सम्पादकीय

भाषा विवाद : हिंदी विरोध से आगे बढ़ चुका है तमिलनाडु, राजनीति के फेर में उलझे प्रस्ताव पर विधानसभा की मुहर

Neha Dani
20 Oct 2022 2:10 AM GMT
भाषा विवाद : हिंदी विरोध से आगे बढ़ चुका है तमिलनाडु, राजनीति के फेर में उलझे प्रस्ताव पर विधानसभा की मुहर
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इसलिए द्रमुक हिंदी डाउन डाउन का नारा उछाल रहा है।
तमिलनाडु के मख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हाल ही में तमिलों पर हिंदी न थोपने के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक लंबा पत्र लिखा। तमिलनाडु विधानसभा ने हिंदी 'थोपे जाने' के खिलाफ मंगलवार को एक प्रस्ताव भी पारित किया और केंद्र से संसदीय समिति की रिपोर्ट लागू नहीं करने का अनुरोध किया। गौरतलब है कि गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजी है कि संसद की राजभाषा समिति ने सिफारिश की है कि हिंदी भाषी राज्यों में आईआईटी जैसे तकनीकी एवं गैर-तकनीकी संस्थानों में उच्च शिक्षा में निर्देश का माध्यम हिंदी होना चाहिए और देश के अन्य हिस्सों में वहां की स्थानीय भाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए।
अमित शाह ने इस बात पर भी जोर दिया कि स्थानीय भाषाओं को सभी राज्यों में अंग्रेजी के ऊपर वरीयता दी जानी चाहिए। आखिर द्रमुक ने तुरंत प्रतिक्रिया क्यों दी? इसका जवाब यह है कि इसके पीछे द्रमुक के कई आंतरिक कारण हैं। असल में द्रमुक ने चुनावी वादों को ठीक से पूरा नहीं किया है, जिसके चलते तमिल मतदाताओं के जेहन में एमके स्टालिन सरकार के प्रति एक नकारात्मक छवि बन गई है। पर सबसे पहला कारण है, राज्य के इस प्रथम परिवार की राजनीति।
एमके स्टालिन ने खुद कहा था कि पार्टी और सरकार में कलह के कारण उन्हें नींद नहीं आती है, उनका स्वास्थ्य नाजुक है। स्टालिन ने अपनी भावनाएं द्रमुक जनरल काउंसिल के मंच पर व्यक्त कीं। भाजपा और हिंदुत्व के खिलाफ राजनीतिक भाषण पर केंद्रित रहने के बजाय वह भावनाओं में बहकर पटरी से उतर गए। द्रमुक के सहयोगी और द्रमुक नेता भी हैरान थे कि ऐसा कहकर उन्होंने अपनी कमजोरी क्यों उजागर की। कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय इस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं कि स्टालिन पार्टी और सरकार पर अपनी पकड़ खो रहे हैं।
ऐसे में अमित शाह की राजभाषा समिति की रिपोर्ट द्रमुक नेता स्टालिन के काम आ सकती थी और उन्होंने जरा भी समय गंवाए बिना द्रमुक के 55 साल पुराने नारे हिंदी डाउन डाउन को दोहराया। द्रमुक के सहयोगी दल भी पीछे नहीं रहे और उन्होंने भी हिंदी डाउन डाउन नारे के सुर में सुर मिलाया। यह 1965 से हिंदी विरोधी आंदोलन का प्रसिद्ध नारा है। लेकिन अक्तूबर, 2022 में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को संसदीय राजभाषा समिति की 11वीं रिपोर्ट पेश करने के कारण इस नारे को और बल मिला है।
इस संसदीय समिति में द्रमुक और अन्नाद्रमुक जैसे दक्षिण भारतीय दलों सहित सभी राजनीतिक दल शामिल थे। यह समिति की 11वीं रिपोर्ट थी, जो पांच साल में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करती है। हालांकि, इस बार तीन साल के भीतर समिति ने दो रिपोर्टें प्रस्तुत कीं। किसी रिपोर्ट को स्वीकार करना या न करना राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर है। हिंदी के तकनीकी शब्दकोश के 12 से अधिक खंड हैं। इस समिति का गठन 1976 में राजभाषा अधिनियम, 1963 के तहत किया गया था।
