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मसूरी का 15 फीसदी क्षेत्र सर्वाधिक खतरे में
देश-विदेश के सैलानियों की चहेती पहाड़ों की रानियां, मसूरी और नैनीताल बरसात के मौसम में सुरक्षित नहीं हैं। मसूरी के तो प्रमुख पर्यटन स्थल भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक खतरनाक हो गए हैं। नैनीताल का तो भूस्खलन आपदाओं का और भी डरावना इतिहास है। वहां 1880 में 151 लोग भूस्खलन की चपेट में आकर मर गए थे। इन दोनों पर्यटन नगरों की धारक क्षमता बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी है, फिर भी वहां अत्यधिक बढ़ी आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिए बेतहासा निर्माण कार्य जारी हैं।
मसूरी का 15 फीसदी क्षेत्र सर्वाधिक खतरे में
उत्तर भारत में शिमला के बाद अंग्रेजों द्वारा बसाई गई दूसरी कालोनी मसूरी अब न तो उतनी सुन्दर रह गई और ना ही उतनी सुरक्षित रह गई। तीसरे हिल स्टेशन नैनीताल में भूस्खलन तो अंग्रेजों के जमाने से ही शुरू हो गए थे।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियाॅलाजी (डब्ल्युआइएच) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार-मसूरी और उसके आसपास के कई इलाकों में भूस्खलन का खतरा मंडरा रहा है। मसूरी का 15 क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील है।
सबसे अधिक खतरा विख्यात पर्यटन स्थलों को
जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस में प्रकाशित वाडिया इंस्टीट्यूट के भूवैज्ञानिकों के एक शोध अध्ययन के अनुसार मसूरी के जो क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील पाए गए हैं उनमें बाटाघाट, जॉर्ज एवरेस्ट, केम्प्टी फाॅल, खट्टापानी, लाइब्रेरी, गलोगीधार और हाथीपांव आदि शामिल हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन क्षेत्रों में खण्डित या दरारों वाली चूनापत्थर की चट्टानें हैं। इनकी दरारों में बरसात में पानी भर जाने के कारण लगभग 60 डिग्री तक की ढलान वाली धरती की सतह धंसने या खिसकने लगती है।
धारक क्षमता की अनदेखी का परिणाम है ये गंभीर खतरा
मसूरी बाह्य हिमालय में स्थित है। इन भूवैज्ञानिकों ने मसूरी के आसपास के 84 वर्ग किमी क्षेत्र का अध्ययन किया तो पाया कि उसका 15 प्रतिशत क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील है।
जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस में छपे भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्र में इन वैज्ञानिकों ने 29 प्रतिशत क्षेत्र को मध्यम दर्जे का संवेदनशील और 56 प्रतिशत क्षेत्र को न्यूनतम् संवेदनशील दिखाया है। क्षेत्र की भूस्खलन संवेदनशीलता में वृद्धि का एक कारण मसूरी की धारक क्षमता (कैरीइंग कपैसिटी) की अनदेखी कर बेतहासा निर्माण कार्य भी बताया गया है।
केम्प्टी फाॅल, लाल टिब्बा और भट्टाफाॅल सर्वाधिक खतरे में
उत्तराखण्ड आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केन्द्र के वैज्ञानिकों द्वारा कराये गए एक अन्य अध्ययन के अनुसार भी केम्प्टी फाॅल, लाल टिब्बा और भट्टाफाॅल सर्वाधिक खतरे वाले क्षेत्र है। इसका कारण भूवैज्ञानिक सुशील खण्डूड़ी ने टेक्टाॅनिक डिसकंटिन्यूटी और तीब्र अस्थिर ढलान माना है।
खण्डूड़ी के अध्ययन में भट्टाघाट और लाल टिब्बा के उत्तर पश्चिम क्षेत्र को भूस्खलन के लिए अत्यधिक संवेदनशील बताया गया है, जबकि कम्पनी गार्डन के उत्तर, लाल टिब्बा के उत्तर पूर्व, जबरखेत के पश्चिम और क्यारकुली के दक्षिण पश्चिम के क्षेत्र उच्च संवेदनशीलता में माने गए हैं।
इन क्षेत्रों में अक्सर भूस्खलन होते रहते हैं। इन क्षेत्रों को मानवीय और निर्माण गतिविधियों से अलग रखने का सुझाव दिया गया है। इसी प्रकार परी टिब्बा, जबरखेत, क्यारकुली एवं भट्टा के पश्चिमी क्षेत्र, बार्लोगंज के उत्तर पश्चिम और खट्टापानी के उत्तर पूर्वी क्षेत्र को मध्यम
दर्जे की संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। जबकि मसूरी के बनाच्छादित पश्चिमी क्षेत्र को न्यून संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। खण्डूड़ी के इस अध्ययन में गनहिल, बंशीगाड, क्यारकुली, बार्लोगंज और बाटाघाट के दक्षिण और काण्डाफाॅल के पश्चिमी क्षेत्र का अतिन्यून संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। इस अध्ययन में मसूरी क्षेत्र के 31.6 प्रतिशत क्षेत्र को मध्यम जोखिम या संवेदनशील श्रेणी, 21.6 प्रतिशत उच्च संवेदनशील श्रेणी और 1.7 प्रतिशत क्षेत्र को अति संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है।
