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- जिंदगी की लालटेन
लोकेंद्रसिंह कोट: विचित्र है यह जीवन और उसे जीने का यह धंधा। जीवन को समझना आसान नहीं होता। कभी सहज तो कभी असहज, कभी सुख तो कभी दुख, कभी सत्य तो कभी असत्य, कभी आशा तो कभी निराशा आदि जैसे विरोधाभासों का ही तो नाम है जीवन। विचारों, अनुभूतियों, आत्मीयता, अंतरंगता, तन्मयता, करुणा, कृतज्ञता, विनम्रता आदि का एक रूहानी कैनवास पर चित्रण ही जीवन है। जीवन की तमाम भौतिक, सांसारिक उलझनों के आगे जीवन का रहस्य दबा रह जाता है।
जब कभी जीवन समझ में नहीं आता तो बरगद का एक फल तोड़ें, उसमें देखें, उसमें क्या दिखाई देता है? चंद छोटे-छोटे बीज ही न! नहीं! आपने गलत देखा है। इस बीज में अंतर्निहित सूक्ष्म पदार्थ को आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता है। इसमें अपनी समस्त शाखाओं-प्रशाखाओं सहित भावी जीवन के रूप में एक विशाल वट वृक्ष स्थित है। यही छोटा-सा बीज वट वृक्ष बनने की प्रक्रिया में अनगिनत कष्ट सहन करता है, पर जीवन के अर्थ को ढूंढ़ ही लेता है।
इस तरह देखा जाए तो प्रारंभ से ही जीवन कर्म से जुड़ा होता है। अलौकिक अभिन्नता के कारण कभी-कभी कर्म ही जीवन का पर्याय लगने लगता है, यानी कर्म ही जीवन है की अनुभूति होती है। विश्व ब्रह्मांड की विशालता के समक्ष एक जीव का अस्तित्व एक बड़ी फुटबाल के ऊपर अणु की स्थिति के बराबर रहता है। पर फिर भी वह जीव अपनी दुनिया बसा लेता है और उसमें ही खो जाता है। प्रत्येक जीवन के अंदर एक विशेष प्रकार की महानता उसी प्रकार निवास करती है, जिस प्रकार तिल में तेल का तथा अरणि में अग्नि का निवास होता है।
इस तेल और अग्नि के प्रकटीकरण के लिए जिस प्रकार घर्षण अपेक्षित है, उसी प्रकार जीवन को चलायमान रखने के लिए कर्म आवश्यक होता है। इस संघर्ष को पार कर लेना ही दूसरे जीवन का उद्घोष है। जीवन हमेशा कई स्तरों में बंटा होता है और जीव का धर्म यह रहता है कि वह प्रत्येक स्तर को सफलतापूर्वक पार करें। मनुस्मृतिकार ने कर्मधर्मा जीवन की गति के विषय में लिखा है कि 'एक शरीर से निकल कर पुन: कर्म में प्रवेश करना और योनियों में भ्रमण करना, यह सब अपने कर्म दोष का फल है और कुछ नहीं'।
जीवन है तो कर्म है और कर्म है तो जीवन चलाने के लिए उसके फल भी निर्धारित हैं, पर कर्म को चलाना, उसे हांकना हमारे हाथ में है। हमारे हांकने के ढंग और प्रकार पर ही निर्धारित कर्मफल की प्राप्ति होती है। यही जीवन का शाश्वत नियम है। इसलिए किसी कर्म फल के प्रति ऊहापोह का परिणाम यह होगा कि हम उस जीवन को जी नहीं रहे होंगे, बल्कि बोझ की तरह ढो रहे होंगे।
साथ ही यह भी हो सकता है कि हम अपने सम्मुख उपस्थित कर्तव्यों के प्रति प्रमाद करने लग जाएं। यहीं से जन्म होता है सुख-दुख, आशा-निराशा, सत्य-असत्य आदि विरोधाभासों का। दरअसल, कर्म केवल शरीर से नहीं, वचन और मन से भी होता है। वाणी से जो निकलता है, मन में जो विचार आता है, वे सब भी अपना प्रभाव और फल उत्पन्न करते हैं।
जीवन अपने भौतिक स्वरूप में मनुष्यों, जंतुओं और पेड़-पौधों में भी होता है, पर इसका सर्वाधिक आनंद मनुष्य ही उठाता है। स्वाभाविक है कि कर्मजन्य सभी विरोधाभासों को भी सहन करना उसकी नियति होनी चाहिए। इसमें जीवन से कोई गिला या शिकवा नहीं होना चाहिए। मगर विडंबना है कि जीवन का सही अर्थ वास्तव में जीव-जंतु और पेड़-पौधे कहीं अच्छी तरह से समझे हैं, मनुष्य की तुलना में। गुलाब का पौधा चाहे वह किसी कूड़े पर ही क्यों न उगा हो, वह वहां से सिर्फ खुशबू लेता है, गन्ने का पौधा सिर्फ मिठास। यह मनुष्य जीवन को एक संदेश है कि कितनी भी विपरीत परिस्थितियां हों, जिस तरह गुलाब अपनी खुशबू और गन्ना अपनी मिठास लेना नहीं छोड़ता है उसी प्रकार मनुष्य को जीवन में क्या छोड़ना है, क्या रखना है, निर्धारित कर लेना चाहिए। यही जीवन को जीने का असली ढंग होगा।
अगर हम जीवन के लक्षणों की बात करें तो जीवन का पहला और स्पष्ट लक्षण है- विस्तार। जीवित रहना है, तो उसके लिए फैलना होगा। जहां विस्तार रुका, ढेरों विपत्तियां सामने होंगी और जीवन का अस्तित्व मिटता जाएगा, क्योंकि विस्तार का अभाव मृत्यु का परिचायक है। जीवन की सार्थकता यही है कि हम 'प्रकाश' फैलाएं, जिससे अंधकार का नाश हो और रास्ते दिखाई देने लगें।
एक पुरानी कहानी के अनुसार, एक अंधा व्यक्ति हमेशा रात में एक लालटेन लेकर ही चलता था और सुरक्षित बना रहता था। साथ ही राहगीरों को अंधेरे में रास्ता देखने में सहायता प्रदान करता था। इससे स्पष्ट है कि जीवन में अगर अंधेरा हो, तो उसमें प्रकाश का विस्तार किया जाए। प्लेटो का दर्शन यहां विचारणीय होगा कि 'महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि हम कितने दिन जीवित रहते हैं, महत्त्वपूर्ण यह है कि हम किस प्रकार जीवित रहते हैं।'