सम्पादकीय

लावरोव का 'लवली' दौरा

Subhi
2 April 2022 4:16 AM GMT
लावरोव का लवली दौरा
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भारत और रूस के आपसी सम्बन्ध ऐतिहासिक रूप से कितने प्रगाढ़ और मधुर हैं, इसका अंदाजा इसी तथ्य से हो जाता है कि जब 1955 के नवम्बर महीने में सोवियत संघ के नेता सर्वश्री बुल्गानिन और ख्रुश्चेव स्वतन्त्र भारत की पहली यात्रा पर आये तो उन्होंने पत्रकारों द्वारा कश्मीर के बारे में पूछे गये सवाल के जवाब में कहा था कि ‘जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में विधिवत विलय हो चुका है

आदित्य चोपड़ा; भारत और रूस के आपसी सम्बन्ध ऐतिहासिक रूप से कितने प्रगाढ़ और मधुर हैं, इसका अंदाजा इसी तथ्य से हो जाता है कि जब 1955 के नवम्बर महीने में सोवियत संघ के नेता सर्वश्री बुल्गानिन और ख्रुश्चेव स्वतन्त्र भारत की पहली यात्रा पर आये तो उन्होंने पत्रकारों द्वारा कश्मीर के बारे में पूछे गये सवाल के जवाब में कहा था कि 'जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में विधिवत विलय हो चुका है और यह पूरा राज्य भारत का हिस्सा है'। अतः यूक्रेन-रूस युद्ध के परिप्रेक्ष्य में जिस तरह अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय ताकतें भारत की विदेश नीति को प्रभावित करने की गरज से नये-नये तर्क देने की कोशिशें कर रही हैं उनका भारत के वृहद राष्ट्रीय हितों से कोई लेना-देना इस हकीकत के बावजूद नहीं हैं कि आज की दुनिया का 'शक्ति सन्तुलन' गुणात्मक रूप से बदल चुका है और इस बदलते विश्व क्रम (वर्ल्ड आर्डर) में भारत की स्थिति पूरी दुनिया में निर्णायक 'सन्तुलक' की बन चुकी है। रूस के विदेशमन्त्री श्री सर्जेई लावरोव की भारत यात्रा दोनों देशों के बीच के इन्हीं आपसी हितों को मजबूत रिश्ते पर टिकी हुई है जिसमें उन्होंने भारत की स्वतन्त्र विदेश नीति की प्रशंसा करते हुए स्वीकार किया है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में भारत द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर निभाई गई भूमिका का सम्मान करता है। श्री लावरोव ने भारत के विदेशमन्त्री श्री एस. जयशंकर के साथ बातचीत करने के बाद एक प्रेस कान्फ्रेंस करके स्पष्ट कर दिया कि उनकी यह यात्रा एक मित्र देश की यात्रा है और उन्हें भारत के साथ रूस के रिश्तों की कद्र है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत महत्वपूर्ण देश है वो रूस-यूक्रेन में मध्यस्थता करा सकता है।मगर दूसरी तरफ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पिछले कुछ सप्ताहों से भारत में विदेश से आने वाले मेहमानों की बाढ़ लगी हुई है। इनमें अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, चीन, इस्राइल आदि के राजनयिक शामिल हैं। अमेरिका ने तो पहले अपनी विदेश उपमन्त्री को भेजा और बाद में उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दिलीप सिंह को भेजा जिन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर चीन पुनः भारत की सीमा रेखा का उल्लंघन करता है तो रूस उसकी मदद के लिए नहीं आयेगा। हालांकि दिलीप सिंह भारतीय मूल के हैं मगर उनके ये शब्द न तो कूटनीतिक और न ही राजनयिक मर्यादा का पालन करते हुए लगते हैं। उनसे पहले उन्ही की देश की विदेश उपमन्त्री यहां तक कह गई थीं कि यदि भारत रूस के साथ अपने सामरिक सम्बन्धों को लेकर चिन्तित है तो अमेरिका उसे युद्ध का साजो-सामान उपलब्ध करा सकता है। आखिरकार अमेरीकियों ने भारत को क्या समझ रखा