सम्पादकीय

न्याय की बेदी पर लखीमपुर

Subhi
22 Oct 2021 2:14 AM GMT
न्याय की बेदी पर लखीमपुर
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भारत के लोकतान्त्रिक ढांचे की यह विशेषता रही है कि जब इसके चार स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका , न्यायापालिका व चुनाव आयोग में से कोई भी एक स्तम्भ लचर होने लगता है

आदित् नारायण चोपड़ा: भारत के लोकतान्त्रिक ढांचे की यह विशेषता रही है कि जब इसके चार स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका , न्यायापालिका व चुनाव आयोग में से कोई भी एक स्तम्भ लचर होने लगता है तो तुरन्त कोई दूसरा स्तम्भ मजबूती से खड़ा होकर पूरी व्यवस्था को मजबूत बना देता है। इस मामले में न्यायपालिका की सक्रियता आजादी के बाद से ही इस तरह महत्वपूर्ण रही है कि इसने संविधान का शासन स्थापित करने की अपनी भूमिका को बहुत तार्किक व संजीदगी के साथ प्रतिष्ठापित किया है और न्याय की उस मर्यादा को सर्वोच्च रखा है जो भारत के संविधान में एक कल्याणकारी राज की आवाज होती है। न्यायपालिका ने अपनी स्वतन्त्र व निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह करते समय 'शासक और शासित' के अधिकारों की विवेचना हमेशा ही न्याय की कसौटी पर कसते हुए इस प्रकार की जिससे लोकतन्त्र में जनता के शासन की पुष्टि हो सके। केवल इमरजेंसी के 18 महीने के समय को छोड़ कर न्यायपालिका सर्वदा इसी कसौटी पर शासक और शासित को कसते हुए न्याय का परचम फहराती रही और हर कदम पर आगाह करती रही कि न्याय की तराजू पर हर छोटा-बड़ा एक साथ बराबर तुलेगा। लखीमपुर खीरी किसान हत्याकांड में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश प्रशासन को फटकार लगा कर साफ कर दिया है कि मुंह देख कर न्यायप्रक्रिया तेज या सुस्त नहीं की जा सकती। देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायमूर्तियों ने प्रशासन को चेतावनी दी है कि वह लखीमपुर कांड मामले में लटकाने या टरकाने की तरकीबें नहीं लड़ा सकता है। इस मामले में किसान हत्याकांड के कुल 44 गवाह हैं जिनमें से प्रशासन ने अभी तक केवल चार गवाहों के बयान ही मजिस्ट्रेट के समक्ष कलम बन्द किये हैं। मुख्य न्यायाधीश श्री एन.वी. रमण की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए प्रशासन से पहला सवाल यही पूछा कि वह समय पर कानूनी प्रक्रिया की मामूल रिपोर्ट दाखिल करने से क्यों पीछे रही जिसकी वजह से सुनवाई में विलम्ब होने की नौबत आयी। मगर जब प्रशासन के वकील ने न्यायालय में यह बताया कि इस मामले में कानूनी प्रक्रिया चल रही है और अभी तक दस लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है तथा चार गवाहों के बयान भी ले लिये गये हैं तो विद्वान न्यायाधीशों ने टिप्पणी की कि यह मामले को टरकाने जैसा है, यह प्रक्रिया अन्तहीन नहीं हो सकती। पुलिस प्रशासन को गिरफ्तार किये गये लोगों से पूछताछ करके हकीकत बाहर निकालनी चाहिए। इससे एेसा लगता है कि पुलिस जांच में कोताही कर रही है। इससे यही छवि बन रही है कि प्रशासन मामले की जांच को लम्बा खींच देना चाहता है। इस छवि को सुधारा जाना चाहिए। इसके साथ ही न्यायालय ने यह भी हिदायत दी है कि लखीमपुर कांड की जांच के लिए जो विशेष जांच दल बनाया गया है, वह अच्छी तरह समझ सकता है कि गवाहों में से एेसे कौन से गवाह हैं जो सामाजिक या आर्थिक रूप से कमजोर हैं और जिन्हें डराया-धमकाया जा सकता है या दबाव में लिया जा सकता है तो अभी तक सिर्फ चार गवाहों का बयान लेना ही क्या दर्शाता है। न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि किसानों पर मोटर गाड़ी चढ़ाने के मामले को इस घटना के बाद हुई हिंसा के मामले से अलग रखा जाये। दोनों की एफआईआर अलग-अलग है। संपादकीय :नई चौकड़ी : राजनीतिक भूचाल100 करोड़ लोगों का टीकाकरणप्रियंका का 'महिला कार्ड'इंतजार की घड़ियां समाप्त होने वाली हैं पर .. ध्यान सेकश्मीर की 'फिजां' की फरियाद'बाबा' को सजाअसल में पूरा मामला अंत में उत्तर प्रदेश पुलिस की कर्मठता पर आकर टिक जाता है क्योंकि लखीमपुर कांड में केन्द्रीय गृह राज्यमन्त्री अजय मिश्रा टेनी का पुत्र आशीष मिश्रा संलिप्त है और वह मुख्य आरोपी भी है। अतः पुलिस का कर्त्तव्य बनता है कि वह जांच उसी तत्परता और कर्त्तव्य निष्ठता से करे जिस प्रकार किसी साधारण नागरिक के आरोपी होने पर करती है। अब यह तथ्य भी स्पष्ट हो चुका है कि घटना वाले दिन बन्दूक से गोलियां भी चली थीं। ये बन्दूक किसने चलाई थी और उसके परिणामस्वरूप किसी क​ी मृत्यु हुई, इसका भी पता लगना जरूरी है क्योंकि किसी भी व्यक्ति को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। अपराध तो अपराध होता है चाहे वह किसी ने भी किया हो। कुल मिलाकर देखें तो लखीमपुर कांड नितान्त अमानवीयता से भरा हुआ मामला है जिसमें निर्दोष किसानों को मोटर वाहन के नीचे कुचला गया था।किसी भी लोकतान्त्रिक देश में एेसी घटनाएं तभी घट सकती हैं जब अपराधियों में कानून का खौफ समाप्त हो जाता है। यह कानून का खौफ पुलिस के एक सिपाही के उस डंडे में होता है जो भारत के संविधान के शासन का प्रतिनिधित्व करता है। वह यह डंडा समाज में कानून के राज की खातिर ही इस्तेमाल करता है। मगर यह डंडा हिंसा फैलाने के लिए नहीं बल्कि उसे रोकने के लिए ही इस्तेमाल होता है। अतः लखीमपुर कांड के जो भी गवाह हैं उन्हें इसी डंडे का संरक्षण पूरी तरह से मिलना चाहिए और अपराधियों को अपने किये की सजा भुगतनी चाहिए क्योंकि हत्या जैसे अपराध के मामले में समय का बहुत महत्व होता है। अधिक समय मिलने पर अपराधी गवाहों व साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने में कभी-कभी सफल भी हो जाते हैं अतः पुलिस हत्या के आरोपियों को तुरन्त हथकड़ी लगा कर अपनी गिरफ्त में ले लेती है। लखीमपुर मामले में तो मुख्य आरोपी की गिरफ्तारी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मामले का संज्ञान लेने के बाद ही हुई थीं। अतः सर्वोच्च न्यायालय का संशकित होना स्वाभाविक है।

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