सम्पादकीय

लालू-मुलायम, राहुल-नीतीश

Triveni
4 Aug 2021 2:06 AM GMT
लालू-मुलायम, राहुल-नीतीश
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संसद का सत्र चालू है और हम देख रहे हैं कि किस तरह संसद के दोनों सदनों में इकतरफा आख्यान से विधेयक पर विधेयक पारित हो रहे हैं।

आदित्य चोपड़ा| संसद का सत्र चालू है और हम देख रहे हैं कि किस तरह संसद के दोनों सदनों में इकतरफा आख्यान से विधेयक पर विधेयक पारित हो रहे हैं। लोकतन्त्र में यह परिपाठी इसलिए निषेध है क्योंकि संसद की संरचना विपक्षी व सत्ताधारी दलों के सदस्यों से मिल कर बनती है, जिनका चुनाव आम जनता अपने एक वोट के पवित्र अधिकार से करती है। सत्ता पर आसीन सांसदों के साथ विपक्ष के सांसद भी जनता के प्रतिनिधि​ होते हैं अतः किसी भी दल की सरकार को लोकतन्त्र में जनता की सरकार कहा जाता है। इसका मतलब यही होता है कि सत्ता बेशक किसी एक दल की हो मगर उसमें साझेदारी हर मतदाता की होती है और विपक्ष की सहमति और सन्मति व सहयोग से सरकार का चलना लोकतन्त्र में इसीलिए आवश्यक होता है। इसीलिए लोकतन्त्र को दुतरफा संवाद की 'रसायन शाला' भी कहा जाता है। इस व्यवस्था में इकतरफा आख्यान की किसी भी स्तर पर गुंजाइश नहीं रहती। इसी नजरिये से हमारे पुरखे संसद चलाने के नियम बना कर गये हैं और तय करके गये हैं कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का होता है। मगर यह तभी संभव है जब लोकतन्त्र में विपक्ष मजबूत होगा और उसमें सैद्धान्तिक व वैचारिक एकता भी होगी। केवल सत्ता पाने के लिए बने गठजोड़ों का हश्र दीर्घकालिक नहीं हो सकता क्योंकि राजनीति में वैचारिक मतभेद अपने रंग में किस मुद्दे पर मुखर हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता।

भारत में पिछले तीस साल से जो गठबन्धन की राजनीति शुरू हुई है उसका सबब सिद्धान्त के स्थान पर सत्ता ही रहा है जिसकी वजह से 2014 में देश की जनता ने प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत दिया था। 2019 में भी नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी जिसकी वजह से भाजपा को पहले से ज्यादा सीटें मिलीं। इससे विपक्षी दलों को अपनी गलती का एहसास अब 2021 में तब होना शुरू हुआ है जब छह महीने बाद ही देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और साथ ही अगले दो सालों में एक दर्जन के लगभग राज्यों में भी चुनाव होने हैं। इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद यादव व समाजवादी पार्टी के कर्णधार श्री मुलायम सिंह यादव के बीच हुई भेंट बहुत महत्वपूर्ण है और साथ ही कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी के नेतृत्व में 14 दलों की संयुक्त बैठक का अपना महत्व है। मगर इससे भी ऊपर भाजपा के सहयोगी दल जनता दल (यू) के नेता व बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार का यह वक्तव्य तूफान मचाने वाला है कि पेगासस जासूसी कांड की बाकायदा जांच होनी चाहिए और संसद में इस पर खुल कर बहस भी कराई जानी चाहिए।
सभी को मालूम है कि संसद में व्यवधान इसी मुद्दे को लेकर हो रहा है। इससे भारतीय जनता पार्टी चौंकी है क्योंकि बिहार मंे नीतीश बाबू भाजपा के साथ मिल कर ही सरकार चला रहे हैं। नीतीश बाबू एनडीए के सबसे महत्वपूर्ण घटक दल हैं और हाल ही में उनकी पार्टी के सांसद रामचन्द्र प्रसाद सिंह केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में भी शामिल हुए हैं। नीतीश बाबू जेपी के समाजवादी आन्दोलन से जन्मे नेता हैं और उनकी राजनीति भी कमोबेश सामाजिक न्याय के घुरों के चारों तरफ दौड़ती रही है। पेगासस के मुद्दे पर उनका यह बयान संकेत दे रहा है कि उनकी नजर 2024 के चुनावों पर है और वह राष्ट्रीय राजनीति में अपना नया मुकाम खोज सकते हैं। दूसरी तरफ लालू-मुलायम का विचार विमर्श बताता है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के लिए वह अन्य विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की रणनीति बनाने की तरफ चल रहे हैं। लालू जी के बारे में एक तथ्य यह है कि वह ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने के बावजूद कुशल वार्ताकार हैं।
उधर श्री राहुल गांधी के नेतृत्व में 14 दलों का जो गठबन्धन तैयार हो रहा है उसमें लालूजी व मुलायम सिंह दोनों की पार्टियां शामिल हैं। इससे संकेत जाता है कि भविष्य में एक वृहद विपक्षी गठबन्धन की रूपरेखा तैयार हो सकती है। यह सब इसलिए हो रहा है कि श्री नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता को देखते हुए इनमें से कोई दल अकेले टक्कर लेने की स्थिति में नहीं है। मगर लोकतन्त्र में यह एक सकारात्मक कदम है बशर्ते यह सिद्धान्तों पर टिका हुआ हो। क्योंकि हम देख चुके हैं कि 1977 में केवल इंदिरा गांधी के विरोध की खातिर बनी पंचमेल जनता पार्टी सत्ता में आने के बावजूद किस तरह ताश के पत्तों की तरह बिखर गई थी। मगर एक फर्क है कि वह पार्टी बनी थी जबकि यह गठबन्धन तैयार हो रहा है जिसमें सभी दलों का अलग-अलग अस्तित्व बरकरार रहेगा। वैसे अगर हम गौर से देखें तो किसी भी पार्टी को सत्ता तभी हासिल होती है जब ग्रामीण मतदाता उसके पक्ष में होते हैं। खेतीहर जातियों से लेकर ग्रामीण मजदूर व कामगर जातियां जब संगठित हो जाती हैं तो तख्ता पलट हो जाता है। इन जातियों में हिन्दू-मुसलमान का भेद नहीं रहता है। देश में किसान आन्दोलन से लेकर महंगाई के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियां इसी वजह से ज्यादा जोर दे रही हैं कि इन जातियों का उनके पक्ष में ध्रुवीकरण हो जाये। कांग्रेस पार्टी इस नब्ज को समझ गई है जिसकी वजह से इसके नेता राहुल गांधी हर कीमत पर उन दलों से गठबन्धन चाहते हैं जिनकी पकड़ गांवों में है। संसद से लेकर सड़क तक फिलहाल विपक्षी दल एकता का सन्देश देना चाहते हैं मगर देखने वाली बात यह होगी कि क्या ये सब मिल कर श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता में सेंध लगा पायेंगे? वैसे राजनीति भी एक विज्ञान होती है और विज्ञान का नियम होता है कि कभी भी कोई स्थान खाली नहीं रहता है।



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