- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- लखीमपुर सिर्फ लहूकथा...
x
वह 4 अक्तूबर की शाम थी। हम गजरौला से दिल्ली की ओर बढ़े ही थे कि जाम में फंस गए
शशि शेखर। वह 4 अक्तूबर की शाम थी। हम गजरौला से दिल्ली की ओर बढ़े ही थे कि जाम में फंस गए। जहां तक नजर जाए, वहां तक अगर कुछ था, तो सिर्फ एक-दूसरे से सटी हुई गाड़ियां और अफरा-तफरी। हम जाम की वजह जानने की कोशिश कर ही रहे थे कि अचानक एंबुलेंस का व्याकुल कर देने वाला सायरन सुनाई पड़ा। इस जंजाल से बाहर निकलने की कोशिश में ड्राइवर हॉर्न, डीपर और हूटर के बेतहाशा प्रयोग के बावजूद एंबुलेंस को आगे बढ़ाने में कामयाब नहीं हो पा रहा था। एंबुलेंस की छत पर लगी लाइट की चमक इस बेबसी को बढ़ा रही थी
मैं खुद गाड़ी चला रहा था और कशमकश में था कि मदद को उतरा, तो पीछे के सहयात्री और अधिक छटपटाहट के शिकार हो सकते हैं, पर रहा नहीं गया। उतरकर पीछे वाली गाड़ी के ड्राइवर से शीशा नीचे करने की विनती की। वह एसी चलाकर संगीत सुनने में लीन था। उसे बताया कि मैं एंबुलेंस की सहायता करना चाहता हूं, और हो सकता है कि इस दौरान आगे का ट्रैफिक थोड़ा खिसके और आप परेशानी महसूस करने लगें। अनमने ढंग से उसने सिर हिलाया। आगे की दो-तीन गाड़ियों के चालकों से भी इसी तरह अनुनय-विनय करना पड़ा। एंबुलेंस लगभग तीन सौ मीटर पीछे थी। उसे रास्ता दिलाने की कोशिश कर रहा था कि अब तक तमाशा देख रहे दो-चार और लोग मदद को आ जुटे। काफी जद्दोजहद के बाद हम उसे आगे निकाल पाने में कामयाब हुए। एंबुलेंस जा चुकी थी, पर परदे के पीछे से झांकती दो व्याकुल आंखें और उनसे टपकती कातरता लंबे समय तक भिगोने के लिए साथ रह गई थी। एंबुलेंस में पड़ा व्यक्ति जाने किस हाल में रहा होगा?
यह वह राजमार्ग है, जिससे रोजाना हजारों वाहन भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को मुंहमांगा टोल चुकाकर गुजरते हैं। टोल की शर्तों में एक यह भी है कि संचालक की जिम्मेदारी होगी कि सड़क सुचारू रूप से चलती रहे, पर जब पुलिस ने ही सड़क बंद करने का नेक उपक्रम रच रखा हो, तब भला कौन किसकी सुने? दरियाफ्त करने पर मालूम पड़ा कि राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी घंटों पहले इसी रास्ते से लखीमपुर खीरी जा रहे थे। उन्हें तो रोका नहीं जा सका, पर आम आदमी और बीमार बाद में उपजी इस 'एहतियात'के शिकार बनते रहे। तब कहां मालूम था कि आने वाला पूरा हफ्ता उत्तर प्रदेश की तमाम सड़कों पर इसी जद्दोजहद की गवाही देता नजर आएगा। विपक्ष के बडे़ नेता लखीमपुर और बहराइच जाना चाहते थे। सरकार उन्हें रोक रही थी, ताकि कोई और 'अप्रिय' घटना न घट जाए। प्रशासन और राजनीतिज्ञों की इस रस्साकशी में राहगीर अप्रिय क्षणों का संत्रास भुगतें तो भुगतते रहें, समरथ को नहिं दोष गुसाईं।
