सम्पादकीय

भाषा वही-परिभाषा नयी : वे 'कल' भी बनाने निकले हैं

Rani Sahu
7 March 2022 10:55 AM GMT
भाषा वही-परिभाषा नयी : वे कल भी बनाने निकले हैं
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चार साल पहले की बात- सम्भवतः दिसम्बर महीने के प्रथम सप्ताह के पहले दिन की. सीनियर रिपोर्टर पीएन सिंह साहब ने फोन पर शर्मा जी को सूचना दी – “गुरू, इस साल भी टाटा स्टील (TATA STEEL) का झारखंड लिटरेरी मीट (JHARKHAND LITERARY MEET) हो रहा है

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चार साल पहले की बात- सम्भवतः दिसम्बर महीने के प्रथम सप्ताह के पहले दिन की. सीनियर रिपोर्टर पीएन सिंह साहब ने फोन पर शर्मा जी को सूचना दी – "गुरू, इस साल भी टाटा स्टील (TATA STEEL) का झारखंड लिटरेरी मीट (JHARKHAND LITERARY MEET) हो रहा है."
वह शर्मा जी को गुरु नहीं, बल्कि शब्द को लम्बा खींचकर गुरूss कहते हैं. वह, पहले, मजाक में घंटी की अनुगूंज की तरह गुरू शब्द को खींचते थे. अब यह उनकी आदत हो गयी है. सिंह साहब पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार के रांची संवाददाता हैं. वह आम तौर पर हिंगलिश में बतियाते हैं – अपने मीडिया हाउस से प्रकाशित हिंदी अखबार के पत्रकार मित्रों से भी.
शर्मा जी हाल में अवकाश-प्राप्त कर स्वतंत्र होने का अभिशाप-सुख भोग रहे हैं. फिलहाल राम नगर, पश्चिम चम्पारण के अपने पैतृक गाँव में हैं. करीब साल भर बाद सिंह साहब का फोन पाकर शर्मा जी गद-गद हुए. उन्होंने हुलस कर पूछा – "अच्छा! कब है?"
"8-9 दिसम्बर को, अगले सप्ताह. प्रेस कांफ्रेंस में कार्यक्रम का अंग्रेजी में बॉशुअॅ (brochure) बंटा है, सॉरी, तुम्हारे शब्दों में, विवरणिका बंटी है. सुन्दर कागज़ के बॉशुऑ में लिटरेरी मीट के कार्यक्रमों की हिंदी सूचना अंग्रेजी लिपि में दी गयी है. उस फोल्डर के कवर पेज पर हिन्दी के चार शब्दों की टैग लाइन, यानी सूत्र-वाक्य, अंकित है – "भाषा वही परिभाषा नयी"!
"अच्छा-अच्छा, यह तो पिछले साल के आयोजन का भी सूत्र-वाक्य था. वह आयोजन हिंदी दैनिक 'प्रभात खबर' और 'टाटा स्टील' के संयुक्त तत्वावधान में प्रायोजित था. इस बार भी वही होगा. है न?"
"हां, मैंने पिछले साल के पूरे इवेंट की रिपोर्टिंग की थी, तुमने देखा ही होगा?"
"नहीं, पिछले दो-तीन साल से अंग्रेजी अखबार देखने-पढ़ने का मौक़ा ही नहीं मिला. अब तो लगता है, गांव के आम लोगों के बीच जीने के लिए अंग्रेजी तो क्या, हिंदी अखबार भी बेमानी हैं. खैर, तुम लिटरेरी मीट के बारे में क्या कह रहे थे? कोई समस्या है क्या?"
