानी' अर्थात मायापुर बाजार में सब कुछ बिकता है। सामान, आदमी, सत्ता-शक्ति, राजनीति सब कुछ! हम सब एक प्रकार के बाजार में रहते हैं। हमारा माइंड स्पेश ही धीरे-धीरे बाजार में तब्दील होता जा रहा है। यूं तो सभ्यता के विकास के साथ बाजार को विकसित होना ही था, मगर 1990 के बाद उदार अर्थव्यवस्था के शुरू होने के बाद न केवल भारत में, वरन दुनिया के अनेक पश्चिमी-गैर पश्चिमी मूल्यों में, जहां बाजार का विस्तार धीमा था, वहां उसका आक्रामक प्रसार हुआ है। बाजार के इस आक्रामक प्रसार ने न केवल हमारे जीवन को बदला है, बल्कि राजनीति, संस्कृति और हमारे दैनिक जीवन की भाषा को भी बदल दिया है।

भारत में बाजार के इतने आक्रामक प्रसार के बावजूद भारतीय जीवन की जड़ें अपनी जमीन में गहरे पैठे होने के कारण यहां परिवर्तनों की गति उतनी तेज नहीं है। भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में आज इसी बाजार के असर के कारण राजनीति की भाषा, गोलबंदी की तकनीक, संवाद एवं राजनीति करने के ढंग में परिवर्तन हो रहा है। आज भारतीय राजनीति में पॉलिटिकल मैनेजर, पॉलिटिकल ब्रांड जैसे शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। शायद यह माना जाने लगा है कि हमारा मतदाता भी उपभोक्ता है, उसे लक्ष्य कर अपनी राजनीति एवं अपने नेता को एक 'ब्रांड' में तब्दील करना होगा। इसके लिए आजकल राजनीतिक दल चुनावी रणनीति एवं प्रचार-प्रसार के लिए पेशेवर कंपनियों का सहारा लेने लगे हैं। अपने ब्रांड को दूसरों से बेहतर बताने के लिए रणनीति बनाने वाले, सर्वेक्षण करने वाले एवं नारे बनाने वाले हमारी राजनीति में वैसे ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं, जैसे बाजार में अपने उत्पाद को लोकप्रिय बनाने के लिए उत्पादक, विक्रेता एवं कॉरपोरेट कंपनियां करती हैं। इसमें प्रबंधक, विज्ञापन गुरु, कंटेंट राइटर मिलकर काम करते हैं। सबका लक्ष्य होता है, जिस राजनीतिक दल के साथ वे काम कर रहे हैं, उसके ब्रांड को अन्य ब्रांड से बेहतर सिद्ध करें। अनेक सोशल साइट्स में अपने-अपने पॉलिटिकल ब्रांड के लिए लोकप्रिय कंटेंट बनवाने, उसके लिए 'लाइक' प्राप्त करने में आज राजनीतिक शक्तियां अच्छा-खासा निवेश करने लगी हैं।
आज की राजनीति में परदे के पीछे काम करने वाले ये 'मस्तिष्क' या 'थिंक टैंक' वैसे ही सोचते हैं, जैसे कॉरपोरेट कंपनियों के सामान बेचने के लिए बाजारगत रणनीति बनाने के लिए सोचा जाता है। इनमें से कई ग्रुप तो ऐसे मिलेंगे, जो एक ही साथ उत्पाद बेचने एवं राजनीतिक दलों के ब्रांड को चुनावों में लोकप्रिय बनाने के काम में लगे होते हैं। इनमें बैंकर्स, मैनेजमेंट विशेषज्ञ, सोशल साइट के लिए कंटेंट तैयार करने वाले, सभी साथ मिलकर काम करते मिलेंगे। अत: सोशल साइट्स पर जो आपको दिखता है, उसे जनता की सहज निर्दोष प्रतिक्रिया मान लेना हमारी बड़ी भूल होगी।
भारत में 'पॉलिटिकल ब्रांड' निर्माण की प्रक्रिया पश्चिमी देशों में भिन्न है, किंतु चुनाव प्रबंधन में लगे ये 'प्रोफेशनल ग्रुप' कई बार पश्चिमी देशों में राजनीति के ब्रांड मेकिंग की प्रक्रिया को दोहराने लगते हैं। डोनाल्ड ट्रंप की तरह मीडिया पर आक्रामक रहने का सुझाव देने लगते हैं और ओबामा की तरह के नारे गढ़ने व गढ़वाने लगते हैं। फलत: वे कई बार अपने मकसद में चूक जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज में बाजार के विस्तार के बावजूद जनता का उपभोक्ता समूह में रूपांतरण की प्रक्रिया धीमी है।