कैप्टन यंग ने बसाई थी मसूरी
देहरादून के ज्वाइंट मैजिस्ट्रेट एवं सुप्रीटेंडेंट मि. एफ.जे.शोर एवं देहरादून में अंग्रेजों की सैन्य टुकड़ी के कैप्टन यंग जब 1823 में शिकार खेलने देहरादून से ऊपर पैदल ही पहाड़ी पर चढ़ गये थे तो उन्हें यह जगह मिली थी जहां से दून घाटी का सुरम्य दृष्य नजर आने के साथ ही उन्हें यहां का ठण्डा मौसम भा गया था। यहीं पर दोनों अंग्रेज अफसरों ने शिकार खेलने के लिये शूटिंग बाॅक्स बनाया था जो कि यूरोपियन द्वारा निर्मित पहला ढांचा था। उसके बाद कैप्टन यंग ने लण्ढौर में 'मुलिंगर' हाउस बनाया था।
मुलिंगर इस आयरिश अधिकारी का आयरलैण्ड में गृहनगर था। उसके बाद वहां सैन्य छावनी बन गई। ब्रिटिश सैनिकों के लिये चर्च, अस्पताल और मनोरंजन के लिए क्लब आदि बन गए। उत्तर भारत का पहला अखबार ''द हिल्स'' यहीं से 1842 में निकला। देखते-देखते यह अंग्रेजों की प्रसिद्ध बस्ती बन गई जिसने 1857 की गदर में अंग्रेजों के परिवारों को सुरक्षित पनाह दी।
नैनीताल में 151 अंग्रेज दब कर मर गए थे
देश विदेश के सैनियों की दूसरी चहेती नैनीताल का भूस्खलन आपदा का इतिहास तो मसूरी से भी अधिक डरावना है। इतिहास के पन्ने टटोले जांय तो वहां पहला ज्ञात भूस्खलन 1866 में अल्मा पहाड़ी पर हुआ था, और 1879 में उसी स्थान पर एक बड़ा भूस्खलन हुआ था। नैनीताल में सबसे बड़ा भूस्खलन 18सितंबर 1880 को हुआ था, जिसमें 151 लोग मलबे के नीचे दब कर मर गये थे, जिनमें लगभग सभी यूरोपियन ही थे।
बरसात में खतरा बढ़ जाता है नैनीताल में
सुरम्य झीलों का जिला नैनीताल भारत के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है। यह जिला भी मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) और मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी) के बीच लघु हिमालय या बाहरी हिमालय में स्थित है जहां हर साल भूस्खलन आपदा आती रहती है। झुके हुए पेड़ और खंभे जमीन के नीचे खिसकने के संकेत हैं जैसा कि नैनीताल शहर और उसके आसपास कई पहाड़ियों पर देखा गया है। पेड़ के तने की वक्रता पेड़ की वृद्धि की अवधि के दौरान रेंगने की दर को रिकॉर्ड करती है।
बारिश के मौसम में तो रेंगने या खिसकने की गति तेज होती ही है। जंगलों का बेतहासा कटान और खड़ी ढलानों पर निर्माण के कारण भी जमीन नीचे खिसकने की गति तेज हो जाती है। लोगों की बढ़ती आवासीय एवं विकास की आवश्यकता को पूरा करने के लिए नैनीताल में निर्माण गतिविधियां पूरी गति से चलती रही हैं। इन गतिविधियों के चलते नैनीताल की ढलानें और अधिक अस्थिर होती जा रही हैं, जिसने भूस्खलन खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है। भूस्खलन की समस्याओं को न्यूनतम रखने के लिए, ढलान अस्थिरता रोकने के उपायों पर गंभीरता से विचार किया जाना जरूरी है।
4 सौ से अधिक गांव खतरे की जद में
खेती के लिए उपजाऊ मिट्टी एवं रहने के लिए कम ढाल वाली जमीन मिल जाने के कारण पहाड़ों में अधिकांश बस्तियां पुराने सुसुप्त भूस्खलनों पर ही बसी हुयी हैं। इसीलिये उत्तराखण्ड राज्य का 80 प्रतिशत हिस्सा अस्थिर ढलानों के कारण भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील है। राज्य में शायद ही कोई ऐसी बरसात गुजरती हो जब उत्तराखण्ड में भूस्खलन की आपदाएं नहीं होती हों। प्रदेश के लगभग 400 गांव भूसखलन की दृष्टि से संवेदनशील घोषित किए गए हैं, जिन्हें विस्थापित कर पुनः सुरक्षित स्थानों पर बसाया जाना है मगर सरकार को इतनी जमीन नहीं मिल रही है।
वन अधिनियम के सख्त प्रावधानों के कारण सरकार को पुनर्वास के लिये वन भूमि भी नहीं मिल रही है। अधिक कमजोर, अत्यधिक घुमावदार और खंडित चट्टानें, खड़ी ढलानें, उच्च भूकंपीयता और प्रतिकूल जल-भूवैज्ञानिक स्थितियां राज्य की उच्च भूस्खलन संवेदनशीलता के लिए जिम्मेदार हैं। इसके अलावा अव्यवस्थित विकास निर्माण गतिविधियां भूस्खलन के जोखिम को और अधिक बढ़ती हैं।
देहरादून के ज्वाइंट मैजिस्ट्रेट एवं सुप्रीटेंडेंट मि. एफ.जे.शोर एवं कैप्टन यंग द्वारा खोजी गई और फिर कैप्टन यंग द्वारा बसाई गयी मसूरी नेे पहले यूरोपीय गोरों को और फिर भारतीय अभिजात्य वर्ग का ललचाया।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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