"यार शर्मा, समस्या माने प्रॉब्लम वही है, जो पिछले साल थी. उस वक्त भी तुमसे पूछा था – 'भाषा वही परिभाषा नयी' का अंग्रेजी ट्रांसलेशन क्या है? same language, new definition? इसका क्या माने? हमारे गाँव में पूजा के वक्त पुजारी संस्कृत में मंत्रजाप करता है, और निरक्षर भक्त मंत्र का अर्थ समझे बिना ही पूरी आस्था के साथ सिर झुकाए झूमता है, कुछ इसी तरह की है ये टैग लाइन – संस्कृत श्लोक से भी ज्यादा अबूझ…!"
सिंह साहब की व्यथा सुनकर शर्माजी ठहाका लगाते हुए बोले – "सिंह बंधु, तुम इतना परेशान हो गये! क्यों? पिछले साल के आयोजन में तो इंडिया के कई दिग्गज लेखक-पत्रकारों ने शिरकत की थी. क्या उन्होंने इसके बारे में कुछ नहीं बताया?"
सिंह साहब तुनक गये – "अबे, तुम तो अजीब भुलक्कड़ हो गये हो! मैंने उस इवेंट की रिपोर्टिंग करने के बाद तुमको फोन पर बताया तो था कि उसमें तुम्हारी हिंदी के सेल्फ रिस्पेक्टिंग (स्वनामधन्य) पत्रकार राहुलदेव आये थे. आयोजन पर उनका एक 'ट्वीट' सोशल मीडिया में आया भी था. उसमें उन्होंने लिखा कि 'झारखंड लिटरेरी मीट में नयी हिंदी के तीन सितारा लेखक अपनी चर्चा में अंग्रेजी के एक वाक्य भी बमुश्किल बोले. और उस 'मीट' में कांग्रेसी नेता, दक्षिण भारतीय अंग्रेजी लेखक जयराम रमेश हिंदी में बोले. उनकी अंग्रेजी में लिखी किताब 'इंदिरा गांधी : ए लाइफ इन नेचर' पर चर्चा हुई. उसमें सवाल-जवाब वाले सेशन में जयराम रमेश के साथ देवप्रिया रॉय मौजूद थीं…"
"ओ हां, याद आया, याद आया. तुमने कहा था कि जयराम रमेश ने अपनी किताब में इंदिरा गांधी के हिंदू नेचर का जिक्र किया था."
"तो तुमको ये भी याद होगा कि मैंने बताया था कि जयराम रमेश ने अपनी किताब की चर्चा करते हुए 'आयरन लेडी' कहानेवाली इंदिरा गांधी को प्रकृति की बेटी सिद्ध करने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया था. उन्होंने कहा कि इंदिरा जी देश की पहली और आखिरी प्रधानमंत्री थीं, जो हमारे देश की विरासत, परंपरा, धार्मिक ग्रंथों आदि से प्रेरणा लेकर पर्यावरण की चिंता करती थीं. देश के विद्वानों ने 'धर्मों रक्षति रक्षित:' का सिद्धांत प्रतिपादित किया. इंदिरा जी ने इसी सिद्धांत पर 'प्रकृति रक्षति रक्षित:' बेस्ड प्लान्स बनाने का प्रयास किया. वे अपने सहयोगियों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के लिए भारतीय वेद और उपनिषद समेत तमाम ग्रंथों से प्ररेणा लेती थीं और फिर उस पर अमल करती थीं….
"हां, याद आया, जयराम रमेश ने अपने लेक्चर में इदिरा जी को बीजेपी के हिंदुत्ववादी नैरेटिव में फिट कर दिया…"
"एग्जक्टली! इसीलिए मैंने तुमसे पूछा था कि इंदिरा गांधी ने स्टॉकहोम सम्मेलन के भाषण में क्या कहा, इसके बारे में तुमने कुछ पढ़ा या नहीं? क्योंकि जयराम रमेश ने बतौर प्रमाण यह भी कहा कि 1972 में स्टॉकहोम में करीब 130 देशों का सम्मेलन आयोजित किया गया था, तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी विश्व के नेताओं में पहली ऐसी शख्सियत थीं, जिन्होंने अपने भाषण में पर्यावरण को लेकर चिंता जाहिर की. उस समय तो भारत के मीडिया और बुद्धजीवियों में पर्यावरण को लेकर बहुत कम बात की जाती थी. यह बहुत कम लोग ही जानते हैं कि इंदिरा गांधी वन संरक्षण के लिए छेड़े गये 'चिपको आंदोलन' से प्रभावित थीं…. याद आया?"
