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स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी जीवित सांस्कृतिक उपस्थितियों में शिखर पर मौजूद महान पाश्र्वगायिका लता मंगेशकर के निधन ने ऐसा गहरा दुःख पैदा किया है
यतींद्र मिश्रा ,
स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी जीवित सांस्कृतिक उपस्थितियों में शिखर पर मौजूद महान पाश्र्वगायिका लता मंगेशकर के निधन ने ऐसा गहरा दुःख पैदा किया है, जिसकी तड़प और वेदना का असर भारत से बाहर दक्षिण एशियाई देशों तक पसर गया है. एक आवाज़, कैसे प्रतिमान बनते हुए हर एक भारतीय नागरिक के सपनों और आशाओं का झिलमिलाता संसार हो गयी, ये संगीत की दुनिया को भी आगे समझने में शताब्दियाँ लग जायेंगी. लता दीनानाथ मंगेशकर, सिर्फ़ हिन्दी फ़िल्म संगीत का ही अहम मुकाम नहीं हैं, वरन वह उस संघर्ष और जिजीविषा का सबसे सलोना रंग भी है, जिसका अनुसरण करते हुए पिछली शताब्दी में बहुत सारे गायक-गायिकाओं ने अपने हिस्से का संघर्ष करते हुए कुछ बड़ा रचने की उम्मीदें पालीं/ नश्वरता को अमर करने वाले ढेरों अविस्मरणीय गीतों को गाते हुए स्वयं लता मंगेशकर अमर बन गयीं, जिनकी सांगीतिक थाती को सहेजना और उसका बार-बार विश्लेषण करना नयी पीढ़ी को हमेशा चैंकाता रहेगा. 1949 में संगीतकार श्यामसुन्दर के संगीत निर्देशन में 'लाहौर' फ़िल्म के लिए जब उन्होंने 'बहारें फिर भी आएँगी, मगर हम-तुम जुदा होंगे' गाया था, तब उन्हें भी इस बात का हल्का सा भी भान नहीं रहा होगा कि सात दशकों बाद भी उनकी आवाज़ का स्थानापन्न मिलना तो दूर, बनना भी सम्भव नहीं जान पड़ेगा.
उस्ताद अमान अली ख़ाँ भेंड़ी बाज़ार वाले की शिष्या और पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ की चहेती पाश्र्वगायिका के सांगीतिक जीवन के अनेकों दुर्लभ उपलब्धियाँ हैं, जो कहीं इस बात पर मुहर लगाती हैं कि हर कला संगीत के शिखर पर पहुँचने का स्वप्न देखती है. एक ऐसी गायिका, जो अपने युवावस्था में भावप्रधान गायिकी के चलते भारत के पहले प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू की आँखों में आँसू ला देती हैं. अपनी संगीत साधना के प्रति इतनी डूबी हुई कि उन्हें दिन-महीने, मौसम-त्यौहार, अवसर और प्रतिष्ठा के बदलते हुए ढेरों सोपान कभी विचलित नहीं कर पाए. बरसों तक उनके लिए होली-दीपावली का मतलब भी एक आम दिन की तरह ही होता था, जब वो सुबह तैयार होकर रेकॉर्डिंग कराने एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो पहुँच जाती थीं. उन्हें संगीतकार नौशाद अचरज से टोकते थे- 'लता, आज तो दीवाली है और आपको छुट्टी लेनी चाहिए!', इस पर लता मंगेशकर का संयत सा इतना भर जवाब होता था- 'नौशाद साहब, मेरे लिए तो होली-दिवाली सभी कुछ संगीत ही है और मेरी रेकॉर्डिंग।' मेरे एक सवाल की एवज में कि 'यदि ईश्वर आपसे मोक्ष और संगीत में से एक स्थिति चुनने को कहे, तो वह क्या होगा?' उन्होंने पचासी वर्ष की भरी-पूरी उम्र में यह कहा था- 'फिर मुझे संगीत ही चाहिए. मेरा संगीत ही मुझे अन्ततः जन्म-मृत्यु के खेल से मुक्त करेगा.'
ऐसा वीतरागी भाव, सादगी और अपनी ही कला में डूबे हुए ईश्वर को पाने का भाव कितने कलाकारों को हासिल है? क्या संगीत का आम श्रोता यह नहीं जानता कि अपनी ढेरों प्रस्तुतियों से उन्होंने उस मोक्ष को जीते जी ही पा लिया था, जिसके लिए सूफी और कलन्दर, सन्त और निर्गुणिए जीवन भर साधना करते रहते हैं. उनकी गायकी 'भगवत गीता', राम भजन की 'राम रतन धन पायो', मीराबाई की 'चला वाही देस' और मीरा भजन, 'ज्ञानेश्वरी', अभंग पद गायन और इस्लाम की परम्परा में नात व गुरुबाणी तथा सबद कीर्तन उन्हें भक्ति के कई रास्तों से गुजारकर संगीत के उस उदात्त मार्ग पर कब का ले आए थे, जहाँ से 'मनेर मानुष' होने की युक्ति को अर्थ मिलता है.
घर-घर में व्याप्त, अपनी आवाज़ के जादू से करोड़ों दिलों में छाई हुईं और मानवीय संवेदनाओं की सबसे सार्थक अभिव्यक्ति का पर्याय बनी हुईं लता मंगेशकर भले शारीरिक ढंग से आज हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनकी आवाज़ की अमरता से झुठलाया हुआ मृत्यु का खेल ऊपर कहीं देवताओं को भी लजाता होगा. वे उस गन्धर्व लोक में प्रस्थान कर गयी हैं, जहाँ अब ज़्यादा बड़े रूप में सांगीतिक वातावरण का माहौल सज गया होगा. हमारी पीढ़ी आज ऐसी सुरीली उपस्थिति से वंचित हो गयी है, जिनके होने से संगीत को अपने पर गर्व करने का बहाना मिलता रहता था. लता जी के बारे में कोई भी विचार, प्रार्थना, शोक-गीत, श्रद्धांजलि-लेख और संस्मरण नाकाफ़ी है, क्योंकि उनकी महाकाव्यात्मक जीवन-यात्रा को पूरी तरह उजागर करने की शक्ति किसी भी श्रोता, रसिक या सहृदय के बस में नहीं है. वे तो बस अपने होने के साथ आवाज़ की दुनिया का ऐसा उत्सव थीं, जिनके आँचल के साए में जीना हमें भावुक और मानवीय बनाता था. मेरे जैसे अदने से लेखक की क्या हैसियत है, जो उनके बारे में कोई श्रद्धा-लेख लिखकर उनके दाय को रेखांकित कर सके? हम अपनी सजल करुणा और उनके प्रति आदर-बोध को जब भी प्रकट करना चाहेंगे, तब-तब उनके द्वारा गायी हुई, राग-रागिनियाँ, फ़िल्मी गीतों के बोल और ग़ैर फ़िल्मी गायन उनके ज़िन्दा रहने के एहसास को और बड़ा बना देंगे। नौशाद के संगीत और शकील बदायूँनी द्वारा बनाए हुए 'दिल दिया दर्द लिया' (1966) के इस गीत में लता मंगेशकर आज ज़्यादा प्रासंगिक होकर नज़र आती हैं-
जब दिल ने कोई आवाज़ सुनी
तेरा ही तराना याद आया
फिर तेरी कहानी याद आई
फिर तेरा फ़साना याद आया....
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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