अब आते हैं, लखीमपुर की व्यथा-कथा पर। ऐसा लगता है, जैसे हम खुद किसी सनसनीखेज फॉर्मूला फिल्म का हिस्सा बन गए हैं। हर रोज एक नया नेता और नया वीडियो खबरों में छाया रहता है। जिन्होंने जान गंवाई, जो घायल हुए, वे अपनी जगह हैं, पर 'मेरे किसान, तेरे किसान'के इस कोलाहल में क्या असली मुद्दे ओझल नहीं हो गए हैं? इस रक्त स्नान के साथ क्या एक साल से जारी किसानों का यह अहिंसक आंदोलन कहीं नजीर बनने की राह से भटक तो नहीं गया है? यहां यह भी गौरतलब है कि जिन लोगों की गाड़ियों से किसान कुचले गए, वे सत्तारूढ़ पार्टी और केंद्रीय गृह राज्यमंत्री से जुड़े थे। क्या उनसे इस व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है? गृह राज्यमंत्री के सुपुत्र इस वहशियाना हत्याकांड के नामजद अभियुक्त हैं और सुप्रीम कोर्ट की गहरी नाराजगी के बाद वह पुलिस के समक्ष उपस्थित हुए। क्या उन्हें खुद पुलिस के सामने पेश नहीं हो जाना चाहिए था? समाज के लिए राजनीति हो या राजनीति के लिए समाज, इस पर विचार करने का वक्त आ गया है।
पिछले साल जब पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों से किसानों के जत्थे-दर-जत्थे दिल्ली की दर पर इकट्ठा हो रहे थे, तब सवाल उभरा था कि वे कब तक टिकेंगे? मौसम, महामारी और किस्म-किस्म के लांछनों से मुकाबला करते हुए वे आज तक डटे हुए हैं। राहगीरों को उनसे दिक्कत है और आसपास की रिहाइशों के लोग भी हलकान हैं। किसान इससे वाकिफ हैं। उन्होंने हर चंद कोशिश की कि उनके और सरकार के बीच का यह द्वंद्व भटकने न पाए। वे इसमें काफी कुछ कामयाब रहे। गुजरी 26 जनवरी को जब कुछ लोगों ने लाल किले के प्राचीर पर हिमाकत का प्रदर्शन किया, तो यह भरोसा डगमगाया, लेकिन किसान नेता यह समझाने में कामयाब रहे कि यह अराजक और अवांछनीय तत्वों की कारस्तानी थी। लोग मानते हैं, ये धरतीपुत्र पसीना बहाकर हमारे लिए अनाज उगाते हैं। इनके बेटे खून बहाकर सीमाओं की रक्षा करते हैं। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं?
इस वक्त भी लखीमपुर खीरी हिंसा के वीडियो से प्रथम दृष्टया प्रतीत होता है कि पहले उनकी भीड़ पर गाड़ियां चढ़ाई गईं और बाद में वे प्रतिहिंसक हो गए। हालांकि, मामला इतना सहज नहीं है। कुछ ऐसे भी वीडियो और फोटो सामने आए हैं, जिनमें जानलेवा डंडा भांजते नौजवानों में से एक की टीशर्ट पर जरनैल सिंह भिंडरावाले की तस्वीर छपी है। अगर ये चल-अचल तस्वीरें सही हैं, तो किसान नेताओं को संभल जाना चाहिए। ऐसे तत्व उनके आंदोलन की दिशा भटका सकते हैं। लाल किले की घटना के वक्त भी कुछ ऐसी बातें उठी थीं।
आप इतिहास की पोथियां पलट देखिए। ज्यादातर उन्हीं आंदोलनों ने नई रीति रची, जो अहिंसक रहे। कल्पना करें, अगर लखीमपुर खीरी में प्रतिहिंसा नहीं हुई होती, तो क्या होता? शांत प्रदर्शनकारियों को कुचलने वाले तब भी उतनी ही सजा के हकदार होते, जितने आज हैं। आज राजनेता चुनावी फायदे के लिए वहां उमडे़ पड़ रहे हैं, तब समूची दुनिया के लोग उनके साथ खडे़ होते। यह कहते वक्त मैं जानता हूं कि अपनों को दबा-कुचला और कराहता देख खुद को बेकाबू होने से रोकना नामुमकिन को मुमकिन करने जैसा है, पर भटके हुए आंदोलन किसी काम के नहीं होते। उम्मीद है, किसान नेता इस तथ्य को समझेंगे।
Rani Sahu
Next Story