सम्पादकीय

हिंसा की जमीन

Subhi
25 Nov 2022 6:00 AM GMT
हिंसा की जमीन
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Written by जनसत्ता: अन्य राज्यों की तुलना में यहां की पुलिस अधिक सक्षम और तत्पर मानी जाती है। अपराधियों की धर-पकड़ में भी उसकी दक्षता अधिक है। अत्याधुनिक तकनीक से लैस है। मगर इसके बावजूद अपराधियों में उसका खौफ पैदा नहीं हो पा रहा, तो उसके कामकाज पर सवाल उठना स्वाभाविक है। यहां थोड़े-थोड़े अंतराल पर कोई न कोई बड़ी वारदात हो जाती है।

यहां के पालम इलाके में एक युवक ने अपने ही चार परिजनों की हत्या कर दी। बताया जा रहा है कि उसे नशे की लत थी और वह नशा करने के लिए पैसे मांग रहा था। पैसा न मिलने की वजह से बहस हुई और उसने अपने पिता, मां, बहन और दादी की चाकू मार कर हत्या कर दी। हालांकि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है, मगर इस घटना से एक बार यह सवाल फिर गाढ़ा हुआ है कि आखिर युवाओं में हिंसा का मानस बन कैसे रहा है। ऐसी घटनाएं अब इतनी सहज कैसे हो गई हैं। इसके पीछे महानगरीय विसंगतियों और सामाजिक ताने-बाने के लगातार कमजोर होते जाने को बड़ा कारण बताया जाता है, मगर इस आधार पर कानून-व्यवस्था संभालने वालों को अपने बचाव का रास्ता नहीं मिल जाता।

यह छिपी बात नहीं है कि दिल्ली में बहुत सारी आपराधिक और हिंसक घटनाओं के पीछे नशाखोरी की लत बड़ा कारण है। यहां नशीले पदार्थों की बिक्री में लगातार इजाफा हो रहा है। पुलिस और स्वापक विभाग युवाओं के कुछ जलसों पर छापे मार कर कभी-कभार गिरफ्तारियां आदि करते हैं, मगर इससे नशे के कारोबार पर अंकुश नहीं लग पाता। इसके चलते बहुत सारे युवा नशे की गिरफ्त में हैं और उनके परिवार की परेशानियां बढ़ गई हैं। कई असमय अपनी जान गंवा बैठते हैं। ऐसे युवाओं में हिंसक प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाती है।

विशेषज्ञ बताते हैं कि जब उन्हें नशे की तलब लगती है, तो वे खुद नहीं समझ पाते कि क्या कर रहे हैं। वे अपना विवेक खो देते हैं। यह भी उजागर तथ्य है कि नशे के कारोबारी सबसे अधिक किशोर और युवाओं को अपना शिकार बनाते हैं और फिर वे उनके लिए नशे की खपत में सहयोगी बन जाते हैं। ऐसा नहीं माना जा सकता कि अगर दिल्ली पुलिस तलाशने का प्रयास करे, तो वह इस कारोबार की मुख्य कड़ी को नहीं पकड़ सकती।

यों तो दिल्ली के लगभग हर इलाके में कैमरे लगा दिए गए हैं, सड़कों पर भी कैमरे लगे हैं, फिर भी चलती गाड़ी में बलात्कार, छेड़खानी, छीना-झपटी की घटनाएं अक्सर सामने आ जाती हैं। कुछ हद तक इसके पीछे संचार माध्यमों पर हिंसा को उकसाने वाली सामग्री की उपलब्धता कारण है, जिससे युवाओं में हिंसा के प्रति सहज स्वीकार भाव पैदा हुआ है, मगर निगरानी तंत्र की कमजोरी उनमें ऐसा करने का साहस पैदा करता है।

आमतौर पर परिवार के लोगों की हत्या कर देने जैसी घटनाओं के पीछे सामाजिक और नैतिक मूल्यों में आई गिरावट को बड़ा कारण मान कर देर तक चर्चा होती रहती है या फिर उन्हें नजरअंदाज करने की कोशिश की जाती है। मगर अब आपराधिक घटनाओं को मूल्यों की आड़ लेकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पुलिस को युवाओं में पुख्ता होते हिंसा के मानस को नए ढंग से समझने और उसके स्रोतों पर प्रहार करने की जरूरत है।



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