"हां-हां, तब शायद मैंने तुमको बताया था कि 1972 के स्टाकहोम सम्मेलन में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने भाषण में कहा था – 'गरीबी सबसे बड़ा प्रदूषक है…'
"तब मैंने क्या कहा था, यह याद है?"
"नहीं. क्या कहा था?"
"कि राहुलदेव ने अपने ट्वीट में हिंदी लेखकों के अंग्रेजी में बतियाने और अंग्रेजी लेखक जयराम रमेश के हिंदी में बोलने को विडम्बना और विरोधाभास की संज्ञा दी. तुमने तब बताया कि अंग्रेजी में विडम्बना का माने Irony और विरोधाभास माने Paradox या Antilogy होता है.
"ओ हां, याद आया. तो तुम्हारे कहने का मतलब ये है कि 'भाषा वही-परिभाषा नयी' सूत्र का मतलब 'विरोधाभास' और विडम्बना के बीच डोल रहा है?"
"हां, मेरे जैसे देसी अंग्रेजी मीडिया की नौकरी करने वाले से ज्यादा हिंदी मीडिया का धंधा करनेवालों का ये सिर्फ ट्रुथ नहीं, पोस्टट्रुथ है. ये ही मेरा असली प्रॉब्लम है."
"वाह, प्रॉब्लम भी कितना शानदार है! लेकिन यार, ये तुम क्या कह रहे हो, अपन राम के भेजे में नहीं आया."
"तो तुमने जयराम रमेश की किताब नहीं पढ़ी? क्या उसकी कोई समीक्षा भी नहीं पढ़ी?"
"नहीं, उस किताब के कुछ अंश हिंदी अख़बारों में 'साभार' छपे, वह पढ़ा, बस. उसे पढ़ कर मुझे 40-45 पहले की कई घटनाएं याद आयीं. ख़ास कर 1972 के पहले और बाद की घटनाएं, जिनकी मैं और मेरे जैसे कई लोगों ने हिंदी में रिपोर्टिंग की थी. जयराम रमेश ने इंदिरा जी के व्यक्तित्व की नई छवि उकेरकर उनके कृतित्व के विरोधाभास को ढकने का अद्भुत प्रयास किया. उनकी पार्टी के ही एक नेता ने उस दौर में एक राजनीतिक नारा दिया था – 'इंदिरा ईज इंडिया, इंडिया ईज इंडिया'. जयराम रमेश ने अपनी कृति में उस पुराने राजनीतिक नारे का नया साहित्यिक भाष्य पेश कर दिया. मेरे मन में आया कि उस समय की रपटों की कतरनों को निकालकर जयराम रमेश की इंदिरा के रूबरू उस दौर की इंदिरा को खड़ा करूं, लेकिन तुम जानते हो…."
"एस, व्हाई नॉट? तुमने अब तक लिखा नहीं और लिखोगे भी नहीं, क्योंकि हिंदी का 'हर-हर मोदी-घर-घर मोदी' मीडिया उसे छापेगा नहीं, यही न? यही तो मैं कह रहा हूं, जयराम रमेश की अंग्रेजी किताब 'भाषा वही-परिभाषा नयी' सूत्र की नायाब मिसाल है!"
तब शर्मा जी ने हंसते हुए कहा – "अमां यार, अब ये बतखुच्चन छोड़ो, हिंदी लेखकों का विरोधाभास और हिंदी मीडिया की विडम्बना पर बहस छोड़कर अपने अंग्रेजी अखबार में इस टैग लाइन को हिदी लिपि में ही दे दो. तुम्हारे अखबार के पाठक हिंद्री पट्टी – काऊ बेल्ट – के हैं. वे इतने हिंदी अक्षर चीन्ह ही लेंगे."
