सम्पादकीय

विदेशी फार्मा कंपनियों के इशारे पर भारत के मेडिकल सिस्टम को बदनाम कर रही है लैंसेट?

Gulabi
15 May 2021 6:44 AM GMT
विदेशी फार्मा कंपनियों के इशारे पर भारत के मेडिकल सिस्टम को बदनाम कर रही है लैंसेट?
x
लैंसेट विदेशी फार्मा कंपनी के इशारे पर वो भारत को बदनाम करने में जुटा है

लैंसेट विदेशी फार्मा कंपनी के इशारे पर वो भारत को बदनाम करने में जुटा है. ब्रसेल्स की वेबसाइट इयूरिपोर्टर के मुताबिक ऐसा बड़े फार्मा के एकाधिकार (Monopoly) और मुनाफाखोरी को बरकरार रखने और भारत की वैक्सीन ड्राइव को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जा रहा है. मेडिकल जर्नल का मतलब मेडिकल साइंस से जुड़े मसलों को तथ्यों की कसौटी पर परख कर छापना होता है. मेडिकल जर्नल अगर बिजनेस और राजनीति से जुड़े मसले को तवज्जो देने लगे तो उसके उद्देश्य पर सवाल उठना लाजिमी है.


लैंसेट ने भारत में कोरोना की दूसरी लहर को स्वरचित तबाही का नाम दिया और इसके लिए भारत सरकार पर जोरदार प्रहार किए गए. इयूरिपोर्टर वेबसाइट ने लिखा है कि विकासशील देश द्वारा वैक्सीन कम कीमत पर रोल आउट करने की वजह से बड़ी फार्मा कंपनी इसे खोया हुआ अवसर मान रही हैं. इसलिए लैंसेट उनके इंट्रेस्ट को प्रोटेक्ट करने के लिए एकेडमिक लैंग्वेज का इस्तेमाल कर उनके एजेंडा को प्रोमोट कर रहा है.
लैंसेट सहित कई जर्नल पर फार्मा इंट्रेस्ट को प्रोमोट करने से लेकर कई अन्य आरोप लगते रहे हैं.
एक प्रसिद्ध जर्नल न्यू इंग्लैंड जर्नल की संपादक डॉ मार्सिया एंजल ने अपने फेयरवेल स्पीच में कहा था कि किसी क्लिनिकल रिसर्च या ऑथोरिटेटिव मेडिकल गाइडलाइंस पर भरोसा करना उनके लिए मुश्किल है. अपने बीस साल के अनुभव के बाद उन्होंने इस निष्कर्ष पर पहुंचने पर अफसोस ज़ाहिर किया था.

बड़ी फार्मा कंपनी के एजेंडे को प्रमोट करने के आरोप में दम क्यों है?
भारत की दो बड़ी कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटैक वैक्सीन प्रोडक्शन का काम शुरू कर चुके हैं. तीसरी कंपनी स्पूतनिक वी भी वैक्सीन तैयार करने के काम में जुटी है जिसका इंडस्ट्रीयल पार्टनर भारतीय कंपनी डॉ रेड्डीज लैब है. भारत ने दवा के क्षेत्र में भी आइवरमैक्टीन सहित डायग्नॉस्टिक किट और वैंटिलेटर खुद बनाना शुरू कर दिया है जिससे विदेशी फार्मा कंपनी में खलबली है.

कोविड के पहले लहर के दरमियान लैंसेट ने भारत के हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किए जा रहे दवा के खिलाफ जोरदार उंगली उठाई लेकिन भारत के बेहतर मैनेजमेंट के चलते लैंसेट अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका, लैंसेट का उद्देश्य भारत की छवि और व्यापार को नुकसान पहुंचाना था. ध्यान रहे पहले कोविड की लहर के समय अमेरिका तक ने भारत से हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की मांग की थी और भारत ने अमेरिका की जरूरत को पूरा किया था.

भारत के मेडिकल टूरिज्म को नुकसान पहुंचाने की साल 2010 में की थी लैंसेट ने कोशिश
भारत का मेडिकल टूरिज्म साल 2010 में बुलंदियों को छू रहा था. भारत का बेहतर स्टैंडर्ड और कम पैसे में बेहतर इलाज की वजह से दुनियां के लोग यहां इलाज कराने आने लगे थे. लैंसेट ने अपने मेडिकल जर्नल में NDM1 (New Delhi Metallo Beta Lactamase 1) सुपर बग का नाम देकर भारत के अस्पतालों पर कड़ा प्रहार किया था . बैक्टेरिया का नाम जानबूझकर न्यू डेल्ही मेटेलो बीटा लेक्टामेज 1 रखा था ताकी इसका ऑरिजिन इंडिया साबित कर मेडिकल टूरिज्म को बदनाम किया जा सके.