है? क्या अमेरिका व पश्चिमी देश यह समझते हैं कि रूस के विरुद्ध मनमाने तरीके से आर्थिक प्रतिबन्ध लगा कर वे भारत के रुख में परिवर्तन ला सकते हैं ? क्या अमेरिका यह भूल चुका है कि 1974 में भारत द्वारा पहला परमाणु परीक्षण करने के बाद उसने भारत के खिलाफ भी कठोर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये थे मगर भारत इसके बावजूद तरक्की करता रहा और दूसरी तरफ वह पाकिस्तान को अफगानिस्तान में रूसी फौजों के खिलाफ तालिबानी संस्कृति पनपाने के लिए दोनों हाथों से वित्तीय मदद देता रहा। अतः भारत के राजनेता जानते हैं कि उनके देश और इसके लोगों के लिए कैसी विदेशनीति होनी चाहिए। बल्कि भारत तो वह मुल्क है जिसकी विदेशनीति पर देश के भीतर विभिन्न राजनैतिक दलों के बीच भी कभी मतभेद नहीं रहा। यूक्रेन विवाद पर भी भारत का रुख स्पष्ट है और वह इसकी शान्ति व सह अस्तित्व की नीति से निर्देशित है कि किसी भी द्विपक्षीय विवाद का हल कूटनीतिक वार्ता के माध्यम से निकाला जाना चाहिए और अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का पालन किया जाना चाहिए जिनका सम्बन्ध हर देश की भौगोलिक संप्रभुता से होता है। मगर इसका मतलब यह नहीं होता कि कोई भी शक्तिशाली देश किसी दूसरे देश में अपनी फौजी ताकत के जखीरे बढ़ा कर किसी अन्य देश के ​लिए खतरा पैदा करने की कोशिश करे। श्री लावरोव ने इस वास्तविकता को रेखांकित करते हुए कहा कि पश्चिमी ताकतें यूक्रेन को अपना गढ़ बना कर रूस को कमजोर करने की कोशिशों में पिछले लम्बे अर्से से लगी हुई थीं। यह बहुत साधारण सी बात है कि यदि ऐसा न होता तो यूक्रेन पश्चिमी देशों के सामरिक संगठन 'नाटो' की सदस्यता पर क्यों अड़ा रहता जबकि 1989 में ही सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद उसके नेतृत्व वाले जवाबी सामरिक संगठन 'वारसा सन्धि' का विसर्जन कर दिया गया था और नाटो से वादा लिया गया था कि वह रूस निकटवर्ती देशों में अपना विस्तार नहीं करेगा। इसके बावजूद नाटों की सदस्यता कई सोवियत संघ से अलग हुए देशों को दे दी गई। अतः रूस के विदेश मन्त्री लावरोव के अनुसार यूक्रेन में उनके देश द्वारा जो कार्रवाई हो रही है वह कोई युद्ध नहीं बल्कि एक 'विशेष सैनिक कार्रवाई' है जिसके तहत यूक्रेन के सैनिक ठिकानों को ही निशाना बनाया जा रहा है और नागरिक ढांचों को कोई नुकसान पहुंचाने की मंशा नहीं है। श्री लावरोव ने प्रधानन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से भी मुलाकात की है। इसका भी खास मतलब है क्योंकि पिछले दिनों जब चीन के विदेशमन्त्री यांग यी भारत आये थे तो उन्होंने भी श्री मोदी से मिलने की इच्छा व्यक्त की थी परन्तु उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी गई थी। इसी से स्पष्ट होता है कि दोनों देशों के आपसी हित किस तरह गुंथे हुए हैं और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रधानमन्त्री का क्या रुतबा और स्थान है। मगर श्री लावरोव ने अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में कई बार चीन का भी नाम लिया अतः भारत को कूटनीतिक रास्तों से चीन पर भी दबाव बनाना चाहिए कि वह बदलते विश्व क्रम में भारत के साथ अपने तनाव समाप्त करने की दिशा में निर्णायक कदम उठाये और अर्से से चले आ रहे सीमाविवाद को हल करने के शान्तिपूर्ण रास्ते खोजे जिससे विश्व एकल ध्रुवीय बनने के स्थान पर बहुध्रुवीय बन सके और विश्व शान्ति का मार्ग अग्रसर हो सके।

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