इसमें संसद के 30 सदस्य शामिल होते हैं-20 लोकसभा से और 10 राज्यसभा से। यह सरकारी उद्देश्यों के लिए हिंदी के प्रयोग में हुई प्रगति की समीक्षा करता है और सिफारिशें करते हुए राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि केंद्रीय गृहमंत्री के रूप में पी चिदंबरम ने भी तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को और अधिक सख्त पैराग्राफ के साथ एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसे लागू भी किया गया है। तब क्यों नहीं एमके स्टालिन को यह एहसास हुआ? तब द्रमुक यूपीए का हिस्सा था और चिदंबरम द्रमुक के सबसे अच्छे मित्र हैं।
वर्ष 2011 में चिदंबरम की रिपोर्ट में कहा गया है कि राजभाषा पर संसद की समिति ने 1959 से अब तक राष्ट्रपति को नौ रिपोर्टें दी हैं, और आखिरी रिपोर्ट 2011 में सौंपी है। वर्ष 2011 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपे जाने के समय पी चिदंबरम समिति के अध्यक्ष थे। सरकार अंग्रेजी से अनूदित हिंदी शब्दों का एक शब्दकोश भी तैयार करेगी और सरकारी पत्राचार में कठिन भाषा से बचेगी। मसलन, 'डिमोनिटाइजेशन' के लिए 'विमुद्रीकरण' की जगह सार्वजनिक बोलचाल के लोकप्रिय शब्द 'नोटबंदी' का उपयोग किया जा सकता है।
स्टालिन यह भी महसूस करते हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत कॉलेजों में हिंदी की पढ़ाई को लेकर भी इसी तरह का कुछ दबाव है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भोपाल में एमबीबीएस छात्रों के लिए हिंदी की किताबों का विमोचन किया। इसी तरह तमिलनाडु में एमबीबीएस मेडिकल छात्रों के लिए तमिल शब्दों की किताब भी उपलब्ध है। स्टालिन को यह भी समझना चाहिए कि 21वीं सदी डिजिटलीकरण की सदी है। हर चीज का डिजिटलीकरण किया जाएगा, जो मोबाइल पर उपलब्ध होगा।
उदाहरण के लिए, महाबलीपुरम में एक कोरियाई पर्यटक गूगल अनुवाद की मदद से तमिल बोलकर तमिलनाडु में लेन-देन कर सकता है। इस तरह से दुनिया में तकनीकी में सुधार हुआ है। दुखद है कि अब भी द्रमुक 1965 के युग में जी रहा है, जबकि तमिलनाडु उससे बहुत आगे निकल चुका है। ऐसे में आज हिंदी डाउन डाउन का नारा बेमानी है। राजनीतिक औजार के रूप में हिंदी विरोध की अवधि खत्म हो चुकी है। द्रमुक के मंत्री मजाक उड़ाते हैं कि तमिलनाडु में पानी पूरी बेचने वाले उत्तर भारतीय हैं।
द्रमुक के अन्य नेताओं ने भी ऐसी बेकार टिप्पणियां की हैं। लेकिन तथ्य यह है कि पूरे तमिलनाडु में प्रत्येक रेस्तरां में बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड या ओडिशा के युवा मिल सकते हैं। हिंदी तमिलनाडु पहुंच गई है। तमिलनाडु के सामाजिक ताने-बाने में अब उत्तर भारतीय संस्कृति का मिश्रण है। तमिलनाडु में कृषि, कपड़ा, ऑटोमोबाइल, पर्यटन, आतिथ्य क्षेत्र में इतने ज्यादा उत्तर भारतीय हैं कि हैरानी की बात नहीं कि 2031 में तमिलनाडु में कोई बिहारी या उत्तराखंडी तमिलनाडु में विधायक या मंत्री भी बन सकता है।
द्रमुक को इस बात का एहसास होना चाहिए। स्टालिन द्वारा हिंदी विरोधी आंदोलन को फिर से हवा देने की राजनीतिक व्याख्या इसी तरह से की जा सकती है कि द्रमुक तमिलनाडु में भाजपा को हिंदी भाषी और उत्तर भारतीय पार्टी के रूप में वर्गीकृत करना चाहता है। द्रमुक का आंतरिक आकलन है कि तमिलनाडु में भाजपा तेजी से बढ़ रही है और 2024 में वह द्रमुक के लिए खतरा बन सकती है। इसलिए द्रमुक हिंदी डाउन डाउन का नारा उछाल रहा है।

सोर्स: अमर उजाला

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