उस समय के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल हेल्थ सर्विसेज (डीजीएचएस) डॉ आर के श्रीवास्तव ने टीवी 9 डिजिटल से बात करते हुए कहते हैं कि लैंसेट ने अनएथिकल प्रैक्टिस को अपनाया और भारत के परमिशन के बगैर गलत जांच का हवाला दिया. इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों को किनारा करते हुए सुपर बग का नाम भारत से जोड़ दिया गया जो पूरी तरह से अनएथिकल (Unethical) और गैरकानूनी प्रैक्टिस था.

डॉ श्रीवास्तव आगे कहते हैं कि तीन दफा कड़ी आपत्ती जताने के बाद लैंसेट ने सुपर बग के उपर पब्लिश आर्टिकल पर खंडन छापा लेकिन तब तक देश में पनप रहे मेडिकल टूरिज्म को बड़ा नुकसान पहुंच चुका था.

भारत को फेल्ड स्टेट के रूप में परोसने के पीछे एजेंडा क्या है?
भारत के पूर्व इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और पूर्व यूरोलॉजिकल सोसाइटी के प्रेसिडेंट डॉ अजय कुमार कहते हैं कि भारत का हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर अमेरिका और यूरोप की तुलना में काफी कमजोर है. लेकिन भारत की फॉर्मेसी विश्व में जगह बनाने लगी है.

दरअसल डॉ अजय कुमार कहते हैं कि यूएसए में 5 लाख 84 हजार, यूके में 1 लाख 27 हजार, फ्रांस में 1 लाख 7 हजार और जर्मनी में 85 हजार लोगों के आसपास कोरोना से मरे हैं. अमेरिका अमीर देश है और वहां की आबादी 35 करोड़ है. यूके की आबादी तकरीबन 10 करोड़ है लेकिन बेहतरीन हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के बावजूद अमेरिका ,यूके और फ्रांस में आबादी की तुलना में इतनी सारी मौतें हुईं तो उन्हें फेल्ड स्टेट करार क्यों नहीं दिया गया.

डॉ आर के श्रीवास्तव कहते हैं कि दूसरी लहर की वेरोसिटी इतनी ज्यादा होगी इसका अनुमान लगाना संभव नहीं था. किसी भी और मुल्क की वेरोसिटी डेढ़ से दो गुना ज्यादा पहले लहर की अपेक्षा में थी लेकिन भारत की वेरोसिटी चार गुना से अधिक थी. इसलिए 20 दिनों में एक लाख से चार लाख के आंकड़े को छूना अप्रत्याशित था. अमेरिका में भारतीय मूल के कुछ एक्सपर्टस इसे अपॉरच्यूनिस्टिक एप्रोच ऑफ वॉरफेयर. (Opportunistic Approach Of Warfare) मानते हैं. अमेरिका में भारतीय मूल के रहने वाले सचिन कुमार कहते हैं कि न्यूयॉर्क और कैलिफोर्नियां का हेल्थ सिस्टम जब लड़खड़ा रहा था और लोग ईलाज के लिए तड़प रहे थे तब किसी मीडिया हाउस ने इसे नहीं दिखाया.

अमेरिका में है हिप्पा कानून
दरअसल यूएस जैसे देश में हिप्पा कानून के तहत अस्पताल और माहमारी की रिपोर्टिंग और उसको लेकर गॉसिप की रिपोर्टिंग गैरकानूनी है. इसलिए ग्रेवयार्ड में लगी भीड़ को भी नहीं दिखाया गया, क्योंकि मृत व्यक्ति के मौत के विषय में लिखना भी हिप्पा कानून के खिलाफ है और इस कानून को बिल क्लिंकटन के समय में बनाया गया था. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत में जलती हुई चिता के तस्वीर की कीमत बाहर के मूल्कों में 23 हजार डॉलर से लेकर 7 हजार डॉलर तक लगाई गई है, ताकी दर्दनाक मौत की आग लपटी हुई चिता की तस्वीर की आड़ में इकोनोमिक इंट्रेस्ट सहित अन्य इंट्रेस्ट को प्रमोट किया जा सके.
Next Story