किसी भी ब्रांड को अपनी विशिष्टता, विभिन्नता एवं प्रामाणिकता साबित करनी होती है। भारत में पॉलिटिकल ब्रांड के उभार की प्रक्रिया में प्रामाणिकता उस नेता को मिलती है, जिसका जुड़ाव उस राजनीतिक दल के साथ होता है, जिसकी जनता में अच्छी छवि होती है या जो किसी राजनीतिक परिवार से जुड़ा होता है। यह ठीक है कि 'परफॉरमेंस', 'डेलिवरी' जैसे शब्द आज शासन विमर्श या राजनीति में खूब उपयोग में लाए जा रहे हैं, किंतु भारतीय जनता अभी भी लगाव, संवेदना विकसित करने के पारंपरिक उपादानों से ही अपने काम चलाती है।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव शीघ्र होने जा रहा है। माना जा रहा है कि इस चुनाव में कई पॉलिटिकल ब्रांड आपस में टकराएंगे। एक तरफ, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सशक्त ब्रांड है, जिसमें 'हिंदुत्व' का विचार उनके लिए जनता के एक बड़े वर्ग से सहज ही संबंध रच देता है। उत्तर प्रदेश के गांवों में घूमते हुए हमने कई बार सुना है कि 'योगी-मोदी' एक हैं। योगी के ब्रांड को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि भी प्रभावी बनाती रहती है। उनके ब्रांड को इस चुनाव में भाजपा एक दृढ़ प्रशासक की छवि के रूप में प्रचारित करना चाहती है, जिसने लोगों के जीवन में अपराधियों की मौजूदगी को खत्म किया। सरकारी योजनाओं को नीचे तक पहुंचाने, विधि एवं शासन को प्रभावी बनाने वाले नेता के रूप में उनके ब्रांड को प्रचारित करने में लगा समूह विपक्ष के प्रतिघातों के असर को कम करना चाहता है।
दूसरी तरफ, सपा नेता अखिलेश यादव का ब्रांड विकसित किया जा रहा है, जिसका मूल आधार उत्तर प्रदेश में भाजपा की नीतियों की आलोचना पर टिका है। तीसरी तरफ, मायावती के पॉलिटकल ब्रांड को दलित शक्ति, नारी शक्ति, योग्य व बड़े प्रशासक की छवि के रूप में निर्मित किया जा रहा है। इस चुनाव में बड़ी तैयारी कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी को एक ब्रांड के रूप में विकसित करने की होती दिख रही है। उनके ब्रांड रचने में लगे रणनीतिकार उनको नेहरू परिवार, इंदिरा गांधी की तरह दिखने व व्यवहार करने से जोड़कर देख रहे हैं। उन्हें संघर्षशील व्यक्तित्व के रूप में प्रचारित कर उनका ब्रांड रच रहे हैं। सेकुलरिज्म की शक्ति को हिंदुत्व की राजनीति ने कमजोर कर दिया है, अत: उनकी छवि निर्माण में सर्वधर्म समभाव एवं हिंदू धर्म से जुड़ाव सिद्ध करने की जरूरत उनका ब्रांड रचने वाले महसूस कर रहे हैं।
बेशक, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव ब्रांड, रणनीति, लोकप्रिय नारों, आधुनिक विज्ञापनों, संवादों व संदेशों के टकराव से भरा होगा। फिर भी इन ब्रांड की सफलता सिर्फ सोशल साइट्स के योद्धा विज्ञापन गुरु और ब्रांड एंबेसडर नहीं तय करेंगे, क्योंकि अब भी भारतीय जनता अपने पारंपरिक रिश्तों, लगावों, संवेदनाओं पर ज्यादा विश्वास करती है। कल्याणकारी योजनाओं के प्रभाव एवं उनसे होने वाले लाभ-हानि की भूमिका उसका पक्ष-विपक्ष तय करने में इस बार भी महत्वपूर्ण होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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