"ये तो पिछले साल मंच पर टंगे बैनर में था ही, इस बार भी होगा ही. लेकिन इससे 'भाषा वही परिभाषा नयी' का माने किसी अंग्रेजी भाषा के पाठक को तो क्या, हिंदी भाषा के पाठक को भी समझ में नहीं आयेगा. क्या तुमको कुछ समझ में आता है?"
तब शर्मा जी ने बात पलटते हुए पूछा – "अच्छा सिंह, ये सब छोड़ो, तुम बताओ, टाटा स्टील की मूल टैग लाइन क्या है जानते हो?"
"एस, वी आल्सो मेक टुमारो ( We Also Make Tomorrow)."
"हां, लेकिन यह टाटा स्टील की नयी टैग लाइन है. इसका हिन्दी अनुवाद होगा – हम आने वाला कल भी बनाते हैं. लेकिन 40 साल पहले इंदिरा के 'गरीबी हटाओ' के जमाने में टाटा स्टील की टैग लाइन क्या थी जानते हो?"
"नहीं. क्या थी?"
"we also make steel, उस वक्त इसी टैग लाइन ने हिंदी अखबारों में धूम मचा दिया था – 'इस्पात भी हम बनाते है. यानी आज की नयी टैग लाइन का पूरा और असली माने ये है कि टाटा स्टील पिछले सौ सालों से सिर्फ इस्पात नहीं बना रहा था, वो 'इतिहास' बना रहा था, 'वर्तमान' बना रहा था और अब आने वाला 'कल' बनाने की ओर अग्रसर है."
"अमां, इसीलिए तो पूछ रहा हूं, मेरे लिए यह जानना जरूरी है कि झारखंड लिटरेरी मीट की हिंदी टैग लाइन का रीयल मीनिंग क्या है? इसे 'टाटा' के बाजार की राजनीति का लिटरेरी मैसेज (साहित्यिक संदेश) मानूं या राजनीति के बाजार का 'जुमला'?"
"यार, तुम ये बात इस बार के आयोजन में आनेवाले लेखक-पत्रकारों से पूछना. इस बार कौन-कौन आ रहे हैं?"
"रस्किन बांड, उदय प्रकाश, अनुज लुगुन, हरिवंश सिंह, जैसे दिग्गज आ रहे हैं. वे अपने-अपने आर्ट वर्क पेश करेंगे."
"तब यही अच्छा होगा कि तुम उनके 'आर्ट वर्क' के बहाने उनसे पूछो कि वे टाटा की नयी टैग लाइन से बंधा कैसा कल बना रहे हैं?"
"अबे, मैं कहता हूं, तब तो तुमको भी इस बार के झारखंड लिटरेरी मीट में जरूर आना चाहिए – दर्शक-श्रोता बनाकर. तुम हिंदी में पूछोगे, तो मजा आ जाएगा. मैं अंग्रेजी में पूछूंगा, तो सब धरा का धरा रह जाएगा. वैसे, ज्यादातर लोग तुम्हारी बिरादरी के हैं, तुम उनसे परिचित होंगे ही."
शर्मा जी के हां-न कुछ बोलने के पहले ही उसने टोका – "रांची आने के बारे में सोच कर बताना. आने-जाने में कोई प्राब्लम नहीं है, मैनेज हो जाएगा/"
शर्मा जी चुप रहे, तो पीएन सिंह ने कहा – "यार, कम से कम रस्किन बांड, उदय प्रकाश, अनुज लुगुन, और हरिवंश सिंह को सुनने को तो आ सकते हो. इससे हो सकता है, तुम्हारी घाटे की 'अक्षर की खेती' बच जाए!"


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